बच्चन ..करिश्मा और वो कुमार - एक व्यंग
बच्चन ..करिश्मा और वो कुमार - एक व्यंग


भारतीय शादियों में ' मुबारक मुबारक ये शादी तुम्हारी... ( हाँ मैंने भी प्यार किया हैं का एक गाना )' बजना कोई इत्तिफ़ाक़ नहीं, बल्कि सच्चाई है। हरेक अक्षय कुमार के लिए कोई अभिषेक बच्चन कुर्बान हो रहा होता है। जिस तरह सत्य की आहुति के लिए हवन होता है उसी तरह भारतीय शादी में सत्य की मर्यादा और साथ ही साथ उसका निरादर ( हमारी टॉलरेंस और समन्वयता ) करने के लिए ये गाना बजा दिया जाता है। बच्चन बेचारा फटा दिल लेकर और फटी पैंट पहनकर( क्यूंकि पैंट अच्छी पहन लेते तो शायद शादी हो जाती, एक्सेप्शन :एक्सेप्शन का भारतीय अनुवाद दुर्लभता नहीं सुलभता है, अच्छी पैंट कोई अनिवार्य शर्त नहीं है ,पर अगर आप भारतीय समाज के दर्शन को समझते है तो बता दूँ यहां हरेक दूसरी जाति की पैंट फटी मानी जाती है और अपने दही को खट्टा कौन कहे वाली तर्ज पर अपने पैंट को फटा कौन कहे जाने वाली शर्त है। कुछ बेवकूफ भले आधुनिकता के नाम पर आजकल अपनी पैंट को फटा कहने को राजी ही हों गए हों तो भी ) ) फटी लौडस्पकीर के गाने के बीच अपने कल तक के बेबी को ( जिस सम्बोधन को अब व्हाट्सप्प 'दिस मैसेज इस डिलीटेड' दिखा रहा होगा ) फ़टे मेकअप में देखकर अपने फ़टे( और खाली ) जेब को टटोलते हुए फ़टी गले से गालियां दे रहा होता है। जिसे अक्सर दुआयें भी कहा जाता है
अक्षय कुमार भी मुस्कुराता हुआ बच्चन को चिढ़ाते हुए बोलता हैं -" बेटा हमें फिल्म वाला अक्षय कुमार न समझ लेना जो अभी तुम्हारी माशूका से तुम्हारी शादी करवा दूंगा , ले जा रहा हूँ मैं तुम्हारी करिश्मा कपूर को "। बच्चन भी बेचारा कहाँ अच्छे से रो और गलिया पाता हैं। बगल से आवाज आती हैं - वो चिड़ीमार खड़ा ही रहेगा या प्लेटें भी समेटेगा। रियल लाइफ का बच्चन कुछ भी हो, जैसे आवारा, लफंदर ,लफुआ, सलमान खान ( जो एक साथ पिछले तीन शब्दों का ही पर्यायवाचक शब्द हैं), और सबसे अजीब प्राणी जिसकी महबूबा उसके शिक्षा अर्जन में व्यस्तता को उसकी वेबफ़ाई समझ क़र 'कुमार के साथ ही ठीक हूँ ' बोलती है वो है भारतीय शिक्षा पद्धति( भारतीय अक्षर में भार, चाहे राष्ट्वादी मुझे कूट दे पर मैं लिखूंगा ) का बेचारा उर्फ़ बेरोजगारा उर्फ़ बेकारा , वह इस समय सच का मंजनू बन जाता है | चाहे भले ही पत्थर तो दूर चार डंडे में ही उसकी आशिक़ी दम तोड़ दे |
