परिवार का मोल
परिवार का मोल


नन्हीं प्रीशा आजकल कुछ उदास सी रहती थी।गर्मी की छुट्टियों की वज़ह से स्कूल बंद हो गया था, घर के आस-पास कोई फ्रेण्ड भी नहीं रहती थी और ना ही प्रीशा को कहीं बाहर जाने का मौक़ा मिल रहा था।बस रूम में कैद सारा दिन बैठे-बैठे या तो टीवी, मोबाइल देखो, या कलरिंग करो !
गर्मी का मौसम था, तो बाहर आँगन में भी नहीं खेला जा सकता थाशाम को जरूर पापा-मम्मा वॉक करते तो प्रीशा भी थोड़ी देर साइकिल चला लेती।बस ऐसे ही दिन निकल रहे थे।
आज प्रीशा को बुआ और काकू की बहुत याद आ रही थी-"वो दोनों पास होते तो खेलते तो सही मेरे साथ !मम्मा-पापा तो बस - "प्रीशा, ये मत करो,प्रीशा, पढाई करो,प्रीशा बाहर मत निकलो"- सारा दिन उपदेश देते रहते हैं।"
और प्रीशा ने दादीसा को वीडियो कॉल लगा दिया- "दादीसा, आप यहाँ हमारे पास आ जाओ ना ! दाता, बुआ, काकू को साथ ले के"
अब दादी सा अपनी इकलौती पोती की बात भला कैसे टालती !
पहुँच गए सब प्रीशा के पास...अब तो गर्मी का मौसम भी सुहाना हो गया प्रीशा के लिए...
सुबह-सुबह दाता के साथ योगा, प्राणायाम, फिर दिन में काकू और भूईईईई के साथ मस्ती, गेम...
बीच बीच में दादीसा कभी रंग-बिरंगा बर्फ़ का गोला बना के दे देती ती कभी मलाईदार कुल्फ़ी, कभी ठंडी-ठंडी आइस्क्रीम तो कभी मीठा मज़ेदार शर्बत।
और आज तो दाता ने एक ट्रैक्टर रेत भी डलवा दी घर के बाहर बने आँगन में।अब तो शाम होते ही प्रीशा, काकू और प्रीशा की भूईईई, तीनों रेत पर कभी घर बनाते तो कभी ईंट की गाड़ी चलाते।
रात को जब रेत ठंडी हो जाती, दिन में चलते लू के थपेडे मंद बयार में बदल जाते तो सभी परिवार के सदस्य वहीं रेत पर बैठकर गप्पें हांकतें।
ऐसे ही गर्मी की छुट्टियाँ कैसे बीत गयी, पता ही नहीं चला।प्रीशा की वज़ह से सब परिवार के सदस्य लंबे समय बाद साथ-साथ रहे थे।
दिल में पनप रही हल्की-हल्की दूरियाँ, वैचारिक मतभेद सब इन छुट्टियों ने धो- पोंछ डाला था।
परस्पर प्रेम, आपसी सहयोग, आत्मीयता... सारी भावनाएँ फिर से सभी के मन में हिलोरें मारने लगी थी।
अब पुनः स्कूल खुलने का वक्त आ गया था, प्रीशा के दाता, दादीसा, बुआ, काकू भी वापस जा रहे थे मगर सबने इस बार प्रीशा से वादा किया कि पूरा परिवार जहाँ भी रहेगा, गर्मी की छुट्टियाँ हर साल साथ-साथ ही बिताएंगे।