minni mishra

Classics

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विदेह की वैदेही

विदेह की वैदेही

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जब जनक की धीया ने राम के गले में जयमाल पहनाई अंबर से पुष्पवर्षा होने लगी ,दिगदिगंत जयजयकार करने लगा। मिथिला रीतिरिवाज के अनुसार विवाह का समापन हुआ। पंडाल में बैठे गणमान्यों के बीच मिथिला नरेश ‘जनक’ और अयोध्या नरेश ‘दशरथ’ दोनों समधी काफी आह्लादित दिख रहे थे। एक को धनुर्धर दामाद मिला तो दुसरे को सुयोग्य,कुलशील वाली सुंदर पुत्रवधू।

हवा का रुख बदलते देर ना लगी। कल से बज रहे रशनचौकी का सरस, मोहक धुन आज भोर होते ही अचानक उदासी में बदल गया।विवाह के धूमधड़ाके शांत दिखने लगे। सभी प्रान्तों से शिरकत करने आये गणमान्य और राजामहाराजा वापस अपने गन्तव्य को प्रस्थान करने के लिए तैयार हो रहे थे। मुख्यद्वार पर प्रतीक्षारत सभी आगंतुकों के वाहन चालक अपनेअपने वाहनों को लेकर चौकन्ने दिख रहे थे।

इधर प्रांगण में महिलायें, जो अभी तक विवाह के मोहक गीत गा रहीं थीं, वो अब सीता के ससुराल जाने की तैयारियों में जुट गईं। प्रांगण में सुसज्जित खड़ा विवाहमंडप, अब उदास होकर सबकुछ देख रहा था। 

कुछ महिलायें कोहबर( जहाँ विवाह के समय लौकिक रीतियाँ की जाती है तथा वरवधु का विश्रामकक्ष होता है) से सीताराम को लेकर भगवती घर की ओर चल पड़ीं। दशरथनंदन श्रीराम, सीता की कनिष्ठिका पकड़कर महिलाओं के साथ धीरेधीरे आगे बढ़ने लगे। उनके पीछेपीछे सखीसहेलियाँ ‘बटगवनी’( वरवधू को एकसाथ ले जाने का गीत ) गाते हुए चल पड़ीं।

सामने भगवती घर के देहरी पर खड़ी सुनयना, विष्णु तुल्य जमाता को बेटी संग आते देख भावविभोर हो रहीं थीं। इतने में श्रीराम की दृष्टि सासू माँ पर पड़ीतो वह सकुचाते हुए अपनी नजरें झुका ली। इस अलौकिक पल का साक्षी बन रहा अंबर मदमस्त हो उठा। अरुणोदय की लालिमा राजमहल को नहला रहा था। पक्षी के कलरव और स्निग्ध बयार से वातावरण सुरम्य हो उठा।

इसी बीच सभी महिलायें वरवधु को लेकर भगवती घर पहुँच गईं। अड़हुल, गुलाब, अपराजित, कनेर आदि फूलों से किया गये श्रृंगार से आक कुलदेवी की छवि अप्रतिम दिख रही थी। धुपदीप का सुगंध पूरे वातावरण में व्याप्त था। माता सुनयना, बेटीजमाता के निकट जाकर कुलदेवी को प्रणाम करने का उन्हें नयनों से इशारा करती हैं। माता का आदेश पाते ही दोनों कुलदेवी के आगे हाथ जोड़कर बैठ गये।

चम्पई रंग की पीताम्बरी, देह पर उसीके दुपट्टे , कानों में कुंडल, गले में पुष्पहार , आँखों में काजल, भाल पर तिलक और स्वर्ण मुकुट धारण किये श्रीराम की मोहनी छवि सबके मन को मोह रहा था, संग में बैठी भार्या सीता का नखशिख श्रृंगार

सुर्ख लाल रंग की जड़ीदार पटोर साड़ी , मोतीमाणिक्य जड़ित मंगटीका, ओठों को स्पर्श करता हुआ बड़ा सा नथ , वक्षस्थल को छूता हुआ हीरामोती का कंठहार, बड़ा सा झुमका, बाहों पर रत्न जड़ित बाजूबंद। हाथों में मेहंदी, कलाई पर सजी लाख की चूड़ियाँ माणिक्य जड़ित हथसंकर , नक्काशीदार चांदी की करधनी, पैरों में महावर, चांदी के पाजेब, मीनाकारी बिछुए , चोटी में गुंथे हुए बेली फूल के गजरे ,मांग में भरा लाल सिंदूर ,बालों और चोली को ढकता हुआ हुआ हरेसुनहले रंग का पारदर्शक जड़ीदार चुन्नी

