Anuradha Negi

Inspirational

4.9  

Anuradha Negi

Inspirational

जीवनी - संजय डॉर्बी

जीवनी - संजय डॉर्बी

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एक सरल चरित्र, शीतल हृदय, एक शांत स्वभाव और स्वच्छ दर्पण सा बनी एक प्रेरणादायक कहानी,

(संघर्ष से लेकर सफलता की सीढ़ियां)

(याद रखेगी जन्म जन्मांतर तक पीढ़ियां।

जीवनी किसी की जिंदगी का दर्पण हो सकती हैं ; एक ऐसा दर्पण जो उसे केवल अच्छाइयां देखने को प्रेरित करती हैं। हर वो इंसान मेहनत करने में विश्वास रखता है जिसे किसी का मार्गदर्शन मिला हो और वह प्रेरणा स्रोत उस इंसान केे अपने चयन का हो। आवश्यक नहीं है कि मार्गदर्शक या प्रेरणादायक एक महान कलाकार या प्रसिद्धियों से परिपूर्ण हो, आईना दीवार पर मोतियों से सजा हुआ टंगा हो या आपके सौंदर्य प्रसाधन के भंडार में छोटा सा टुकड़ा हो चेहरा वही दर्शाता है जो सत्यता हो। हर वो व्यक्ति और उसका व्यक्तित्व् एक वरदान होता है जो आपके जीवन को परिवर्तित कर देता है और आप आजीवन उसी परिवर्तन के साथ अपना जीवन जीते हैंं। यहांं जीवनी लिखने का उद्देश्यय प्रतिस्पर्धा करना या निर्णायक सूची में नाम दर्ज करवाने से नहीं है। यहां जीवनी को आप सब तक पहुंचाने का अभिप्राय आप सभी को एक सरल सहज और अमूल्य चरित्र से साक्षात्कार करवाने से है। जो वर्तमान समय में एक गुरु एक शिक्षक के रूप में कई जिंदगियोंं में दर्पण बने हुवे हैं, और जिन्हें आज का समय बिलकुल भी सही तरीकेे सेे प्रदर्शित नहीं कर सकता है। एक ऐसा चरित्र जो हर कोई समझ नही सकता और जो कुछ समझ भी पाए तो वो बयां नहींं कर सकते हैं। गुरु का जीवन सार तो मैं आपको बताऊंंगी आगे किंतु सत्य ये है कि इतना सामर्थ्य मुझमें भी नहीं है कि मैं अपने आदर्श गुरु को शब्दों में समेेेटकर रख सकूं। मेरा अनुुभव कहता है कि कोई ऐसा शब्द या कोई कला यहां विद्यमान नहीं है जो संपूर्ण रूप से कोई व्यक्तित्व को जग में दर्शा सकेे। तो आइए आरंभ करते हैैं एक महान चरित्र को गुरुजी की जीवनी के रूप में । मैं जिस व्यक्तित्व के बारे में आपको बताने जा रही हूं, वह मेरे गुरुुजी हैैं  जिन्होंने मुझे विद्यालयी शिक्षा सिखाई ; और मैंने उस विद्यालय की शिक्षा के साथ साथ अपने जीवन की शिक्षा को भी उनसे ग्रहण किया है। 

आइए नमन करते हैं अपने गुरु को हर वो इंसान जो इस कहानी को पढ़ेंगे मुझे विश्वास है, वे इस कहानी के माध्यम से अपने समक्ष अपने उन गुरु को ही पाएंगे जिन्हें आप अपना मार्गदर्शक मानते आए हैं।

गुरुर ब्रह्मा, गुरुर विष्णु, गुरु देवो महेश्वर:

