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Anuradha Negi

Horror

4  

Anuradha Negi

Horror

उस दिन

उस दिन

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हर बार की तरह इस साल भी हम लोग खेतों में काम करने गए थे,पूरा दिन भर धूप में काम करते वहीं खाना पीना होता और सायं को लौटना होता था, मैं और मेरी दीदी साथ में काम करके घर लौट रहे थे ,अक्टूबर के महीने में करीब ५ बजे हमारे यहां दिन ढल जाता है और अंधेरा दिन ढलते ही जल्दी से चारों ओर अपनी चादर बिछा लेता है। घर में जानवर बंधे होने के कारण लौटते समय घास लेकर आनी होती थी,मेरी दीदी ने खुद के लिए कुछ ज्यादा और मेरे लिए थोड़ा घास और बाकी दिन भर का खाने का सामान ले जाने की जो वस्तुएं जैसे पानी की बोतलें,खाने का डिब्बा,चाय का थर्मास इत्यादि सब मेरे लिए ले जाने को रखा,रास्ता जंगल का था और पूरे रास्ते में कंटीली झाड़ियां जो कपड़ों को हमेशा अपनी ओर खींचने लगती थी। दीदी हमेशा की तरह मुझसे आगे चल रही थी ताकि जो जंगली जानवर या भरे रास्ते में कोई कीड़ा सांप वगैरह आए तो वो पहले उससे निपट कर मुझे बचा ले लेकिन मुझे पता था कि मुझे पीछे चलने में भींडर रहता था कि कहीं बाघ,तेंदुआ आकर मुझे घसीट न ले जाए,खैर ऐसा डर हर बार लगा रहता और हम हर साल सही सलामत सारा काम खत्म कर लेते।


 अपने खेतों से दूर आगे ऊंचाई से नीचे खाई की तरफ जहां वापस घर आने का रास्ता होता था,हम पहुंचे जहां पानी के बहुत से छोटे छोटे तालाब थे जो चारों ओर से बड़े पत्थरों और झाड़ियों से ढके रहते थे,अब तालाब के बीच का रास्ता पार करना बचा ही था कि मुझे किसी के पानी में चलने की आवाज सुनाई दी मैंने आगे की तरफ चलते चलते चारों ओर जहां तक दिख सकता था वहां तक नजरें घुमाई मुझे कुछ साफ सा नहीं दिखा,एक तो गहरी खाई और उपर से झाड़ियों के बीच ढलता अंधेरा , मैं चुपचाप दीदी के पीछे चलती रही बिना अपने उस पानी में आ रही आवाज के डर के ,और मुझे अंदाजा नहीं था कि वही आवाज दीदी को भी आ रही थी लेकिन वह चुप रही कि अगर उसने मुझे बताया तो मैं कहीं डर जा जाऊं हम दोनों ने वो आवाज सुनी थी लेकिन एक दूसरे को बताने से दर रहे थे।


अपने मन में डर को समाते कि कुछ अलग हुआ हमारे आगे आगे किसी और इंसान के चलने के पानी के गीले निशान छूटने लगे अब दीदी घबराने लगी थी मैंने पीछे से देख लिया था कि आगे ऐसा कुछ भयानक चल रहा है क्योंकि जब दीदी अधिक घबराहट के मारे कदम डगमगा कर रखती तो मुझे आगे रास्ता और वो गीले निशान दिख जाते थे, मैं दीदी को कारण पूछती तो वो कहती कि आज धूप ज्यादा थी खेत में तो उन्हें थकान होने लगी है,ऐसी बातें करते हम जंगल पार कर ही रहे थे कि दीदी अचानक गिर पड़ी और मेरी चीख साथ में निकली,अब मुझे समझ ये नहीं आ रहा था कि मुझे करना क्या है मैंने जल्दी से अपने सर का बोझा नीचे फैंका और जल्दी जल्दी पानी की बोतल थैले से निकालकर दीदी के चेहरे में पानी फेंका,लेकिन ये क्या दीदी खिलखिला कर हंस रही थी, मैं डर के मारे इतनी घबराई थी कि समझ नहीं आ रहा था रोना है या जाना है क्या करना है। मेरा दिमाग बिलकुल काम करना बंद कर दिया था।


 मैं चारों ओर आवाज लगाकर मदद के लिए चिल्लाई लेकिन कोई नजर ही नहीं आ रहा था सबके घर जाने का समय हो चुका था, मैं फिर से दीदी के पास बैठी और उठने के लिए गिड़गिड़ाने लगी करीब ५ मिनट ऐसी रोते बोलते मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास भी कोई बैठा हुआ है, मैं दीदी की तरफ झुकी थी और मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं सर उठाकर उस इंसान को देखूं कि कौन मेरे पास बैठा है। अब क्या करना था कुछ पता नहीं था क्षण बीत रहे थे अंधेरा पूरे आगोश में था घर वालों की चिंता थी कि हमारी राह देख रहे होंगे यही सोचने में फिर मुझे लगा दीदी को कोई घसीट रहा है और मैंने कस कर दीदी की गले में हाथों से झूला सा बांध दिया और उसे देखने की हिम्मत की, मैंने नजर उठाई और देखा कि मेरी ओर पीठ किए हुवे विपरीत दिशा में दीदी का हाथ खींचे कोई औरत या कुछ और जो खड़े हिस्से में आधी जली हुई सी,और आधी चिथड़े हुवे कपड़ों में लिपटी थी,मुझे एहसास हुआ कि मैं पूरी तरह भयभीत हो चुकी हूं और जरा भी हिम्मत नहीं है कि मैं उसे कहूं मेरी दीदी को छोड़ हमें जाने दे।


