इन्टरनेट से गाँव तक का सफ़र
इन्टरनेट से गाँव तक का सफ़र


कुछ दिन पहले मेरे बचपन के एक दोस्त ने एक प्रश्न पूछा जिसने मुझे दुविधा में डाल दिया। मित्र पुरे लॉक डाउन व कोरोना काल में पटना में रहे हैं और मैं पटना से कुल ४५ किलोमीटर दूर अपने गाँव में।
उसने पूछा कि 'अब' मैं गाँव में कैसे रह लेता हूँ। पढने के सिलसिले में गाँव से१० साल पहले निकले थे। तब से आदते, भाषा और जीने का तरीका शहरी हो गया है। गाँव के पुराने मित्र अपनी पढाई और काम के कारण गाँव में कम ही रहते हैं | तो मैं गाँव में रह कैसे लेता हूँ ?
इस प्रश्न का आसान उतर मैंने दे दिया। हॉस्टल में रह ही चूका हूँ। रहने के लिए दो वक़्त का खाना और इन्टरनेट चाहिए और क्या। हाँ पिज़्ज़ा और फ़ास्ट फ़ूड नही मिलते। पर कोल्ड ड्रिंक्स , मैगी ( जो अब गाँव में सब्जी का पूरक बन चूका है ) है फ़ास्ट फ़ूड चाहिए तो। दोस्तों के नाम फेसबुक व्हात्सप्प पर कनेक्शन है ही। कभी कभी उनसे भी बात हो ही जाती है। जियो और गाँव में ७ साल पहले आये बिजली की कृपा से ऑनलाइन क्लास चल ही रहा है। अमेज़न भी लोभ गाँवों तक पहुचा ही देता है। मैंने बोला तो भाई और क्या चाहिए।
वस्तुतः इस जवाब से मैंने उसे समझाया की अगर मैं गाँव में हूँ तो ऐसा मत समझो की मैं गाँव में 'रह' भी रहा हूँ ! गाँव में रहकर ही वहां से पलायन करना आसान हो चूका है मेरे भाई ! हालाँकि खुद मैं अपने ही उतर का ये सन्दर्भ बहुत बाद में समझा।
इन्टरनेट ने हमारी जिन्दगी पर बहुत प्रभाव डाला है, इस बात से असहमति शायद ही किसी को हो। हजारों लाभों के साथ इन्टरनेट की सर्वव्यापी और जिन्दगी की हरेक पहलु के लिए सामधान के इसके दावे में कई पेंच हैं | दोस्त बनाने हैं ? जुड़ जाइये सैंकड़ो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से। कुछ खरीदनी है ? तो कई विकल्प हैं | इन्टरनेट कम्पनीज आपके सोल मेट ढूंढ देने का दावा भी करते हैं। कई शोध बताते हैं कि कई सारे विकल्प हमारी सुविधा पूरी तो करते है पर हमारे दिमाग को पंगु कर देते है। दिमाग को कई सारे फैसले इतने कम समय में करने होते है कि बेचारा खुश होने की बजाय दवाब में आ जाता है। आप इन्टरनेट पर ऐसे कई शोध पढ़ सकते है मैं उन सबकी चर्चा यहाँ नही करना चाहता हूँ। इन्टरनेट के कई दावो में जो दोस्त और सोल मेट ढूंढने या ऑफलाइन वार्तालाप की मिमिक चैट्बोक्स में करने का जो दावा है न, उससे मुझे सबसे बड़ा संदेह है। हाल ही में मैंने दो किताबे पढ़ी जिसने इन्टरनेट के मुलभुत उपयोग के बारे में मेरी दृष्टि बदल दी। हाउ इन्टरनेट इज चेंजिंग आवर ब्रेन : द शैलो और द डिजिटल मिनिमलिज्म। संक्षेप में कहूँ तो दोनों किताबे इस बात पर जोर देती है कि इन्टरनेट के तमाम फायदों के बाद भी हरेक मानवीय भावना ,सवेंदना और आदतों का ये कोई स्वस्थ विकल्प नही है। हम आज थोडा सा उदास महसूस करते है कि नेट खोलकर बैठ जाते है। वैसे में इन्टरनेट ने हमारे एकांत समय पर कब्जा कर लिया है। वही एकांत समय जिसमे हम अपने जिन्दगी के बारे में सोचते है, कुछ बाधाओ का सामाधान ढूंढते है और हमारी क्रिएटिव सोच पैदा होती है। इसने बेसक हमारी एकाग्रता और गहरे, व्यापक रूप से सोचने की क्षमता पर प्रभाव डाला है।