हमारे शास्त्रों में लिखा हैं (मुझे ज्ञात नहीं कि लिखा गया है या नहीं पर जिस तरह अंग्रेजी के सारे टिका टिप्पणी का उद्गम स्थल आइंस्टीन का मुखद्वार हैं वैसे ही हिंदी के कोट्स शास्त्रों में जरूर मिल जायेंगे, बस श्रद्धा होनी चाहिए ) जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई( अब नेताओँ और किसानो पर लिखा यह सुविचार शास्त्रों को अर्पित क़र ही दूँ तो आपको कोई तकलीफ है, है तो मुझे गरज नहीं )। पर इस समय इस शास्त्रीय बात का उलंघन करने वाले पूर्व बच्चन और कभी कभी पूर्व अक्षय कुमार भी ( इसे इस तरह समझें की क्यूंकि कुमार भी कभी बच्चन थे या अर्थ के लिए आगे पढ़े ) नजर आ जाते हैं। वर्तमान बच्चन की पीड़ा को वो समझते हुए भी वो उसे लताड़ देते हैं और जिस तरह कवियों की ख़ामोशी को समझने के बार बार आग्रह को उसकी प्रेमिका और पाठक जानते हुए भी ख़ारिज क़र देते हैं वो भी उसकी ख़ामोशी नहीं समझते।
हाँ तो करिश्मा को कोई कुछ भी बोले, हमारे लिए करिश्मा का मतलब गोरे गोरे मुखड़े पर काला काला चश्मा ( इस नस्लवाद से अभी ही एक कंपनी को ऐतराज हुआ है ) ही है। जवानी के दिनों में भला किसे काला चश्मा पहनकर लड़को पर क़हर ढाहना अच्छा नहीं लगता। वैसे ही हमारी रैंडम करिश्मा को रैंडम बच्चन पसंद आ गए और उस रैंडम बच्चन ने कोई टुटपुँजिया बॉलीवुड मूवी देखकर उस पसंद को प्रेम की अजीब परिभाषा में परिवतर्न क़र दिया। बॉलीवुड फिल्मो के बारे में क्या कहूं बस ऐसा समझ लीजिये कि राष्ट्रीय फलक ( ऐसा कोई जगह नहीं है तो सावधान ! ) पर एक उभरते हुए नेता को, जो आजकल उभरने की प्रक्रिया में व्यस्त है और शायद आजीवन रहेंगे, को देखकर पता चला कि जिस देश में ऐसे नेता उभर सकते है उस देश में वैसी फिल्मे क्यों नहीं चल सकती।
हाँ तो प्रेम कहानी पर आता हूँ। बच्चन गढ़े प्रेम को आमूर्त करना भूल गए जैसे समुद्र मंथन में किसी को विष की याद नहीं रही थी। वो करिश्मा को चश्मा और गोरे गालों पर पप्पी देकर ही खुश हो गए और इस काल्पनिक वार्तालाप का शिकार हो गए- " लड़का : किसी दिन बनेगी तू राजा की रानी, लड़की : जरा फिर से कहना "। अब उस जरा फिर से कहना में डांट थी, इंकार था या बाबूजी को बताने के लिए ऑडियो रिकॉर्ड करने की विनती थी , ये बच्चन नहीं समझ पाया। उसे लगा गली में या तो गब्बर सिंह या फिर गोबर सिंह भरे है फिर वसंती का हाँ क्या वीरू को पता न चलेगा। काश वो अपने बाबूजी से थोड़ा सलाह क़र लेते ।
इधर करिश्मा ने भी राग अलाप दिया - " मिल गए छोरा छोरी, होगी मस्ती थोड़ी थोड़ी , बस प्यार का नाम न लेना ,माय फादर/ब्रदर/फैमिली हेट लव स्टोरी "| अब ऐसा भी नहीं है कि अपनी कहानी की नायिका को मैं आपकी नजरो से वेधने के लिए छोड़ दूँ। करिश्मा गलत न थी। बस वो ' मैं प्यार हूँ किसी और की , मुझे बिहायेगा कोई और ' वाली शर्त समझ चुकी है वैसे ही जैसे आप टीवी पर इंटरव्यू देखकर समझ जाते है की अमूक एंकर किसको गाली देगा और किसके तलवे चाटेगा। और मैं तो कहता हूँ कि ये समझ अच्छी है। प्रगति शील है। नासमझो के जमाने लद गए महाराज , जिस तरह हिंदी साहित्य के। स्वंत्रता, अभिव्यक्ति, कुरूप और नीरस समन्यवाद को वैसे ही टरका दिया है जैसे इस सरकार में गरीबो को।
