विलुप्त होते तालाब और सूखे का निस्तारण
विलुप्त होते तालाब और सूखे का निस्तारण


तालाबों की परंपरा पानी के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। 1947 में देश में करीब 24 लाख तालाब थे, तब हमारी आबादी आज की तुलना में एक चौथाई थी। उस समय करीब 17 फ़ीसदी सिंचाई देश में तालाबों के माध्यम से ही होती थी। आज हालात यह हैं कि 2001 की जनगणना के अनुसार इस देश में करीब 5.5 लाख तालाब ही बचे हैं, जिसमें से भी 15 फ़ीसदी का कोई सीधा उपयोग आज नहीं दिखाई देता।
वर्ष 1944 में अकाल जांच आयोग ने तालाबों का ही महत्व समझा था और इस बात पर दबाव बनाया था कि हम अकाल से लड़ने के लिए पानी की व्यवस्था कर सकते हैं। आज जहां- जहां देश में पानी बड़े संकट के रूप में देखा जा रहा है, वे कहीं ना कहीं तालाबों से जुड़े थे। बुंदेलखंड, तेलंगाना, कालाहांडी या मैसूर हों,ये तालाबों के लिए ही पहचाने जाने वाले क्षेत्र होते थे।लेकिन आज यहां तालाबों के खत्म होने की स्थिति में पानी का बड़ा संकट नजर आ रहा है। झारखंड को ही लें, यहां के करीब 50 फ़ीसदी तालाब आज कहीं दिखाई नहीं देते। शेष तालाबों में 30 फ़ीसदी समाप्ति के कगार पर हैं। छत्तीसगढ़ के भी यही हालात हैं तो वहीं रायपुर, जिसे एक समय में तालाब नगरी कहा जाता था वहां 227 तालाबों में 53 तालाब खत्म हो चुके हैं।
प्रकृति के एक अंग का इस तरह से विनाश इस कारण हुआ क्योंकि हमने अपने विकास में तालाबों को अनदेखा कर उनका उपयोग अन्य कार्यों में कर दिया। यह भी बात तय है कि हम जिस बाढ़ को झेल रहे हैं उसे बचाने में पहले तालाब अहम योगदान करते थे। पहले घर - गांवों की सभ्यता और संस्कृति की पहचान तालाबों से होती थी अब इनके उस महत्व को नहीं समझते। हालात आज इस हद तक पहुंच चुके हैं कि अब तालाब अब उतने खरे नहीं रहे जितना एक समय में इनका महत्व होता था।
देश में पानी की समस्त खपत 3 अरब घन मीटर है और इस देश में 4 अरब घन मीटर वर्षा होती है। हम दुनिया के भाग्यशाली देशों में से एक हैं जहां इंद्र देव की कृपा होती है। लेकिन हम इसका 15 फ़ीसदी से ज्यादा उपयोग नहीं कर पाते और इसमें सबसे बड़ी समझदारी- भागीदारी इसी में थी कि घर- गांवों के तालाबों में उस पानी को संचित किया जाता।
एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि हमारे लिए पानी के संकट के बीच में क्या बात सबसे बड़े समाधान, सबसे बड़े विकल्प के रूप में सामने आ सकती है तो निश्चित रूप से इस श्रेणी में सबसे पहले तालाब ही आएंगे। कारण है इनका एकमात्र योगदान। अपने चारों तरफ के गांव को ही नहीं बल्कि साथ में भूमिगत जलभिदों को पानी उपलब्ध कराना भी है जो कुओं और बावड़ियों
में भी पहुंचता है।
आज ऐसे बड़े उदाहरण हैं जहां समुदाय ने आपस में जुटकर तालाब बना डाले। एक ऐसा उदाहरण धारवाड़, कर्नाटक का है जहां 20 गांवों के किसानों ने मिलकर नरवाल गड्डी तालुक में एक बड़ा उदाहरण खड़ा किया। यह क्षेत्र लंबे समय से सूखाग्रस्त श्रेणी में आता था। इससे निपटने के लिए गांव वालों ने कमर वन औरकसी और तालाबों का निर्माण किया। आज यह हिस्सा सूखा मुक्त है। इन्होंने 461 तालाबों का निर्माण किया और हर तालाब 12 × 100 फीट का था।
इस तरह यहां लाखों लीटर पानी एकत्र कर लिया गया ।यह पानी सिंचाई के लिए ज्यादा उपयोग में आया। अब यहां के किसान साल में तीन फसलें लगा लेते हैं और आय भी दोगुनी हो गई है।स्थानीय किसान ईश्वर अप्पा की 25 एकड़ जमीन में सूखे ने बड़ी मार की थी जिससे वे ऋण में घिर गए थे पर तालाब ने उनका जीवन बदल दिया ।16 एकड़ प्लॉट पर तालाब बनाकर उन्होंने ₹3 लाख का लाभ लिया। इस सफलता को देखते हुए काढ़ाकल्ली के 150 परिवारों ने 50 तालाबों का निर्माण किया और देश में कृत्रिम तालाबों की संख्या में अव्वल हो गया।
इतिहास को टटोला जाए तो हैदराबाद ,प्रयागराज, चेन्नई जैसे बड़े शहरों में सदियों से पानी की आपूर्ति तालाबों के ही माध्यम से होती थी। वर्षा आज भी उपलब्ध है, तालाब आज भी कहीं हैं, उन्हें मुक्त करके देश को पानी के संकट से बचाया जा सकता है। पृथ्वी की प्यास को बुझाया जा सकता है।