तो एक दिन मैंने इन्टरनेट ऑफ कर दिया। लैपटॉप भी नही छुआ। स्मार्ट फ़ोन टूट गया था उसे भी बनवाने का विचार ठंढे बस्ते में डाल कर चैन से सो गया। पर चैन मिलना इतना आसान थोड़े न था। इन्टरनेट की गुलामी बरसों की थी, कुछ घंटे या मिनट में ये मुझे कब छोड़ने वाला था। जाये तो कहाँ जाए। कोरोना है पर मास्क लगाकर जा तो सकते है। दूर से ही किसी से मिल तो सकते है। पर कौन किससे मिलना है भाई ? कोई मिल भी गया तो हालचाल के अलावा बात क्या करोगे। कितनी बार कुछ लोग मिले उसे तुमने टरकाया है क्यूंकि इन्टरनेट महाराज बुला रहे थे। कजिन भाई बहन बहुत है पर सबसे छोटे को छोडकर तुमने किसी से बात की है। पता नही वो तुम्हारे बारे में क्या सोचते होंगे। किताब ही पढ़ लेते है। अरे पर इतने साल से कर क्या रहे हो ? फिर डुबो उसी में और पर कितने घंटे ? गली में बच्चो से नये किशोर हुए ग्रुप की टोली है पर तुम तो हमेशा उन्हें जज ही करते रहे हो। घोर संकट। लगा इन्टरनेट उठाते है और उससे माफ़ी मांग लेते है। पर टिका रहा। छत देखता रहा। शाम हुई तो आसमान। रात हुई तो बरसों से भूले चाँद को। चाँद पर कई कविताये लिखकर भी तुमने इधर कई सालो से देखा है तुमने ? पूरी रात हुई तो सब्र टूटता गया। ये टाइम था जब कभी कभी मिया खलीफा जी बहला देती थी। उससे भी ब्रेकअप कर लोगे ? खैर इस रीजनिंग में कि ब्रेकअप करे न करे आँख लग गयी ! सुबह हुआ, दिमाग को बेड इन्टरनेट चाहिए होता है मैंने मना कर दिया। कुछ दिन ऐसे ही उठा पटक हुई। फिर लगा कुछ गुलामी की जंजीरे टूट रही है। मैं सतर्क था। कही से डिजिटल कनेक्शन का कॉल टेस्ट सुना था। भाई के मोबाइल से कई लोगो को फ़ोन लगाया। कुछ मुह्बोले दोस्त ने पहचाना भी तो बिजी बताकर चलते बने। कुछ को आश्चर्य हुआ। जैसे हम वर्चुअल वर्ल्ड में दोस्त तो थे , पर यहाँ पर भी ? नही नही। मंगल ग्रह पर मैं कभी बाद में शिफ्ट हुआ तो मुझे सारे दोस्त फिर से बनाने होंगे, कुछ इसी तरह का ख्याल आया। किसी सुन्दरी का भी माया मोह था। दिल अभी भी कह रहा है नौट अगेन ! गलती उनकी नही अपनी ही थी इस पुरे मोह चक्र में। उनका साथ छुटा तो वास्तविकता को चार पांच गालियाँ मिली, दिल को टूटने का आभास भी हुआ। पर मैं खुद अपनी चाल पर दंग ही था। खैर उनका जाना ऐसा ही था जैसे आप किसी गलत विषय को चुन लेते है और आपको ये मौका दिया जाता है कि आप इसे बदल सकते है ! आज कोई मुझे इंजीनियरिंग करने के लिए बोले मैं उसके सर पर चार घंटा मारूंगा।