लेकिन फिर भी मैंने डरते डरते उसकी पीठ की तरफ हाथ बढ़ाया ताकि मेरे स्पर्श से वो रुके और मैं उससे बात करूं, मैंने आंखें बंद कर ली और झटके से उसके कंधे पर हाथ रख दिया और मुझे बंद आंखों में ही आभास हुआ कि वो रुक चुकी थी। मैंने शायद मेरे डर से लाल मुंह और बंद आंखों को खोला और मेरी नजर सबसे पहले उसकी कमर पर गई जो कपड़े की एक डोरी से कसकर बंधी थी फिर मैंने धीरे धीरे उसके अधजले शरीर को देखते हुवे उसके चेहरे तक नजर पहुंचाई और मेरे चेहरे की रौनक गई , वो बहुत अजीब डरावनी शक्ल थी लेकिन कौन थी और हमें ही इस तरह रात होते उसने रोका, मैं हकलाते हुवे उससे पूछती इस बीच मुझे गांव वालों की आवाज और शोर सुनाई दिया जो शायद मेरे घरवालों के साथ हमें ढूंढने आ चुके थे लेकिन मैंने उनकी आवाज का जवाब नहीं दिया मुझे डर था कि मेरे उधर बात करने और मदद मांगने से यहां कुछ अनहोनी न हो।


फिर मैंने हिम्मत से उससे पूछा तुम कौन हो,अगर हमने उन्हें परेशान किया है या कुछ गलती हुई है तो वो हमें माफ कर दे और जाने दे,उसने मेरी ओर एकटक देखा उसका ऐसे देखना मुझे और डरा रहा था मानो वो आंखों से ही मेरी मौत बुला ले,उसने अजीब फटी हिंदी आवाज में बोला मैं सालों से इन तालाबों में अपनी देह को ठंडा कर रही हूं जो उसके ससुराल वालों ने जिंदा जला दी और गांव से इतनी दूर एक चादर में बांधकर फेंक दी थी,मैंने आगे पूछा कि वो हमसे क्या चाहती हैं, उसने थोड़ा मुस्कुरा दिया और कहा कि मैं उसे जिंदगी तो नहीं दे पाऊंगी लेकिन मैं उसके पूरे शरीर को दुबारा जला दूं और वो इस शरीर से मुक्ति पा ले,कभी आत्माओं में विश्वास नहीं करने वाली मैंने उस दिन पहली बार ये महसूस किया कि आत्माएं डराने नहीं अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने आती हैं जो उनके जिंदा रहते कोई मनुष्य सुन नहीं पाता है। मैं सोचती जा रही थी कि वह फिर बोल उठी


" बोल मुझे मुक्ति दिलाएगी,मुझे जलाएगी"??


मैंने सर हिलाकर है में जवाब दिया जिससे वह थोड़ा शांति महसूस करती दिखी और उसकी आंखों में आंसू थे। मैंने उससे पूछा कि क्या वह मुझे अपनी ऐसी दशा होने के बारे में बता सकती है ?


उसने जवाब दिया बच्चा बच्चा जानता है मेरे साथ अन्याय हुआ लेकिन सब अनजान हैं किसी को बताने से।

मैंने आगे कुछ नहीं कहा और वो उसी दिशा में वापस चली गई जहां से हम आए थे मैं खड़ी की खड़ी ही थी

और मेरे पीछे मेरी दीदी मेरा पूरा गांव मुझे न जाने कब से आवाज लगा रहा था कि मैं किससे तब से बातें किए जा रही हूं रात का समय हो गया है घर को चल।

मैं घर आ गई लेकिन मेरा मन अभी भी इस औरत की दशा पर और अन्याय पर था,फिर मैंने निर्णय किया कि मैं पता लगाकर रहूंगी इस बारे में और मैंने काम का महीना इस बात को दबाते हुवे निकाला और नवंबर दीपावली के बाद अपने गांव की कुछ बुजुर्ग दादी अम्मा से पूछना चाहा और २ से ३ दिन रोज एक ही सवाल से परेशान होने के बाद मुझे एक दादी ने उसके बारे में बताया कि कैसे उसके सास ससुर ने उसके साथ अन्याय किया ,उसका पति फौज में बहुत दूर सेना में तैनात था और यहां सास ससुर उसकी दूसरी शादी करवाने के लिए इस पर अत्याचार करते थे और एक दिन जलाकर उन्होंने उसे फेंक दिया था ,तेज बारिश के चलते वह पूरी जल नहीं पाई थी,और कई बार उन्होंने उसे उस जंगल और तालाबों में कपड़े धोते नहाते हंसते देखा सुना है, मैंने उसके परिवार से मिलकर उनसे प्रार्थना की कि वह अपनी गलतियों के लिए माफी मांग अपनी बहु का अंतिम संस्कार फिर से पूरे रीतियों के साथ करके उसका क्रियाक्रम करें और उसे इस दुनिया में भटकने से मुक्ति दें तभी उन्हें और उनकी बहू को शांति मिल सकेगी और वह अपना पुनर्जन्म किसी रूप में कहीं ले सकेगी।

यह घटना काल्पनिक नहीं हैं मेरी जिंदगी का एक सत्य है और यह बात तब की है जब मैं लेखक नहीं थी।

         



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