गुरुर साक्षात परब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नमः।

जीवन परिचय..   गुरुजी का जन्म सन १९७४ मेंं भाबर(रामनगर) के तराई क्षेत्र में स्थित गांव लालढांक में शीत ऋतु केे २७ दिसंबर (पौष माह) में हुआ, गुरुजी की माता श्रीमती खष्टी देवीजी और पिता श्री ख्यालीदत्त जी हैं गुरुजी केे एक भाई दीपचंद्र डॉर्बी जी हैं जो प्राइवेट नौकरी करते हैं और एक बहन श्रीमती अनीता गरजौला जी हैं, जो गृहणी हैैं। गुरुजी की माता अब हम लोगों के बीच नहीं रही खराब स्वास्थ्य के चलते कुछ वर्ष पूर्व ही उनका निधन हो गया है आज वे यदि होती तो मेरेेेे लिए उत्सुकता भरा पल होता जब मैं एक पुत्र के बारे में एक मां से उसकी ममता और जीवन शिक्षा के बारे मेंं एक और अध्याय पढ़ती। गुरु जी आप अपने बचपन से ही गरीबी और साधनों की असीमितता को देखते आए हैं।आपका अपने मूल निवास को छोड़ भाबर में जन्म होने का कारण यह रहा कि उस समय लोग पहाड़ कुमाऊं क्षेत्र के सभी किसान नवंबर माह तक अपना सारा कृषि कार्य को समाप्त कर भाबर चले जाते थेे,जहां वे अपने पालतू पशुओं को पैदल मार्ग तय करके साथ में कुछ रास्ते भर के खाने पीने का जरूरी सामान लेकर चरवाने ले जाते थे ; तथा महीनों भर वहीं रहते थे, सर्दियां खत्म होते ही किसान अपने गांव को पुनः पैदल मार्ग से वापस आ जाते थे। किसी का वहां अपना निवास होता था तो कोई वहीं खेेेेतों में सुंदर झोपड़ी का घर बना कर रहते थे, नवंबर माह में भाबर में धान की फसल कटने को तैयार होती थी, लहराती धान की फसल के बीच वो सुंदर पुआल और बांस केे बने घरौंदे बेहद आकर्षक लगते थे, गुरुजी का मूल निवास चंद्रकोट गांव जो बेेतालघाट क्षेत्र में जिला नैनीताल आता है ; आज की नजदीकी पहचान से यदि जाना जाय तो भतरोजखान से आगे रानीखेत रोड में कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित रिची एक जगह है। जहां से आपके मूल निवास स्थान को जाया जाता है। गुरुजी का बचपन सामान्य बीता कृषि तथा घर केे कामकाज के साथ साथ आपकी देखभाल हुई, कोई विशेष सुविधा और परिपूर्णता आपने नहीं देेखी जो आज केे किशोरावस्था और युवाओं के लिए काल्पनिक भी शायद सहज ना हो। आपके पिताजी श्री ख्यालीदत्त जी रा. इ. का.बहेड़ी (बरेली) में चतुर्थ श्रेणी पर कार्यरत थेे। आपकी माताजी घर का संपूर्ण कार्य करती थी। इसमें घर में पाले हुवेे जानवरों को देखने उनके रहने खाने केेे चारे सेे लेकर रसोई घर का सारा कार्य तथा खेतों में अनाज बुवाई, निराई, कटाई सभी कार्य सम्मिलित थेे। माताजी आपकी प्रायः अस्वस्थ रहती थी कारण था एक बार घास और पुआल का बड़ा ढेर जैसे आजकल तंबू बनाकर भंडार में घास सुरक्षित रखी जाती है, इसी तरह आपकी माताजी एक बार घास का भंडार करते समय ऊंचाई से गिर गई थीं और और उनकी पसलियों में चोट आई थीं। लेकिन उस समय ऐसा था जब व्यक्ति को अपनेेेेेेेेेे काम से मतलब होता था और वह इस तरह की इस तरह छोटी-छोटी परेशानियों चोटों और बीमारियों को नजर अंदाज कर दिया करता था, यही कारण रहा बढ़ती उम्र के साथ आपकी माताजी अस्वस्थ तो होती गई और उन्हेंं फेफड़ों की परेशानी होने लगी, दूसरी तरफ सरकारी वेेतन कम और आवश्यकताएं असीमित होने केे कारण कुछ ही साल में आपके पिताजी को यह नौकरी त्यागनी पड़ी और वहां से अर्जित जो थोड़ा धन था उससेे आपके पिताजी ने भतरोजखान में एक छोटी सी चाय की दुकान खोल ली जहांं पर आज भिक्यासैन को आने वाले वाहनों का रुकनेे का स्थान है। वहीं से बाएं तरफ को आपके पिताजी की दुकान हुुआ करती थी।

बचपन और प्राथमिक शिक्षा :

