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Arun Gode

Classics

4  

Arun Gode

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विदाई

विदाई

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वर्गमित्र श्रीकांत जो वर्गमित्र पुनरमिलन कार्यक्रम के आयोजन के कार्यक्रम में सकिय था।लेकिन उसका अचानक हृदयाघात से कुछ दिन पहिले स्वाथ खराब हुआ था। जो कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सका था। उसका नागपुर के मित्र, अरुण, गुनवंता, प्रदिप और रिना और भाभियों के साथ मिलकर, श्रीकांत के घर जाकर सत्कार किया था। उसके बाद रीना अपने बडे बहन के घर चली गई थी। कुछ दिन ठहरने के बाद वह पुना वापिस लौटने वाली थी। अचानक दो -तीन दिन बाद एक रीना का व्हाट्स पर संदेश आया कि आज वह पुना के लिए निकल रही हैं। संदेश को प्रतिसाद देते हुयें, अरुण ने, सुखद यात्रा का संदेश भेजा था। वह फिर पुना पहुंच गई थी। पुना पहुंच ने पर उसने संदेश भेजा था। उसके बाद में,हम बिच-बिच में कुछ कॉमेंट व्हाट्स पर दोनों साझा करने लगे थे। एक दिन उसका अचानक फोन आया था। पुछं रही थी कि मैं कब पुना आ रहा हुं। मैंने कहां मुझे कुछ यहां जरुरी काम करने हैं । वो काम होने के बाद मैं शायद अगले महिने पुना आउंगा। पुना आते समय कार्यक्रम का वीडिओ भी साथ लेके आउंगा। तुझे इस बहाने मिलने आउंगा। 

रीना: अरे तुझे, मुझसे मिलने के लिए बाहने की क्या आवश्यकता हैं। बिना बहाने के भी मिल नहीं सकता क्या। ?

अरुण: मिल सकता हुं।ऐसी कोई बात नहीं। लेकिन,

रीना: क्या लेकिन, मुझे इस लेकिन का मतलब समझायेगा क्या ?

अरुण: अरे ये जो मैंने कहां, वो मेरी पुरानी आदत के कारण कहां।

रीना: अच्छा अभी मेरे दिमाग की बती जल रही हैं। पहिले भी तू कोई न कोई कारण ढुढ्ने के बाद ही मुझ से मिलता था। मिलने के बाहने और अवसर खत्म हो गयें, तो मिलना ही बंद कर दिया था। दोस्ती वही खत्म कर दी। हैं ना। 

अरुण: ऐसी कोई बात नहीं हैं। आगे से बिना कोई कारण न होते हुयें भी मिला करुगां!। अब तो खुश हो ना। चलो फिर जल्दी से मिलते हैं। कुछ दिन बाद मेरे जैसे-जैसे काम खत्म होते गये और बचे काम कितने दिनों में खत्म हो जाएगें, इसका अंदाज लेकर मैंने माह मार्च के अंतीम सप्ताह में टिकट पुना के लिए आरकक्षीत कर लिया था। अभी जाना हैं, बच्चों और नाती से भी मिलना हैं। इस खुशी में दिन जल्दी-जल्दी कटने लगे थे।दिन कटने कि रफतार कुछ ज्यादा ही तेज हो गई थी। शायद इसके पिछे कोई और भी अदृश्य शक्ति काम कर रही थी। लेकिन इस खुशी को अचानक कोरोना महामारी से जो लॉक्डाउन घोषित हुआ उससे ग्रह्ण लग गया था। सभी अरमान क्षण भर में चकना -चुर हो गयें थे। मेरा पुरा परिवार पुना में था। में नागपुर में लॉक्डाउन मैं लॉक हो गया था। अभी इंतजार के सिवाय कोई विलल्प नहीं बचा था। जीवन में अकेलापन आ गया था। कैसे तो भी दिन काट रहा था। कभी दोस्तों, तो कभी परिवार वालो से बिच-बिच बात करके टाईम गुजार रहा था। कभी- कभी, रीना से चाटींग या फोन पर बात किया करता था। उसका सवाल अंत में एक ही रहता था। 

रीना: अरे तू कब आ रहा हैं ?। मुझे वह वीडिओ देखना हैं।

अरुण : अरे सिर्फ विडीओ देखना हैं।, और कुछ नहीं क्या ?

रीना: मतलब, 

अरुण : वीडिओ लानेवाले से नहीं मिलना हैं क्या ?

रीना: वह हंसते हुयें कहती थी, वो तो मुझे मजबुरी से मिलना ही पडेगा।

अरुण : चलो मजबुरी से मिलना, लेकिन, पोस्टमन समझकर, पेन ड्राएव लेके हकाल मत देना। 

रीना: ऐसा मैं कैसे कर सकती हुं। तुझसे मिलना तो मेरी मजबुरी हैं।

अरुण : चलो, तेरी मजबुरी सही, लेकिन ये मजबुरी हैं बडी खुबसुरत, मुझे बहुंत पसंद आई हैं। अरे सुनों तुम्हने, कार्यक्र्म में जो एंकरिंग की, वह बहुंत ही जबरद्स्त हैं। व्यावसायिक एंकर लगती हो।

रीना: अरे छोड़, तुझे मैंने पुरी तरह से पहचान लिया हैं। तू फ्लड करने के सीवाय कुछ नहीं कर सकता। तू किसी काम का नहीं हैं। चलो फोन रखती हुं।आना जरुर !