तो प्रेम कहानी का अगला दृश्य मेल मिलाप, व्हाट्सप्प के क्षेत्रफल में शब्दे उगाने और उन्हें सींचने के लिए नए सम्बोधनों का विकास इत्यादि होता है। करिश्मा लोलो, बेबी, सोना बन जाती है और बच्चन बाबू, गोमू और बात बात पर बेवफा बन जाता है। मोबाइल का स्क्रीन मिलाप का प्रेमालय, शिवालय और आश्रमलाय बन जाता है और भक्ति नींद की जद में ' मैं नहीं बोल रही गुड नाईट तू बोल ' तक चलती है। करिश्मा के के बाल, चाल और गाल में हरियाली, लाली और निराली आ जाती है। बच्चन के आँखों और बातो में दोस्तों के लिए हिकारत, सिंगल्स के लिए फ़ीकारत और भावी अक्षय कुमार के लिए घृणाहत आ जाती है। बस क्या अक्षय कुमार की यही जोरदार एंट्री होती है। भाई मजा आया एंट्री सीन में ? नहीं ? फिर सलमान खान के फैन लगते हो और अगर पर्यायवाची शब्द याद हो तो वस्तुतः वही हो ही।
अक्षय कुमार की एंट्री से जैसा उम्मीद था कि कहानी में नया या पुराना मोड़ आएगा तो वो आता है। व्हाट्सप्प पर अब दुआओ की बरसात होती है। गुड मॉर्निंग की जगह निगोड़ी नस काटने की धमकी से दिन का स्वागत होता है। पर वो कभी नहीं कटती। समझदार लोग जानते है कि कहकर न करना हमारे यहां की परम्परा रही है तो उसे निभाना हमारा फर्ज है। दो लोगो के बीच में अक्षय कुमार ऐसे ही घुसता है जैसे हमारे यहां नेता दूसरे के कामो का श्रेय लेने के लिए घुसते हैं। फिर बेचारा रैंडम कुमार क्या करें, उधर उसकी भी रैंडम करिश्मा तन जाती है और उसे पता नहीं चलता कि उसके बिना पता चले वो पर्दे पर डबल रोल में है।
बच्चन कुछ सोच ही रहा होता है कि करिश्मा को दिया हुआ उसका चश्मा किसी बंद संदूक में ग़ुम हो जाता है। उसके गाल जिसपर बच्चन ने रैंडम कवितायेँ दूसरे से चुरा कर भेजा था , हल्दी लगना शुरू हो जाता है। समय के महत्व को समझने के लिए हमारे यहां पता नहीं कितने विद्वानों ने कलम और दिमाग खर्चा होगा। आलसियों को समय का महत्व जानना हो तो बच्चन से सम्पर्क कर लें।