 प्राथमिक शिक्षा आपकी भतरोजखान में संपन्न हुई और आप अपने परिवार के साथ भतरोजखान में रहे। यहां आपके पिताजी दुकान चलाते थे, परिवार की आजीविका चलाने के लिए एकमात्र दुकान ही थी जिससे आपकी पढ़ाई और देखरेख निर्भर थी, यहां आप चौथी कक्षा तक रहे और आर्थिक स्थिति के कमजोर रहते और धन के अभाव में आपके पिताजी ने खेती और घर के कामकाज भी सीखे, आप परिवार से इतने ज्यादा संपन्न नहीं थे कि आपको स्वतंत्र रूप से पढ़ाई के लिए छोड़ दिया जाए ; और बाकी काम काज से दूर रखा जाए। वो सारे कार्य जो बाल्यकाल के लिए बने ही ना हों।

माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा

प्राथमिक शिक्षा पूर्ण होने केबाद आप शिक्षा जारी रखने के लिए अपने नैनिहाल जिसे हमारे कुमाऊं में मकोट कहा जाता है,  गांव नूना भतरोजखान से कुछ किलोमीटर की दूर पर स्थित वहां रहे सन १९८६ में आपने आठवीं कक्षा अव्वल स्थान प्राप्त कर उत्तीर्ण की और आपकी प्रतिभा को देखते और आपकी रुचि को आगे जारी रखने के लिए आपको आपके निवास विकास खंड बेतालघाट से एकीकृत छात्रवृत्ति से सम्मानित किया गया जो उस समय ५०रु./माह थी । तथा जो छात्रावास में रहने पर १००रू./माह होती,और वो पचास रु. उस समय के आज ५०० के बराबर हैं या उससे अधिक ही होंगे। और इस लगन को देखते हुवे आपको सरकारी इंटर कॉलेज अल्मोड़ा उस समय का प्रसिद्ध विद्यालय से पत्र आया कि आप अपनी आगे की पढ़ाई जिलास्तरीय कॉलेज से करें, किंतु धन के अभाव और छात्रावास में रहने के लिए आवश्यक समान न जुटा पाने के कारण से आपको यह अवसर भी त्यागना पड़ा। हुनर और जज्बे हमारे पहाड़ में आज भी कूट कूट कर भरा है पर आज भी गांव में विकास के अभाव और साधनों के अभाव में कई युवा आगे बढ़ पाने और अपने सपनों से भटक जाते हैं और घर की जिम्मेदारियां उन्हें घेर लेती हैं जिसके कारण उनके जीवन की जो काल्पनिक रूपरेखा बनी होती है पूरी तरह बदल जाती है और इंसान अपने हालातों से समझौता कर लेता है। गुरुजी और ऐसी कई परेशानियां आपको आई पर आप डगमगाए नहीं और अपना समय निरंतर पढ़ने और इसके बीच आने वाले हर समस्या का निवारण करने में लगाया। अपनी पढ़ाई को आगे रखते आपने वहीं से दसवीं की (राजकीय इंटर कॉलेज भतरोजखान ) जो सन १९८८ में पूर्ण हुई और आपने श्रेष्ठ प्राप्तांक में नामांकन हासिल किया।

कैसा क्षण होगा वो जब मेहनत का फल मिला होगा और आपके मन को एक अलग सुकून और आगे के लिए जुनून मिला होगा, वो प्रसन्नता का आभास सबसे हट कर होता है जब आपको अपनी लगन और मेहनत का मेहनताना मिलता है, कल्पना करती हूं कि मैं उस क्षण को अपनी आंखो से देख पाती जो सुनने में इतना अदभुत है उसे साक्षात देखने में क्या प्रतिक्रिया होती होगी?

