विछोह
विछोह


नदी बालू से संघर्ष करती हुई किनारे को डूबा देने की साजिश में तल्लीन थी। पछुआ अपनी शैने शैने चाल से शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी। सूर्य की लालिमा आसमान की सीढ़ियां उतरते हुए सीधे चेहरे पर पड़ रही थी। पंछिया घूम कर नदी के रास्ते अपने घर लौट रही थी। उनकी लयबद्ध वापसी में बादल का टुकड़ा चालयमान होकर गति प्रदान कर रहा था। आषाढ़ के दिन थे। पर कुछ दिनों से बारिश नहीं हुई थी। छोटे छोटे पौधे बालू के आधिपत्य को समाप्त कर उग आये थे। दायी ओर बबूल का पेड़ फिर से जवान हो रहा था। कपास के उजले फूल शाम की रौशनी को सफ़ेद क़र रहे थे।
हम तट से थोड़ी दूर बने पत्थर और ईंट के बेंच पर बैठे थे। तुमने मेरे कंधे से टिका कर अपना सर रख दिया था। हमारे ठीक पीछे मंदिर की घंटी और लहरों का शोर वातावरण की शांति को भंग क़र रहा था था। मैंने कनखियों से तुम्हें देखा। चश्मे के फ्रेम में छिपी तुम्हारी आँखें सुंदर लग रही थी। तुम्हारी नजर दूर उड़ती पंछियों पर थी। मैं नदी की लहरों को देख रहा था। इस तरह नदी के पास बैठकर खो जाना बचपन की आदत थी। कुछ देर पहले बनाये हमारे पैरो के निशान पानी में डूब रहे थे।
तुमने कहा- "कुछ सुनाओ न।"
मैंने कहा - "क्या।"
" कुछ भी "
"अच्छा "
"हाँ पर तुम अपनी कवितायेँ नहीं पढ़ने लगना।"
मैं हँसने लगा। तुमने इतराते हुए शिकायती लहजे में अपना सर मेरे सीने में खींच लिया।
"ओह ! तुम्हें अच्छी नहीं लगती तो बताना था न !"
"नहीं ! पर इस समय वैसा ख्याल नहीं है "
मैं चुप रहा। मैं वीर रस का कवि था। तुमने पहली बार मुझे सोहनपुर के कवि सम्मेलन में कविता पाठ करते हुए सुना था। बाद में तुमने बताया था कि तभी तुम मेरी फैन बन गयी थी। मुझे अब भी लगता है वो कवि सम्मेलन मेरे सबसे खराब कविताओं का गवाह बना था। पर अब मुझे अफ़सोस नहीं होता। वो सारी कहानियां और उनकी लकीरें मुझे अब सुहाती थी, जिन्होंने मुझे तुम्हें मिलवाया था।
मैं क्या सुनाऊँ। फिर मैंने निश्चय किया कि वीर रस का ये कवि आज दूसरी बार रोमांटिक कविता कहने का साहस करेगा। मैंने हर प्रेमी युग्म के द्वारा अर्जित सत्य को सहारा बनाया। हाँ हमारी यादें। मैंने जेब से कुछ पर्चियां निकाली और उनपर अपनी यादें लिखना शुरू क़र दिया। अब मैं तैयार था। तुम वैसे ही मेरे सीने में लिपटी थी और मैंने पढ़ा -
" तुम्हारी उँगलियों में सहेजा आसमान
चंद्र माथे और आँखों की बरसात
तुम बरसने वाली थी जब तुमने अंधकार में डूबते वक़्त का तकाजा दिया "