को देखकर, वहाँ उपस्थित सभी महिलायें आनंदविभोर हो रहे थे।

सचमुच, ऐसे नयनाभिराम जोड़े पृथ्वी पर कभीकभार ही अवतरित होते हैं ! यही भाव लिए सभी मंत्रमुग्ध उन्हें अपलक निहार रहे थे कि इसी बीच एक सेविका पास आकर, आम के पल्लव से वरवधु के ऊपर कुछ छींटने लगी। हींग का तेज गंध एकाएक वातावरण में फ़ैल गया। वहाँ उपस्थित महिलाओं को समझते देर न लगी कि यह नजर उतारने का टोटका है।

तभी बाहर से पंडित जी की तेज आवाज , “विदाई का मुहूर्त शरू हो गया वरवधु को ”

इतना सुनते ही वातावरण में उदासी छा गई। कुलदेवी के आगे रखे सूप (अनाज फटकने का पात्र) में खोइंछा (धान, दूब, हल्दी का पांच गाँठ ,पांच साबुत सुपारी, सिंदूर और कुछ अशर्फियाँ) को उठाने के लिए माता सुनयना जैसे ही आगे बढीं  फफक पड़ीं।आँखों से अधीरता का सैलाब उमड़ पड़ा। उनको रोते देख उपस्थित महिलायें, सखीसहेलियों के आँखों से आँसू बहने लगे। ’समदौन’ (विदाई गीत ) शुरू हो गया। गीत के करुण लय के साथ महिलाओं के सिसकने की आवाज रफ़्तार पकड़ने लगी। 

सीता को भावुक होते देख, माता सुनयना उसके समीप पँहुच गई।माता ने उसके आँचल को खोला और उसमें एक लाल रेशमी टुकड़ा बिछाया तथा सूप में रखे खोइंछा को सहायिका की मदद से विधिवत अपने मुठ्ठियों में भरकर बेटी के आंचल में रखने लगी। सीता के आँखों से आँसुओं की लड़ी झरझरकर गिरने लगे। वह एकटक अपने खोइंछा को देख रही थी| बाल्यावस्था से ही इन रस्मों को देखते आ रही थी। जब भी कोई महिला नैहर या ससुराल जाती थी तो इसीतरह से खोइंछा देकर माता सुनयना उसे विदा करती थीं।

पर, आज पहली बार सीता को इस रस्म की क्या पीड़ा होती है, महसूस हो रही थी ! उसे ऐसा लग रहा था मानो किसी विकसित पेड़ को उसके जड़ से अलग कर, किसी अन्य बगीचे में उसे लगाये जाने की तैयारी हो रही हो ! सीता का मन विचलित हो रहा था।वो बारबार अधीर हो रही थी।

सुनयना ने खोइंछा को ठीक से गाँठ लगाकर सीता के कमर में खोंस दिया। प्राणों से अधिक प्यारी बेटी अब माता के सीने से चिपककर सुबकने लगी। सुनयना के धैर्य का बाँध ध्वस्त हो गया। वो जोर से विलाप करने लगी उसके कलेजे के टुकड़े आज उससे अलग हो रही थी। रोतीबिलखती माता बारबार बेटी के माथे को चूमती रही !!!

“वरवधु को जल्दी से बाहर ले आइये ।” पंडित जी की तेज आवाज फिर से सुनाई पड़ी।

झट, सीताराम को साथ लेकर महिलायें, सखीसहेलियां सब भगवत घर से बाहर निकल गयीं। वहीँ, आगे कुछ दूरी पर जनक खड़े थे। जैसे इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हों।आखिर हों भी क्यों नहीं ! महाप्रतापी अयोध्या नरेश दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र, धनुर्धारी श्रीरामके संग बेटी को विदा जो कर रहे हैं। एक पिता अपनी पुत्री का हाथ किसी सुयोग्य के हाथों में देकर कितना भार मुक्त और प्रसन्नचित्त हो जाता है, यह जनक के चेहरे से साफ़साफ़ झलक रहा था। 

 अरेये क्या ! जैसे ही वैदेही (सीता) बिलखते हुए उनके नजदीक पहुँचीपिता, विदेह (जनक) अधीर हो उठे। जनक ने सीता को एक अबोध शिशु की भाँती छाती से वैसे ही लगा लिया , जैसे वो आज से लगभग उन्नीस साल पहले