इस दौरान आपके पिताजी को अपनी दुकान बंद करनी पड़ी क्योंकि मेहनत के मुताबिक उतना खर्च नहीं निकल पा रहा था और आपकी माताजी के खराब स्वास्थ्य के चलते काफी हद तक उधार हो चुका था, जिससे दुकान में लगातार इस तरह कार्य करना मुश्किल हो गया था स्थिति काफी दयनीय और खाने को लाले पड़ने लगे थे, आपके पिताजी को घर और कृषि के कामकाज की जानकारी नहीं थी लेकिन हालातों से समझौता कर उन्होंने सारे काम काज धीरे धीरे सीखे और सभी कार्यों में निपुण हो गए।माताजी आपकी अधिकतर बीमार रहती थी, कुछ सांस लेने में तकलीफ और दर्द को लेकर कभी उनकी बीमारी का निवारण नहीं जो पाया था, क्योंकि उस जमाने में घर और खेती के कामकाज में इंसान इतना व्यस्त होता था कि न तो उन्हें समय होता था चिकित्सालय तक जाने का और न ही कोई साधन था जिससे चिकत्सा करवाना सरल हो काफी यात्रा करनी पड़ती थी और पैसा का अभाव तो जैसे जीवनसाथी बनकर साथ चलता रहा। इस बीच आप साथियों के साथ घूमने टहलने भतरोंजखान के बाजार गए सड़कों पर यूं घूमते आप एक जगह समूह में खड़े थे और वहां दुकान पर बैठे कुछ लोगों ने टिप्पणी करते हुवे आपके सहपाठी में से किसी को प्रश्न किया कि हां जी कौन रहा है इस साल में हाईस्कूल का श्रेष्ठतम (टॉपर) आपके यहां?? और आपके सहपाठी एक बार में ही आपकी तरफ इशारा करके कहते हैं कि ये रहा टॉपर….

सवाल करने वाले महाजन आपको बड़े गौर से देखते हैं आपके कपड़ों का अंदाजा जो उस समय अच्छे कम और जगह जगह रफ्फू किए होते थे, उस समय वो कपड़े शर्मिंदगी भरे और गरीबी के हालात बयां करता था, लेकिन आज के समय में उसके विपरीत परिस्थिति है जो अधिक धनवान है वह रफ्फू किए कपड़े पहनता है और जो नहीं है उसे उन रफ्फू किए कपड़ों को पहनने का दिल से शौक है। महाजन शायद कुछ क्षण आप पर अध्ययन कर रहे थे और फिर बड़े ताज्जुब भरी आवाज से कहते हैं ये ??? इसने टॉप किया है???????.....

  एक संत से मैंने सत्संग में सुना था कि आज की पीढ़ी में जो बदलाव आए हैं जो बर्बादी की कगार पर खड़े हैं, जिन्हें धर्म ग्रंथ किसी भी चीज का ज्ञान नहीं है, वो समय अलग था जब इंसान सक्षम नहीं होता था अपनी गरीबी को मिटाने में और अपनी हालातों से निजात पाने में। किंतु हमारी गुजरी पीढ़ियां तन मन से निरंतर सेवा भाव और परिश्रम करती आई हैं। जिसका परिणाम इतना तो मिला है कि मनुष्य भोजन पूर्ण मात्रा में भोजन कर सके और वस्त्र से तन को ढक सके। लेकिन गुजरे समय को अनपढ़ और अंधविश्वास का नाम देकर फैशन के दौर में आज पीढियां भाग रही हैं। और ये अंधाधुंध प्रचार आधुनिक दुनिया में लोगों का सक्षम होने के बावजूद मैं प्रणाम करता हूं उन सज्जनों और देवियों को जो माता पिता धनवान होकर भी अपने बच्चों को फटे कपड़े पहनने देते हैं। और दरिद्रता को गले लगा रहे हैं। ये कथन मुझे उन संत का कहीं ना कहीं सत्य सा प्रतीत हुआ। साधन संपूर्ण हैं किंतु दुरुपयोग हो रहा है।