दिल हल्का हुआ। बहुत खाली समय मिला। जिन्दगी में पहली बार लगा कि दिन रात मिलाकर सच में पुरे २४ घंटे होते है। सुबह सुबह लगा, दोपहर दोपहर और शाम शाम हुई। लोगो के चेहरे पर आया भाव सच प्रतीत होने लगा, किसी व्हाट्सएप का कोई इमोजी नही। दो चार दिन हुए तो लगा जिन्दगी में सालो के बाद कोई छुट्टी मिली। इसमें अब मुझे कोई आश्चर्य नही लगता कि कई बार सेमेस्टर के शुरुआत में ही मैंने बर्न आउट महसूस करता था। आज तक चाहे सेमेस्टर ब्रेक मिले हो या जॉब में छुट्टी ली हो, ब्रेक लगा ही नही जिन्दगी पर। वीकेंड पर पार्टी करो। पार्टी में भी पियर प्रेशर है ! समय मिला है तो स्किल्स सीखो भाई ! दुनिया भाग रही है, पीछे रह जाओगे। फेसबुक देखो, इन्स्टा देखो या लिंक्डइन , लोग पल पल जिन्दगी को खास बना रहे है।। यही सब काउंट हो रहा है। अमुक दोस्त पिछले ४० दिन में ४० स्किल 'सेट ' जोड़ चूका है। द ब्रेव वर्ल्ड के लेखक से मुझे जलन तो होती है कि उन्होंने फोर्ड की कार निर्माण की बेल्ट देखकर इतना बड़ा सच कैसे देख लिया। देखिये अब आदमी बेल्ट पर घूमता मशीन है जिसमे स्किल सेट जुड़वाये जाते है। सोशल मीडिया का इंजेक्शन दुःख भुलाने के लिए है और उनको खुश करने के लिए ऑनलाइन शॉप्स पर हजारो ऑफर्स है।
खैर धीरे धीरे मुझे खिड़की से अपना गाँव नजर आने लगा था। बहुत कुछ बदला है गांवो में भी और देखे तो कुछ भी नही बदला है। स्मार्टफोन भले दिलखुशवा के हाथ पर रहता हो, पर मैं मिलता हूँ तो हमेशा मुझसे पिछले दिनों की तरह जुड़ना चाहता है। बात करना चाहता है। लोग पैसे ज्यादा जरुर जोड़ने लगने है, पर अवधेश कका आज भी मिलते है तो चेहरे पर वही मिठास हंसी दे जाते है। कुछ कहना चाहते है पर मैं ही जल्दी में होना चाहता हूँ। शंकरा कका जिनके साथ तमाम क्रिकेट मैच की कमेंटरी सुनी है, अब कभी कभी ही मिलते है। प्रणाम पाती के अलावा और कुछ नही हो पाता। मैं सोचता था वो सोचते होंगे मैं शहरी हो गया हूँ अब क्या बात करूंगा। पर आज इस सोच का तुक नजर नही आता। हंसी भी आती है कि ऐसा सोचता भी कैसा था। विजैया दुकानदारी में पिला है पर घंटो तक गप्प लड़ाने को तैयार है। मैं सोचता हूँ उसे दूकान की फ़िक्र क्यूँ नही होती उतनी। उलटे मुझे चिंता होती है कि वो दूकान पर उतना ध्यान नही देता। पर वो हंस के उड़ा देता है कि भैया पैसवा कमाके बालू पर ले जाना है क्या ! मैं बोलता हूँ भाई फिर भी। बोलता है ठीक है समझे चलिए बेल का जूस पीते है। मैं बोलता हूँ कोरोना है भाई। फिर कोरोना को दस गालियां पडती है, नेताओ के कुछ झूठी, कुछ सच्ची मिस मैनेजमेंट के लिए माँ बहन की जाती है। और बेबाक टिप्पणी कि कोरोना अमीरों की बीमारी है। यहाँ पर कोई कटु बात भी हो जाती है तो वो या मैं तुरंत ब्लाक नही मार देता हूँ। हाँ भीतर से मन डरता है व्हाट्सएप इफ़ेक्ट के कारण। मैं कोरोना से बचाव का कुछ उपाय देना चाहता हूँ तो कहता है हमारे पास इतने इन्तेजाम नही कि