”अनावृष्टि के निवारणार्थ, यज्ञ के क्रम में जब जनक खेत की कर्मकांड जुताई कर रहे थे, तो उनकी नजर धूलमिटटी में लिपटी एक नवजात कन्या पर पड़ी। उन्होंने तत्क्षण उसे गोद में उठाकर छाती से लगा लिया।” 

लगाये थे।

 पिता, पुत्री को छाती से लगाकर जैसे किन्हीं ख्यालों में खो गये “सीता के वर चयन हेतु जो स्वयंवर रचा गया , उसमें मैंने शर्त रखा था कि जो कोई शिव के धनुष को भंग करेगा, उसीसे मेरी बेटी सीता का विवाह होगा।” और वैसा ही हुआ। शिव के प्रताप से ही आज यह मनोवांछित कार्य सफल हो पाया। मेरे ऊपर भगवान शिव की साक्षात कृपा थी, तभी तो शिव का धनुष मेरे राजभवन में पूजित और प्रतिष्ठित था

 श्रीराम के हाथ का स्पर्श होते ही जनक की तन्द्रा भंग हुई।उन्होंने देखा, श्रीराम उनके चरण छू रहे थे। जनक भावविभोर हो गये। आशीर्वाद देने की मुद्रा में वह अपने हाथों को श्रीराम के मुकुट पर रख दिया। 

परंतु, मुहूर्त का ध्यान आते ही जनक बेटीदामाद को लेकर सीधे आगे बढ़े गये। सीता अभी भी बच्चों की तरह बिलख रही थी। सुनयना संग सभी महिलायें मिलकर सीता और राम को फूलों से सजे पालकी में बिठाया। पालकी उठने के साथ पंडित जी जोर से सस्वर मंगलाचरण पाठ करने लगे।

सीता की हृदय विदारक चीख वातावरण में गूंज उठी। समीप खड़े नौकरचाकर सब के सब भावुक हो गये। आकाश भी रो पड़ा !बूंदाबांदी शुरू हो गईमानो ,स्वर्ग से देवतापितर प्रसन्न होकर , नव दम्पति को आशीर्वाद दे रहे हों। सभी गाजेबाजे के साथ पालकी नजरों से बहुत दूर होती चली गयी ! सुनयना और जनक, शून्य आँखों से पालकी को ओझल होने तक उसे एकटक देखते रहे। और अपने कलेजे के टुकड़े को रोमरोम से आशीर्वाद देते रहे। जब तक पालकी ओझल नहीं हो गई। 

समय, कभी किसी का इन्तजार नहीं करता ! भूगर्भ से उत्पन्न इस अलभ्य कन्या के ऊपर समय ने इतिहास लिखना शुरू कर दिया।

“जब आधुनिकता की कोई परिकल्पना नहीं थी, उस कालखंड में वर्ण और गोत्र को आधार मानकर ही समाज का वर्गीकरण हुआ करता था। उस समय राजा जनक ने इस लावारिस कन्या को अपनी पुत्री के रूप में अंगीकार कर लिया। उन्होंने न केवल अंगीकार किया बल्कि वह कन्या (सीता)राजा जनक और रानी सुनयना की प्राणाधार बन गई।

उस समय जनक ने तनिक भी विचार नहीं किया कि यह कन्या किस कुलगोत्र की है ? किस वर्ण की है ? किसका खून इसके शरीर में दौड़ रहा है ? जनक के मन में बेटाबेटी में कभी कोई भेद नहीं था। वह समदर्शी थे। उनकी नजरों में मिटटी और स्वर्ण एक समान था। सही मायने में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को वह जीना पसंद करते थे। जनक के दरबार में भारतीय कर्मकांड शास्त्र के प्रणेता याज्ञवल्क्य और न्यायदर्शन के प्रणेता गौतम रहा करते थे। राजा होने के बावजूदसांसारिक मोहमाया, रागद्वेष, भोगविलास सभी से वह बिल्कुल परे थे। इसलिए तो समाज ने उन्हें विदेह की उपाधि से नवाजा। इस पृथ्वी पर जनक ही एक मात्र विदेह के रूप में जगतविख्यात हुए।

ऐसे युगांतकारी विकास और वैयक्तिकरण के मूल में मात्र एक पिता की जिजीविषा थी। इस वर्तमान युग के मानवीय आदर्श और लिबरल विचारधारा से भी अधिक आदर्शवादिता विदेह ने दिखाई और उनकी पुत्री वैदेही ने इस वर्तमान काल के नारी स्शक्तिकरण के उच्चतम पैमाना को स्थापित करके दिखला दिया।”


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