  वेशभूषा आपकी तन की स्थिति को अवश्य बता सकता है पर मन की स्थिति को आपका स्वभाव और आपकी बुद्धि ही बता सकती है। इसलिए किसी के चेहरे को पढ़ने से ज्यादा उसके मन को पढ़ने की जरूरत है यदि आप उसका सत्य जानना चाहते हैं।इसके बाद भतरोजखान में इंटरमीडिएट की कक्षा ना होने के कारण आपको वहां से विद्यालय बदलना पड़ा और ग्यारहवीं कक्षा से आपने राजकीय इंटर कालेज चौनलिया में दाखिला लिया, इंटरमीडिएट की पढ़ाई आपने नैनिहाल नूना गांव में रहते राजकीय इंटर कॉलेज चौनलिया से सन १९९० में  किया , इस बीच आपने घर और खेती के सारे काम काज में नैनिहाल वालों का हाथ बंटाया। आपने स्कूल जाने से पहले खेतों में हल चलाया, नूना से भतरोजखान पैदल यात्रा से दूध लेकर जाते डेयरी में दूध देकर वापस घर आते और फिर पैदल मार्ग तय करके विद्यालय जाते। और आज इसी दूरी और पैैदल पथ को देखकर आज की पीढ़ी अपनी संस्कृति अपनी धरोहर से दूर जाकर रहती है,जिसका परिणाम परिवारों में दूरियां आपसी मतभेद और रीतियों रिवाजों का लुप्त होना है। उस समय विद्यालय की जो वर्दी होती थी वह बेहद पुरानी और फटी हुई होती थी, परिवार इतने भी सक्षम नहीं होते थे कि अपने बच्चों के लिए नई वर्दी वो हर साल अगली कक्षा में प्रवेश होने पर बना सकें और जहां ये चीजें उपलब्ध होंगी वहां बच्चों ने जीवन को मनोरंजन से जिया है ,ना कोईसंघर्ष ना कोई कष्ट और न उन्हें मेहनत और सब्र का ज्ञान हो पाया होगा एक अनुभवी जीवन को वही शांतिपूर्ण ,सरलता और सहजता के साथ जी सकता है जिसने बचपन कठिनाइयों में बिताया हो, अपेक्षा से अधिक वह कार्य किया हो जो शायद उसके लिए बनाया ही न गया हो।   मैं.....हैरान हूं कि इतनी कठिन परिस्थितियों के चलतेअभाव ग्रस्त जीवन से गुरुजी आपने कैसे अपनी मंजिल को पार किया होगा????? कैसे विचार और लगन होगी आपकी जो आप कभी  डगमगाए नहीं और यदि ऐसा हुआ होगा तो आप कैसे इस परिस्थिति से बाहर आए होंगेे ?? जो चीजें आज के युवा कल्पना करने में भी घर को सर पर उठा लें और घरवालों को भला बुरा कहे आपने उन सारी  स्थितियों को बहुत ही सरल और सामान्य तरीके से अपनाया और संघर्ष किया और सब कुछ ऐसे सहन किया कि आपने मन में बैठा लिया कि इसे इसी तरह से जीना है, आपकी मेहनत और सरल व्यवहार आज उदाहरण बना हुआ है और मैं शत प्रतिशत ये कह सकती हूं की जो भी युवा, बच्चा आपके बचपन और संघर्ष को सुनता होगा वह कुछ क्षण के लिए स्तब्ध होता होगा और कहीं न कहीं ये फैसला लेता होगा कि हम  इतने सक्षम होकर भी यहां हैं हम भी कुछ कर सकते हैं हालांकि उसमें से कुछ फैसले ही रह जाते होंगे और कुछ अपनी मंजिल की राह पर चलना शुरू कर देते  होंगे। आज के समय मेंं आप जैसा व्यक्तित्व रखने वाले व्यक्ति का मिलना सरलता तो दूर होगी अगर इंसान कठिनाई से भी ढूंढने लगे तो भी संभव नहीं है। और यही आपके जीवन का परम सत्य है ,पढ़ने में आपकी रुचि इतनी ज्यादा थी की आप किसी सवाल जो आपको परेशान करता हो आप उसका सही उत्तर ढूंढने के लिए हरसंभव वो प्रयास करते थे जो आपसे संभव हो पाता था। 

   आपके नैनिहाल में जाने पर पता चला कि बच्चा बच्चा के मुख पर आपका नाम और आदर है हर माता पिता अपने बच्चों को जीवन में आगे बढ़ने के लिए  आपके संघर्ष को आईना बनाकर दिखाते हैं और आपका नैनिहाल आज भी आपके नाम से ही जाना जाता है। उस समय आपने गांव के साथियों के साथ जंगल जाना वहां से घास लकड़ियां लाना जैसा काम भी किया बिना किसी संकोच या शर्म के, और आपको ज्ञात करवा दें कि हमारा उत्तराखंड जितना सुंदर सुनने और दिखने में है वैसा ही साधनों के अभाव से ग्रस्त भी है ये बात हर कोई नहीं जानता कि कष्ट व मेहनत का दूसरा नाम हमारा पहाड़ है जहां कोसों दूर तक सड़क का नाम नहीं होता है जहां लोग प्रातः जल्दी जल्दी बाजार जाने तथा वहां से समान लाने का कार्य जो किसी यात्रा से कम नहीं होता था के लिए निकल जाते हैं और कठिन परिश्रम के बाद बाजार पहुंचते थे और कुछ समान धन से तो कुछ समान घरेलू सामान के साथ विनिमय करके लाते थे,लौटने तक शाम हो जाया करती थी।