कोरोना से बच पाए। अगर बच गये तो जिन्दगी मार देगी | तो उड़ा देते है कोरोना को मजाक में। कही उड़ जाए क्या पता ! ऐसा मत सोचिये कि ये इन्तेजाम पैसो के आभाव के कारण है। घर में नया एल सी डी आया है। मकान एक किता से दो किता बन रहा है। दो स्प्लेंडर है। फिर क्या इन्तेजाम नही है ? ऐ भाई हमसे मत पूछिए उसी से पूछिए ! पासियो के पीछे लगने वाली भीड़ वैसी ही है। दारु तो बंद है हाँ ब्लैक में मिल जाती है पर खुले में मिलने वाली ताड़ी कैसे छोड़ दे। कोरोना का जिक्र उनके सामने न ही करो तो भला है। आप ज्ञान झाड लीजिये। इन लोगो को अनपढ़ गंवार या शुद्ध हिंदी अंग्रेजी में गाली भी दीजिये, इन्हें आपके वतानुक्लित कमरे में बैठकर फेसबुक पर इसकी इनकी चर्चा या आपके कमेंट मीम से इन्हें झांट भी फर्क नही पड़ेगा ! सही या गलत हो , पहले मैं फेसबुक वाले ग्रुप में था , अब इन्हें समझता हूँ कि आखिर वो ऐसा क्यूँ करते है। इसी दुरी का मिटना मेरे लिए एक खास बात हो जाती है।
पहले हतकट्टा के बगैचा में जाने से डर लगता था। शाम होते ही तरह तरह की आवाज आती थी। जो भीड़ पहले लोगो के दालान पर जुटता था आजकल किसी की दुकान पर या हतकट्टा के इसी बगैचा में। अब आने वाले हरेक के पास स्मार्टफोन है। पब जी का ग्रुप बैठता है ताश पत्तो का भी और गप्प हांकने वालो का भी। सुबह सुबह राधे राधे अब भी लाउडस्पीकर पर ऑन हो जाता है। इस गाने के साथ जो यादे जुडी है वो कठिन है। मास्टर साहब सुबह ६ बजे जाड़े में क्लास के लिए बुला लेते थे। ५ बजे उठना पड़ता था। उतनी ठण्ड में हाफ पेंट में ही ठिठुरते हुए जो चलते जाते थे और ये गाना बजता था तो लगता था सब राधे राधे ही है। लोकल रेलवे हाल्ट पहले बैठने की चीज होती थी। ताश के गेम चलते थे मंडी लगती थी। कुल मिलाकर सार्वजनिक सम्पति थी। अब स्टेशन बनाकर अब सरकार ने उसे अपनी सम्पति बना ली है। अब सभ्य लोगो की एक फ़ौज भी है जो सुबह शाम वहां पैदल चलकर सेहत बनाने जाती है। हमारे लोगो की ये टिप्पणी सुनिए। जहाँ धन अथाह आ जाता है सेहत बनानी पड़ती है। जब तक ऐसा नही है सेहत बनी रहती है समझे !
राजनीत ने सम्बधो की बैंड बजाई तो है पर कटुता नही ला पाई है , बस आपके होठों पर मुस्कान होनी चाहिए। जहर चेहरा बनाये तो आपको भी वही मिलेगा। भात भैवी ( शादी विवाह या किसी के मरने के अवसर पर एक दुसरे को खाने का न्यौता ) को राजनीती की दुश्मनी हिला नही पायी है। किसी भी पार्टी के हो , पास के होटल में अगर जलेबी फ्री है तो हरेक कोई खायेगा। कोई समर्थक भी उसे खाने से नही रोक सकता। एक बात बताये। यहाँ नेता मतलब भोज होना। उनके काम भी भोज के नम्बरों से गिने जाते है। मसलन अमुक नेता ने क्या किया है आजतक। भाई इतनी बार जनता जनार्दन को खिलाया है। हाँ किसी पार्टी के कट्टर समर्थक के सामने उसके नेता को गाली नही दीजिये। अगर दे दिए तो तैयार रहिये और क्या !