कल तक जिस बदन को याद कर बच्चन जुमले और ' आह ' मले पढ़ता था वही उसे कुरूप नजर आने लगता है। टरकाये गए दोस्तों से सुलभ सन्धि ( जैसे चीन की बेवफाई से भारत और अमेरिका के बीच हो जाती है ) हो जाती है। सिंगल् लाइफ के १०१ फायदे मन में गिने जाते है और पोथियों में पढ़े जाते है। पर अक्षय कुमार को नहीं बक्शा जाता है। कभी कभी बच्चन नेताओ के कुयें यानी आदर्शवादिता में गिर जाता है। इश्क़ आग का दरिया है , बेइश्क़ कुआँ । इस आदर्शवादिता में वह स्त्री को पापिन, महाभारत और रामायण का युद्ध करनवाने वाली कुलटा औरत आदि सम्बोधनों से नवाज देता है। इश्क़ की आदलतो में प्रतिवादी बन क़र फिर दलील देता है- " मीलॉर्ड, आपका अस्तित्व ही क्या है जैसे हमारे कुछ बहादुर दोस्तों ने तरह तरह के ढकोसलो जैसे प्रजातंत्र, वैश्वीकरण का दम घोट दिया है , वैसे ही हम बच्चन मिलकर आपकी सत्ता को खूली चुनौती देते हैं , बंद कीजिये अपना ये खेल "। फिर थोड़ा रुआंसा होकर बोलता है - ' बाबू जी ठीक कहते थे आइस वाईस बनते, करिश्मा नहीं तो कुंती तो मिल ही जाती।' बस यहीं पर वो ज्यादती क़र बैठता है। उसे भी नहीं पता कि इस खेल में वो भी डबल रोल मे है और जिस बच्चन के भीड़ को अपना गुट बता रहा है कुछ दिन में उसी गुट से कोई दूसरा रैंडम बच्चन अपनी नजरो में उसे कुमार बना देगा। आप समझ गए ! डेमोक्रेसी ( अगर आप प्रजातंत्र सुनना अपनी शान के खिलाफ मानते हों तो ) और किसी भी रैंडम इज्म की तरह यहां सभी डबल रोल में है। डबल रोल यथार्थ है। आत्मा, परमात्मा। गेहूं, घुन। गुंडा, नेता। नक़ल, परीक्षा। घुस, काम। यहां तक कि अनेक दर्शनविदो ने डुअलिज्म की जो परिभाषा दी है उसमे हम एक दिखते हुए भी दो है और दो दिखते भी एक। डबल रोल के नए युग्म बन जाते है। बच्चन, कुमार। करिश्मा ... करिश्मा।
मुझे यही सत्य उजागर करना था। आगे पढ़ना आपकी मर्जी। आप सोचेंगे हैप्पी सी एंडिंग होगी। पर सबसे बड़ा दुर्भाग्य इसी बात का है कि अभी बच्चन इस सच को नहीं जानता। न जानना निर्दोषपन की निशानी है। जैसा आप समझते है। पर सजा किसी न किसी को तो भुगतना पड़ता है। जैसे अदालत नहीं जानती कि अमुक इलाके में नेता ने मूड में किसी का रेप या मर्डर तो नहीं क़र दिया। किसान नहीं जानते कि उनके लिए आया फण्ड कहाँ गया। बिहाती बेटी नहीं जानती कि बाबूजी इतना दहेज कहाँ से लाये। पड़ोसियों को नहीं पता चलता कि शर्मा जी का घर रातो रात इतना आलिशान कैसे बन गया। छात्रगण नहीं जानते कि नई छात्रा के प्रवेश से दुबे मास्टर क्यों मुस्कुरा देते हैं। कोयल नहीं जानती कि उसका पैदा किया गया बच्चा उसके घोंसले ( यानि अस्पताल ) से कहाँ गया। मिनिस्टर नहीं जानता कि अर्थव्यवस्था चरम सुख देकर नीचे क्यों जा रही। हमारे माननीय नहीं जानते कि अच्छे दिनों की सौगात कब आएगी। बच्चन की पीड़ा का करण अज्ञानता है। उसे देह चाहिए था प्रेम की पीड़ा नहीं !
