फूलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू
फूलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू
फूलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू सिदो, कान्हु की बहने थीं।इनका जन्म भोगनाडीह नामक गाँव में एक आदिवासी संथाल परिवार में हुआ था। संथाल विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाने वाले ये छः भाई बहन सिदो मुर्मू, कान्हु मुर्मू ,चाँद मुर्मू ,भैरव मुर्मू , फुलो मुर्मू एवं झानो मुर्मू थे।फूलो और झानो का नाम इतिहास के पन्नों में सदा उपेक्षित ही रहा।इतिहास में हूल के महत्व को रेखांकित नहीं किया गया है. प्रसिद्ध दार्शनिक कार्ल मार्क्स की किताब ‘नोट्स ऑन इंडियन हिस्ट्री’ में 1855 के संथाल हूल को आम लोगों के नेतृत्व में लड़ा गया औपनिवेशिक भारत का पहला संगठित जनयुद्ध कहा गया है।
1854 ईस्वी में कम्पनी के शोषण के ख़िलाफ़ संथालियों में क्षोभ चरम पर पहुँच गया।
इसके लिए लोगों को एकजुट करने का काम शुरू किया गया। भैरव, चाँद, सिदो और कान्हू के साथ फूलो और झानों दोनों बहनों ने भी आंदोलन में भाग लिया।फूलो और झानो ये ईस्ट इंडिया कम्पनी के ख़िलाफ़ हुए प्रथम संथाल विद्रोह में संदेश वाहक का काम करती थीं। मुर्मू परिवार की ये जुझारू बहने अपने हाथों में साखू की टहनियाँ लेकर कम्पनी के ख़िलाफ़ विद्रोह का संदेश दूर- दूर तक पहुँचाती थीं। आंदोलन इतना उग्र था कि अंग्रेजों ने इसके बारे में लिखा है कि' लोग कुल्हाड़ी, भाले और तीर लेकर लड़ने आते थे। हम लोग फ़ायरिंग करके भगाना चाहते थे पर वह समर्पण करना जानते ही नहीं थे,जब तक नगाड़े बजते थे, उनका पूरा समूह डटा रहता और मारे जाने के लिए तैयार रहता। हमने तब तकश गोलियाँ चलाईं जब तक की उनका प्रत्येक व्यक्ति मारा नहीं गया।'इसमें लगभग 25 हजार आदिवासियों के मारे जाने की बात कही जाती है। इसके बावजूद हूल के जज्बे का दमन नहीं हो सका। स्कॉटिश इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी पुस्तक ‘अनल्ज ऑफ रूरल बंगाल’ में उस समय कार्यरत एक ब्रिटिश ऑफिसर मेजर जेर्विस के हवाले से संताल हूल के दौरान संतालों के कत्लेआम और उनके जज्बे के बारे में लिखा कि ‘यह कोई युद्ध नहीं था।'
अंग्रेज़ी सेना की इस क्रूरता का बदला लेने के लिए फूलो और झानों ने रात में कुल्हाड़ी लेकर अंग्रेज़ी सेना पर हमला कर दिया और 21 अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, स्वयं भी अपने प्राण न्योछावर कर दिए। भारत के मैदानी क्षेत्रों में जहां प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई 1857 की गर्मियों में शुरू हुई थी वहीं संथाल विद्रोह जून 1855 में होकर पूर्ण हो गया।
कम्पनी ने अंत में डरकर अपने अधिकार क्षेत्र और दखलअंदाजी को कम किया और कई भूमि सुधार क़ानून लागू किए।
इन दो बहनों को भारत की प्रथम महिला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी माना जाना चाहिए।