 आप विद्यालय की छुट्टियों में अपने गांव जाते और इस बीच घरेलू सब्जियों को सड़क पर रखने का कार्य करते जिससे कुछ धन अर्जित होता और आप धन न लेकर आवश्यक समाचार पत्र और पत्रिका क्रेताओं से विनिमय करते थे, आप अपनी जरूरत की चीजें लेते थे। गुरुजी आपका इतना परिश्रम को जानकर मैं क्षण भर के लिए रुकना चाहती हूं और इतनी गहरी सोच में डूब जाती हूं कि हकीकत कितनी भिन्न होती है वर्तमान स्थितियों से हम जैसा देखते हैं उसका वैसा दिखना सपन्नता से हो ऐसा जरूरी नहीं है, इसलिए किसी की कामयाबी और प्रसिद्धि को पल भर में आंकना और उसके सफल होने का निर्णय करना गलत होगा। उस समय विद्यालय भी मुश्किल से मिल पाते थे जहां इंटर किया जाता हो और अगर हो भी तो इतना दूर होता कि हर किसी के लिए वहां रोज आना जाना संभव नहीं होता तथा उसके बाद अगर कोई वहां पढ़ने जाता था तो जरूरी नहीं होता था कि आपको आप ही के अनुकूल वातावरण , साथी, सहपाठी मिलें, और ऐसे गुरु मिलें जो अपना सम्पूर्ण समय विद्यार्थियों को विद्या दिलाने और ज्ञान अर्जित करवाने में समर्पित कर दें, उस समय में मुश्किल से कोई सरकारी शिक्षक बनने तक का सफर तय कर पाता और जो सफर पूरा कर पाते उनमें अपनी उपलब्धि और सफलता के अनुसार कुछ अंश अहम का भाव जाग जाता था और अधिकतर उनका मानना होता उन्होंने मेहनत पहले कर ली है अब उनका समय आरामदायक जीवन व्यतीत करना है जिसका खर्चा सरकार उन्हें वेतन के तौर पर भेज रही है। इस बीच भी आपने अपनी रुचि जो पढ़ाई के लिए थी उसके लिए कई प्रयत्न किए जहां एक जोड़ी वर्दी बनाना या स्कूल की फीस देने के लिए पैसा जुटा पाना मुश्किल होता था वहां किसी अन्य शिक्षक या बड़े से निजी तौर पर पढ़ाने के लिए कहना या मनाना बहुत मुश्किल कार्य था। लेकिन कहा जाता है ना जहां चाह होती है वहां राह भी बनी होती है। और आपको आप ही के नैनीहाल में आपके निजी गुरु के रूप में बहुत प्रतिभाशाली गुरु मिले जिन्होंने आपकी रूचि और आपकी प्रतिभा को एक नया आयाम देने के लिए संभावित प्रयास किए। आगे वर्णन होगा उन गुरु के बारे में जिनसे मिलने पर मैं खुद उनकी प्रतिभा देखकर सरस्वती मां और भाग्य के लेख लिखने वाले निर्माता को सवालों से भरी निगाहों से देखने लगी हूं।

आपके कहे अनुसार आपके नैनिहाल को मेरी यात्रा आगे जारी रहेगी उसका वृतांत आगे कहानी में सुनाऊंगी।

स्नातक और स्नातकोत्तर की यात्रा...