क्लाइमेक्स पर आता हूँ। बच्चन प्लेटें समेटते हुए अपने दिल और कमर से पीड़ा को रेडिएट होते महसूस क़र रहा होता है। उसे लगता है कि उसकी पीड़ा एक ऋणात्मक ऊर्जा से शादी को रोक लेगी। उधर का अक्षय कुमार अपनी करिश्मा को याद करते हुए भी नई करिश्मा को देखकर जी हरियाल कर रहा है। प्रेम अपने ही दो रूप को देखकर विग्न हो जाता है। उसे लगता है इतने शायरों, कवियों और दर्शनविदो ने जो लिखा है कि प्रेम ही शाश्वत है उसका क्या ? पर वो हमारे देश क़े आम जनता की तरह कहां शिकायत करे। फिर 'भगवान' उसके प्रतिनिधि थोड़े ही हैं। करिश्मा सज रही होती है। उसे चश्मे की थोड़ी याद आती है। चश्मा बंद संदूक से करिश्मा क़े गालो को गोर बनाने क़े लिए आतुर है। करिश्मा चश्मे क़े इस आग्रह को ठुकराकर गाने और कहने लग जाती है - ' शीशे की उम्र प्यार की आखिर...' इससे पहले वो गाना पूरा करे सहेलियां उसे खींचकर शीशे सी सजाने लगती है। करिश्मा कुमार का फोटो देखकर मोबाइल को सीने से लगा लेती है और धड़कन से एक गूंज उठती है - ' ओरे परदेसी बालम..छुप छुप के ... '। उधर बच्चन भी किसी उपर्युक्त गाने के बोल याद करना चाहता है। जैसे हरेक प्रेम वियोग में जला भारतीय इस रस्म को निभाता है, कभी दारू की आड़ में तो कभी सिगरेट या माल के धुयें में। पर यह अभागा बच्चन कुछ याद नहीं कर पाता। सिनेमा के पात्र जो वैसे भी करिश्मा की गेशुओं में भूलकर देखे गए थे..याद करने पर भी धुंधली रह जाती है। करिश्मा के लिए चुराई कवितायें भी बगवात क़र बैठती है और वो शोर की आवृति में एक साथ उसके सीने में गूंज उठती है - 'उफ़ ये रात का शोर तुम कुछ बोलो न ..वी आर सन एंड मून्स रैप्ड इन डिस कूल यूनिवर्स...कह दूँ कि तुम गुलाब हो तो टूट आओगी तुम ..इल्म मेरी भी मोहब्बत का देखेगा जमाना तुम्हारी शादी दूसरे से हुई तो पंडाल में आग लगा देगा ये दीवाना ..हेट यू लाइक आय लव यु ..'। और फिर कभी जब रात मे ठरकीपन प्रेम की बनाई गयी छद्म दीवारे तोड़ देती थी तो वो निर्दोष करिश्मा को ये भेजता था - ' क्या होगा हम तुम एक कमरे मे बंद हो और चाभी पंखे से लटक जाये ?'। ये याद क़र उसके होठो पर एक कमीनी मुस्कान उभर आती हैं पर वो इसे दबा लेता है। प्लेटें समेटकर वह आराम और शोक की मुद्रा में खड़ा हो जाता है। तभी उधर से करिश्मा का डबल रोल दिखता है। चाहे वो बाराती वाले की तरफ से हो या सराती वाले की तरफ से. आग की दरिया में किनारे किस तरफ के है आप देखते है क्या ?। बच्चन का गम देखकर उसे निहायत सीधा मानकर मुस्कुराती है और बच्चन का दिल जो अभी तक पीड़ा रेडिएट क़र रहा था, अचानक प्रेम की किरणे बिखेरना लगता है। उधर गाना बजाने वाला भी किसी उपर्युक्त गाने की तलाश क़र रहा होता है, जैसे कोई भी चिड़ीमार सरकारी योजना में गबन खोज लेता है वो भी सत्य ढूंढ ही लेता हैं और गाना बजने लगता है - " मुबारक मुबारक ये शादी तुम्हारी, सदा खुश रहो ये दुआ है हमारी, हमारा है क्या यार हमारे दीवाने "। शादी के पंडाल से जैसे सत्य रेडिएट करने लग जाता है।