तुम्हारे होंठो पर हलकी सी मुस्कान उभर आयी। हम कवि सम्मेलनों से इतर पहली बार मिले थे। शहर के एक बाग़ का बेंच। शाम का वक़्त था। शहर की सारी भीड़ मानो उस दिन उस पार्क में थी। पर मैंने पहले आकर एक एकांत जगह ढूंढ ली थी। तुमने पीछे से आकर मेरी आंखें मूंद दी थी। मैंने आँखें खोली तो उँगलियों में तुमने बड़ी कारीगरी से छुपाये चाँद सितारे नजर आये। लम्बे बालो के जुड़े जिसे तुमने रिबन से न जाने किस गूढ़ तरीके से संभाला था। आँखों के काजल, जरूर माँ ने लगाए होंगे। लाल रंग की लिपस्टिक तुम्हारे गोरे चेहरे में डूब गए थे। माथे की बिंदी भी माँ ने ही लगाए होंगे। बड़ी सी। चाँद सी गोल। तुम्हारे पतले फ्रेम का चश्मा बिंदी की भव्यता को बढ़ा रहे थे। तुमने बाद में मुझे चिढ़ाया था कि मुझे बस इतना ध्यान में रहा। जबकि सच यही था कि वीररस का वो कवि उस आसमान में डूबकर सबकुछ भूल चूका था। कहाँ उसके शौर्य शब्द उस आसमान की सुंदरता को वर्णित कर पाते।
मैं कुछ देर खामोश रहा। तुम्हें उन यादों को सहेजने का वक़्त देते हुए मैंने दूसरा पद पढ़ा -
" मैंने आग की नदी में तैर कर लहरों को छुआ था
" ठहरते लम्हो में बुझते सांसों से आसमान को बरसने का आमंत्रण था "
तुमने सुनकर मेरी तरफ देखा। मैंने एक कनखी मारी। तुमने मुझे एक चपत लगाई। अब नदी का पानी हमारे पैरो को छूने के लिए आतुर था। तुमने मेरे सीने में अपना चेहरा फिर खींच लिया था। मैं सोचने लगा। तुम काफी असफल प्रयत्नो के बाद मेरे घर पर डिनर करने को राजी हुई थी। कभी तुम्हारी माँ की इजाज़त नहीं होती तो कभी तुम शहर से दूर कोई काम आ जाता। मेरे कुछ दोस्त भी आये थे उस डिनर पर। मैंने तुम्हें पहली बार साड़ी में देखा था। तुमने पहली बार साड़ी ही पहनी थी। तुम्हारी गुलाबी साड़ी के किनारे पर कई मोर छिपे थे। बाद में ये हमारे बीच हंसी का एक कारण बना था। तुमने ठण्ड के कारण ऊन का एक शाल ओढ़ रखा था। तुम्हारे खुले बाल कंधे कमर तक आ रहे थे। कान के बड़े बड़े झुमके तुम्हारे व्यक्तित्व को मेरी काल्पनिक 'तुम' के खांचे में उतार रही थी।
कम्बख्त दोस्तों ने मेरे न चाहने पर भी उस डिनर को एक कवि सम्मेलन में तब्दील कर दिया था। मैंने कवितायें पढ़ी। उन्होंने बढ़ा चढ़ा कर तारीफ़ करी। फिर खाकर और थक कर चले गए।
हम दोनों आग के अलाव के आगे बैठे थे। आग के तेज से तुम्हारा चेहरा चमक रहा था। लौ की गति से हमारी परछाइयाँ भी दीवारों पर मंद और तेज हो रही थी। मैं अपनी उँगलियाँ आगे बढ़ाते हुए तुम्हारी उँगलियों को मिलने का आमंत्रण दिया। मेरी आँखें तुम्हारी आँखों के काजल में लिपटे मनोभावों को पढ़ने लगा था। मैंने अपने दूसरे हाथ की कांपती उँगलियों से कागज़ का एक टुकड़ा उठाया। फिर मैंने दुनिया की शायद सबसे अनरोमांटिक कविता पढ़ी जिसे मैंने अपने काव्य प्रतिभा की जड़ों को सींचते हुए लिखा था। इस प्रयत्न में मेरे कविताओं के नायक हालांकि विद्रोह पर उत्तर आये थे। मैंने तुम्हारे प्रेम आमंत्रण दिया। तुम खमोश रही। मैं उस खामोशी में न जाने क्या क्या ढूँढता रहा जब तुमने उसे स्वीकार किया। तुम्हारे चेहरे को बादल के लाज ने ढक लिया था। तुम धीमे से बोली - मुझे मंजूर है।