 इंटर के बाद आप स्नातक (बीएससी) करने रामनगर गए ,जहां आप अपने मामाजी के घर हिम्मतपुर में रहे और पूरी तरह से अपनी पढ़ाई में जुट गए , कभी कभी बीच मेंं लालढाक अपने चाचाजी के घर आपका आना जाना होता था। स्नातक की पढ़ाई रहने खाने इन सब का व्यय आपके मामाजी और चाचाजी श्री केवलानंद जी ने उठाया और साथ ही आपको आगे बढ़ने के लिए संपूर्ण सहयोग और प्रेरित किया। और आपने १९९३ में प्यारेलाल नंदकिशोर गलबलिए राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रामनगर से स्नातक पूरा किया और फिर स्नातकोत्तर की पढाई के लिए आप वहांं से हल्द्वानी चले गए जहां आपने एम.एस.सी की , एमएससी जो उस समय अपने आप एक उच्च शिक्षा की वरीयता रखती थी, आपकेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे नैनिहाल नूना गांव, लालढांक तथा आपके स्नातक तक के सभी सहपाठियों में से आप पहले छात्र थे जिन्होंने स्नातकोत्तर एम.एससी गणित विषय से किया था। और हर किसी के लिए इसे करना संभव सा नहीं होता था। हल्द्वानी में आपके किसी पहचान के चाचाजी श्री आनंद बल्लभ जी ने आपको किराए पर कमरा दिलाया जो आपके जीवन में प्रथम बार बाहर रहना था वो भी अन्यत्र किराए के घर पर, आपने बताया कि किस तरह पहली सुबह ही आपको मकान मालकिन का व्यवहार में रूखापन दिखा जब आप पहली बार घर से अलग अपने उस अकेले कमरे में पूजा कर रहे थे और उसी बीच उन्होंने द्वार खटखटाया और ये कहा कि उजाला हो गया है द्वार खिड़कियां खोल दो, बिजली बुझा दो, इतनी देर तक बिजली जलाए हो ???इतना कहकर उनके जानेे के बाद कुछ आप भावुक हुवे और रो पड़े थे ऐसा आपका बाहर न देखने और उसकी आदत न होने के कारण भी था, और घर की याद भी तब जरूर दस्तक दी होगी कि भले ही घर कैसा ही हो लेकिन हम पूरे घर पर राज करके अपना कार्य कर सकते हैं जो अधिकार बाहर जानेे पर छोटी सी जगह वो भी चारदीवारी में बंद में आकर सिमट गया । फिर आपने चाचाजी को ये बात बताई और प्रण बना लिया कि आप वहां से अन्यत्र कहीं दूसरा कमरा लेंगे, हालांकि दिन बीतते मकान मालकिन का व्यवहार और उनके हर चीज में बदलाव नजर आया क्योंकि उनका एक बेटा आपके साथ कमरे पर आने जाने लगा था आपके साथ समय बिताने लगा था, और इस बीच वे कभी कभी आपके लिए खाने की चीजें और कभी सब्जी इत्यादि भेज दिया करती थी। लेकिन आपने महीने भर के बाद वहां से जाने का निर्णय लिया और चाचाजी से इस बारे में बात करने के लिए कहा, तो मकान मालकिन आती हैं और आपसे पूछती हैं कि क्या गलती उनसे हुई है जो आप यहां से जाना चाहते हैं, आपको कोई परेशानी हो रही है तो आप हमें बताइए हम हल करेंगे किंतु आप यहीं रहिए लेकिन आप मन बना चुके थे इसलिए आपने कई कारण उन्हें दिए, जैसे शौचालय साझे वाला, वहां का माहोल शोरगुल वाला, आपके मित्र लोगों को वहां पसंद नहीं आना इत्यादि और आखिरकार आप वहां से चले गए। मोती राम बाबू राम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी में दाखिला लिया। यहां आप किराए के दूसरे कमरे पर अपने कुछ सहपाठियों के साथ रहते थे जहां ४००रुपए/ प्रति माह किराया था आप और आपके सहपाठी बांटकर किराया चुकाते थे।लेकिन कुछ समय बाद आपके साथी कमरा छोड़ चुके थे और आप वहां अकेले रहा करते थे और कमरे का भाड़ा जो उस समय बहुत बड़ी कीमत थी।