कोरोना महामारी ने सभी को परेशानी में डाला था। रोज के रोज नये- नये खबरे आती रहती थी। महामारी के कारण समुचे देश में दहशत का माहोल तैयार हो गया था। इस बिमारी का सबसे ज्यादा परिणाम, परप्रांतीय देहाडी मजदूरों पर पडा था।एक तो वो अपने गांव, परिवार से बिछड चुके थे। उनका जो आधार था। मजदूरी वो भी बंद हो चुकी थी। सरकारी व्यवस्था इतनी चुस्त-दुरस्त नहीं थी कि उनके रोज के गुजारा की व्यवस्था हो सके। सरकार ने लॉकडाउन के चक्कर में सभी प्रकार के यातायात के साधन बंद कर दिए थे। मजदूरों को जबरण हजारों मैंल पैदल चलकर अपने गांव जाना पडा था।शुरुवाती दौर में जीतने लोक महामारी से मरे नहीं, उस से कई गुना मजदूर सडक और रेल व अन्य हादसे में मर चुके थे। देश में बुरी तरह से निराशा का वातावरण बन चुका था। इस महामारी में जीस के पास पैसा नहीं था। वह तो भुकतभोगी था ही लेकिन जीस के पास सब कुछ होकर भी वह मजबुर मजदूरो से भी मजबुर था। कईयों के परिवार विभक्त हो गये थे। कई बुजुर्ग अपने- अपने घरों में अकेले पडे थे। उनकी कोई सुद लेने वाला नहीं था। कई परिवारों के बच्चे पढाई के लिए विदेश और परप्रांत में अटके पडे थे। कई सैलानी, अपने घर वापीस नहीं जा पा रहे थे। कई महिलाओं को प्रसुती के कारण, सुविधा के अभाव में अपनी जॉन गवानी पडी थी। नवजात शीशु को मातृत्व से हात धोना पडा था। कई नव-जवानों की शादियां रुकवानी पड़ी थी। सारे संसार में अफरा-तफरी का माहोल बन चुका था। सभी इस उम्मीद के साथ चल रहे थे की लॉकडाउन से जल्दी से जल्दी हालत सुधर जाएगें। समय के साथ लॉकडाउन की अवधी बढती ही जा रही थी। लेकिन हालात कही से ठिक नहीं हो रहे थे। देश की आर्थीक हालत भी गिरती जा रही थी। आखीर कार सरकार ने अँनलॉक- एक का ऐलान किया, जीसा से कुछ यातायात के नियमों में शिथीलता मिली थी। उसका फयदा उठाकर कुछ परिवार फिर से इकठ्ठा हो सके थे। लेकिन महामारि बढ़ती ही जली गई थी।

 इसी दौरान हमारे दामत ने मेरी पत्नी को फोर्व्हीलर से नागपुर छोड दिया था। वे अपने मां-बाप को पुना ले गये थे। दोस्तो ने मेरे विवाह की वर्षगांठ पर बधाई संदेश व्हाट्सपर भेजे थे। कुछ मित्रों ने मोबाईल से बात कर शुभकामनायें दी थी। सब मित्रों ने यह समाचार सुनकर राहत की सांस ली कि मेरी पत्नी वापस नागपुर आ गई हैं। यहा जानकारी रीना को भी प्राप्त हो गई थी। अचानक एक दिन उसका फोन आया था। 

रीना : अरे अरुण, कैसे हो। अभी तो अच्छा ही होगा। भाभी जो आ गई हैं, तुझे पत्नी पुनर्मिलन के लिए अनेक शुभकामनायें। मैं कुछ कहने के पहिले ही उसने एक प्रस्ताव रखा था।अरे सुन तू वो वीडिओवाला पेन ड्राइव कुरिअर से भेज दे। शायद अभी उसके सब्र का बाण टूट चुका था।

अरुण: अरे महोल खराब हैं, इसलिए मेरा आना नहीं जम रहा था, जैसे ही माहोल ठिक हो जाएगां ! मुझे तो आना ही हैं। अगर महोल ठिक होता तो अभी तक मैं दो -चार बार पुना आया होत।जैसे हालात ठिक हो जायेंगे मैं पेन ड्राइव के साथ तुझ से मिलने आ जाउंगा। 

रीना : अरे, तू आते रहना, अभी मुझे उसे देखनी की बहुत उसुकता हो गई हैं। तू तो उसे कल ही भेज दे। भेजेगा ना ?

अरुण: अरे तू कहे और मैं मना करूँ ऐसा हो सकता हैं क्या ? अच्छा ठीक हैं। अभी मैं फोन रखता हूँ, बड़े भारी मन से फोन रख दिया था।


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