मैं उस समय भी अपनी कविताओं की आड़ में छुपने वाला एक ढोंगी था। वीर रस की कविताओं से मैं श्रोताओं को ओत-प्रोत तो कर देता था पर मैं खुद उनके नायकों से सम्बद्ध स्थापित कर पाता था। अपनी त्रुटियों को तुम्हें देख देख भरा था मैंने। तुम कोमल होते हुए भी शौर्य की प्रतिमा थी। समाज के दोमुंही रिवाज और दकिनायुसी चलनों पर तुम्हारी टिप्पणियों ने मुझमे सहस भरा था। मैं पुरुष था मुझसे कठोरता और वीरता की अपेक्षा की जाती थी। तुम स्त्री थी, कोमल होकर भी तुम्हारी ढृढ़ता मुझे तुम्हारी और खिंच लेती थी। तुम्हारे संग मेरे नायक व् नायिकायें मुझे सच्चे लगते थे। कुछ ही दिनों में मैं 'तुम सा' बन गया था। रंगहीन मैं रंगों में छुपने की कोशिश करने लगा था।
फिर भी वीर होना मेरे यथार्थ सत्य नहीं था। मेरी वीरता झूठ भी न था। आदर्शवादिता में हम कभी कभी उन चीजों को स्वीकार कर एक ढाल ओढ़ लेते है। समय कभी कभी इन आदर्शो को जरूर हम में उतार देता है। वीरता मेरा अर्जित सत्य था तुमसे। हर अर्जित सत्य के नियम मेरी वीरता पर भी लागू होते थे। अगर उनका अभ्यास छोड़ दिया जाये तो उसकी धार कुंद हो जाती है।
तुम्हारे दूर जाने से मेरे नायक अब विद्रोह क़र बैठते। मेरे लिए उतना ही ज़रुरी बन गयी थी जितना उनके लिए। तुम्हें पाकर वो भी मेरे पास बिना भरम के आने को राजी हो जाते थे।
हमारा प्यारा तुम्हारे चाँद सितारों से सजा था। पर पता नहीं वो तारे कब बादलों से लजाने लगे। मैं उन्हें हटाकर तुम्हे देखने को व्याकुल हो जाता। हमारा बल न चाहते हुए भी अब एक दूसरे का प्रतिरोध करने लगा था। मुझे पता था वो सब झूठ था। पर सत्य की जाँच के लिए भी मैंने झूठ का सहारा लिया और तुम अचानक जा चुकी थी।
फिर एक दिन मैंने तुम्हें यहां आने का आमंत्रण दिया और तब से हम रोज यहां आते है। तुम फिर समीप आ चुकी थी। मेरी कवितायें फिर फलने लगी थी।
सूरज अब छिप रहा था। बादल आसमान को ढक कर अंधेरे की साज़िश में शामिल हो रहा था। पंछी जा चुकी थी। बगुले भी अब अपनी सफेदी समेट चुके थे। मंदिर की घंटी अब सन्नाटे को तंग नहीं क़र रही थी। मैं अपनी पर्चियों को बेंच के नीचे घास पर रख दिया था और तुम्हें सुनाने के लिए नई पर्ची उठायी थी। तभी हवा का एक झोंका आया। रखी पर्चियां हमसे दूर चली गयी। मैंने तुम्हारे सर को हटाते हुए उनके पीछे दौड़ा। हवा के तेज झोंके उन्हें मुझसे छीन रहे थे। मैं बिलकुल पास पहुँचकर उन्हें पकड़ना चाहा। पर व्यर्थ। वही लहरे जो कुछ देर पहले मुझे सुहा रही थी अब उन पर्चियों को निगलने के लिए तैयार थी। नदी के आगे का हिस्सा जो हमसे झाड़ियों में छिपा था बड़ा कुरूप और भयावह नजर आ रहा था। मुझे क्रोध आया। उस क्रोध में वीरता न थी। प्रतिकार और कुछ न कर पाने की झुंझलाहट थी। मैं वापस लौटा। तुम जरूर मुझे डाँटोगी। पर तुम वहाँ नहीं थी। उस बेंच पर।