गाँव में नये लड़के जवान हुए है और फंटूस बाजी बहुत करते है। माँ बापूजी ने कुछ पैसा कमाया अब इन्हें कमाने की जरूरत कम महसूस हो रही है। पहले जवानी तो जी लें, कमाना तो जिन्दगी भर हैये है। तो पेले पड़े है। दस साल पहले ऐसे 'बिगड़े ' लौंडो के लिए यहाँ कोई स्कोप नही था अब है। इन्होने गाँव के वातावरण में भी शहरी चीजो का सस्टेनेबल मिश्रण कर दिया है। और उससे जो निकला है उसी में जी भर जी रहे है। गर्लफ्रेंड, ब्रेकअप अब इनके शब्दों में मिल गया है। फटी जीन्स के लिए घर में मार होता है। कबीर सिंह का चश्मा सलमान की गयी पीढ़ी पर भारी पर रहा है। इन्हें देख कुछ लोग गलियाते है कुछ गाँव के संस्कार भूल जाने का आरोप लगाते है पर इन्हें पब जी में किल से फुर्सत नही मिल रही है। हाँ पब जी जैसे चीजो में ये एक दम नही भूल जाते है। दोस्त यार की जो भी बाजी है चलती है। हरेक चीज दोस्तों में ब्राडकास्टेड है। पब जी के लाइव एक्शन से से लेकर गर्लफ्रेंड की ऑडियो कॉल तक !
गाँव का साख सख्खड ( ऐसा कोई शब्द हिंदी डिक्शनरी में नही है पर आज इसे इज्जत प्रतिष्ठा कह ले ) गया नही है। चुनी हुई पंचायत कुछ नही करती। घर में लड़ाई हो या गोतिया से दुश्मनी में पुलिस का सहारा जरुर लिया जाता है पर दोनों पक्षों से चुने पंच का फैसला आज भी अंतिम है। सुप्रीम कोर्ट दरवाजे तक !
शादी ब्याह इस कोरोना काल में कुछ कम नही हुआ है। बल्कि पिछले लॉक डाउन के कारण जो शादियाँ रह गया थी इस बार निपट गयी ! शादी में ५० लोगो के जुटने का सरकारी निर्देश ? मजाक चल रहा है या शादी हो रही है ? किसको बाराती जाने से रोकोगे ? या किसको आने से रोकोगे ? बवाल न हो जायेगा ? शादी में अगर धूम धड़ाका ,भीड़, डीजे ( इधर के एक मशहुर गाने का लिरिक्स - नचनियां लन्दन से लायेंगे रात भर डीजे बजाएंगे !), दारु, डांस ( नागिन डांस भी सभ्य के वर्ग में आएगा इधर के डांस से ) और क्लाइमेक्स में मार पीट न हो, तो शादी को याद कौन रखेगा भाई ? हाँ आप कोरोना अलर्ट है मत जाइये। कोई रुसवाई नही। न कोई खिंचा तानी। कुछ मायनो में आग और जिन्दगी की ये आहुति स्वैच्छिक है !
गाँव में आज भी दिल धडकता है मोबाइल के 'वाइब्रेशन' से ज्यादा ! १० साल पहले का मौसम जीना है तो आ जाइये। टीका लगवाके मास्क पहनकर, कुछ लोगो के लिए मुर्ख और कुछ लोगो के लिए सावधान, और दुरी बनाकर मैंने इन्टरनेट से गाँव तक सफर किया। कुछ जिया मगर सावधानी से, कुछ पूर्णत: अवलोकन से महसूस किया है। कोरोना जाए तो गाँव से जी भर के गले मिला जाए।