रामदयाल मुंडा
रामदयाल मुंडा
रामदयाल मुंडा का जन्म रांची से 60 किलोमीटर दूर तमाड़ के दिउड़ी गांव में 1939 में हुआ था5। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अमलेसा लूथरन मिशन स्कूल तमाड़ से प्राप्त की। माध्यमिक शिक्षा खूंटी हाई स्कूल से और रांची विश्वविद्यालय से मानव विज्ञान में स्नातकोतर,उच्चतर शिक्षा अध्ययन एवं शोध शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका और भाषा विज्ञान में पीएचडी अमेरिका से की। फिर वहीं से उन्होंने दक्षिण एशियाई भाषा एवं संस्कृति विभाग में शोध और अध्ययन किया। पढ़ाई पूरी करके वह टकमिनिसोटा विश्वविद्यालय के साउथ एशियाई अध्ययन विभाग में 1981 तक एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में अध्यापन करने लगे। डॉ॰ मुंडा को अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज, भारत स्थित यूएसए एजुकेशन फाउंडेशन और जापान फाउंडेशन की तरफ से फेलोशिप भी प्राप्त हुआ था। 1982 में वे रांची लौट आए और तत्कालीन संभागीय आयुक्त व रांची विश्वविद्यालय के कुलपति कुमार सुरेश सिंह के सहयोग से रांची विश्वविद्यालय में आदिवासी और क्षेत्रीय भाषा विभाग की स्थापना की, यह देश के किसी भी विश्वविद्यालय में आदिवासी भाषा-साहित्य का पहला विभाग था।
डा. रामदयाल मुंडा न सिर्फ एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद्, समाजशास्त्री और आदिवासी बुद्धिजीवी और साहित्यकार थे, बल्कि वे एक अप्रतिम आदिवासी कलाकार भी थे। उन्होंने मुंडारी, नागपुरी, पंचपरगनिया, हिंदी, अंग्रेजी में गीत-कविताओं के अलावा गद्य साहित्य रचा। उनकी संगीत रचनाएं बहुत लोकप्रिय हुईं और झारखंड की आदिवासी लोक कला, विशेषकर ‘पाइका नाच’ को वैश्विक पहचान दिलाई। वे भारत के दलित-आदिवासी और दबे-कुचले समाज के स्वाभिमान थे और विश्व आदिवासी दिवस मनाने की परंपरा शुरू करने में उनका अहम योगदान था।
डॉ॰ मुंडा 80 के दशक के अंत में भारत सरकार द्वारा बनायी गयी ‘कमेटी ऑन झारखंड मैटर’ के प्रमुख सदस्य थे। उनका ‘द झारखंड मूवमेंट रेट्रोसपेक्ट एंड प्रोस्पेक्ट’ नामक आलेख भारत के आदिवासी समुदायों के परंपरागत, संवैधानिक अधिकार और विकास को लेकर सजगता की झलक है। आदिवासी अधिकारों के आंदोलन में उनके मुताबिक़ शिक्षा महत्वपूर्ण थी इसीलिए अमेरिका से प्राध्यापक की नौकरी छोड़ कर वे रांची लौट आए।
रामदयाल मुंडा धर्म को सबसे महत्वपूर्ण मानते थे। वह आदिवासी धर्म को इसलाम, हिंदू और ईसाई धर्म से अलग मानते थे। शशशशश उन्होंने ‘आदि धरम’ नामक पुस्तक लिखी, इसके अलावा उन्होंने
नागपुरी, मुंडारी, हिन्दी व अंग्रेजी में भारतीय आदिवासियों के भाषा, साहित्य, समाज, धर्म व संस्कृति, विश्व आदिवासी आंदोलन और झारखंड आंदोलन पर 10 से अधिक पुस्तकें तथा 50 से ज्यादा निबंध लिखे। उन्होंने कई पुस्तकों का हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी मे अनुवाद व संपादन भी किया है।
वह आदिवासी चिंतक वेरियर एल्विन का उदाहरण देते हुए कहते थे कि आदिवासियों के विकास के तीन रास्ते हैं- अपने पुरातन रीति-रिवाजों के साथ अलग रहें, मुख्यधारा के स्थापित धर्माे के साथ घुल-मिल जाएं और उसकी संस्कृति अपना लें या अपनी शर्त के साथ ही विकास की मुख्यधारा में शामिल हों। वह स्वयं तीसरे के पक्ष में थे। यह उनके जीवन शैली, पहनावा, आचार-विचार आदि में दिखता था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है उनके द्वारा रचित - ‘सरहुल मंत्र’ स्वर्ग के परमेश्वर से लेकर धरती के धरती माई, शेक्सपीयर, रवींद्रनाथ टैगोर, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन से लेकर सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, बिरसा मुंडा, गांधी, नेहरू, जयपाल सिंह मुंडा और सैकड़ों दिवंगत व्यक्तियों को एक साथ बुला कर पंक्ति में बैठने का आमंत्रण हैं।
डॉ मुंडा ने जीवन भर आदिवासी समुदायों के उत्थान के लिए अथक श्रम, संघर्ष और अतुलनीय कार्य किये।
30 सितंबर 2011 को कैंसर के कारण रांची के अपोलो हॉस्पीटल में उन्होंने अंतिम सांस ली।