लेकिन आपके स्वभाव और मेहनत के चलते मकान मालिक आपसे किराया नहीं वसूलते थे और कभी जबरन आप लेने को कहते थे आधी रकम ही लेते थे। आपने बताया कि किस तरह एक बार परीक्षा के दिनों आपने दोपहर के समय आपने रात का बचा हुआ खाना खाकर ही अपनी परीक्षा की तैयारी में जुट गए थे, किंतु आपकी मकान मालकिन थीं जो उन्होंने ध्यान दिया था कि आपने उस दिन खाना नहीं बनाया हुआ था, हुआ यूं था कि आपने कमरे खाना बनाने के लिए स्टोव चूल्हा रखा हुआ था जो मिट्टी के तेल से जलाया जाता है और जलने पर उसकी आग आवाज करती है अर्थात इतना अनुमान लगाया जा सकता है कि स्टोव ही जल रहा है, और आपका कमरा मकान मालकिन के कमरे से लगा हुआ था और आपके स्टोव जलने की आवाज आसानी से वो सुन सकते थे। उस दिन जब आंटीजी ने गौर किया किया कि आपने खाना नहीं बनाया है तो उन्होंने अपने पुत्र कमल जी को पता करने ले लिए भेजा कि आप कमरे में हैं या नहीं और खाना क्यों नहीं बनाया है, कमल जी आपके कमरे पर आते हैं तो उनके पीछे जाने पर आपने कमल जी को अपनी थाली जो उस समय आपने खाने के बाद छोड़ी हुई थी वो दिखाई और उन्हें भरोसा दिलाया कि आप खाना खा चुके हैं। कमल जी वापस गए और अपनी माताजी को बताया तो आंटीजी में अनुमान लगा लिया कि आपने रात का ही खाना खाया हुआ है और दुबारा अपने पुत्र को आपको खाना खाने के लिए बुलाने भेजा, और आपको खाना खिलाया जो आप आज बहुत शौक से कहते हैं कि पकोड़े वाली झोली और भात,,, झोली भात का आशय यहां (कड़ी चावल) से है बनाया था जो मैंने उस दिन उनके घर खाया। और आंटीजी ने प्यार और डांट एक साथ मिलाकर आपको समझाया कि खाना क्यों नहीं बनाया था और जब खाओगे ही नहीं तो शरीर को लगेगा नहीं जब शरीर ही नहीं रहेगा तो क्या करोगे ऐसी मेहनत की पढ़ाई का,, आज से जब तक तुम्हारी परीक्षाएं हैं तब तक तुम्हें खाना बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है और निश्चिंत होकर अपनी तैयारी करो। कमलजी का कहना है कि बहुत ही कम समय में हमारे आपसे और आपसे संबंधित हर आपके हर मित्र और रिश्तेदार से हमारी अच्छी पहचान बनी, आपके उनके यहां किराएदार के रूप में जाने के कुछ वर्ष पूर्व ही उनकी पिता की मृत्यु हुई थी और आपके जाने से उन्हें कितनी प्रसन्नता हुई थी और बहुत जल्द ही हम एक दूसरे से घुल मिल गए थे एक पारिवारिक संबंध हमारा आपके साथ रहा था। मेरी मां आपको अपने पुत्र समान प्रेम करती थीं। आप बहुत ही शांत और मेहनती इंसान थे जो केवल अपने काम से जुड़े थे, अन्य कोई से आपको कुछ मतलब नहीं हुआ करता था, आपके सभी मित्र बहुत अच्छे थे, और वे सभी भी आज अच्छे मुकाम पर हैं। कमल जी आगे कहते हैं कि उन्हें आज भी वो दिन याद आते हैं और क्षण भर के लिए खुशी होती है कि किस तरह हम लोग मिल जुलकर खाना बनाते और एक दूसरे से साझा करते थे, आपकी रामनगर में खेती होती थी और जब भी छुट्टियों में वहां जाते थे तो आप घर की खेती के चावल लेकर आते थे छोटे और स्वादिष्ट, जो पकते समय बहुत ही ललचाने वाली खुशबू देते थे, और मेरी मां कहती थी आप हमें ये कच्चे चावल दे दो आपके लिए खाना हम बना देंगे। आपके जाने के बाद भले ही हमारी मुलाकात नहीं हुई है किंतु आज भी आपके साथ बिताया हुआ समय हमें बहुत याद आता है, और जब भी फोन के द्वारा वार्ता होती है तो मैं आपसे जुड़े हर उस इंसान की खबर करता हूं जिनसे मैं आपके द्वारा मिला हुआ था। मुझे प्रतीक्षा है उस क्षण की जब हम फिर मिलेंगे, और नई नई बातों के साथ पुरानी यादों को लेकर एक दिलचस्प भेंट हमारी होगी। 

अब आगे.....

 बिना किसी अन्य सहायता के आपने मेहनत की और आपने अपना प्रथम वर्ष पूर्ण किया एक अच्छी अंकतालिका के साथ और यहां पर सहपाठियों में कुछ सीमा तक चयन हो गया, यहां निर्धारित कर लिया गया कौन कितना प्रतिभाशाली है कौन कितनी तरक्की आगे करेगा या कौन अधिक मेहनती है। और इनमें से एक छात्र रहे श्री अमित तिवारी जी जिनका अंकपत्र दर्शाता था कि वे भी कितने मेहनती प्रतिभावान हैं और शायद वे आपके अंकों से आपकी प्रतिभा को जांच रहे थे और उन्होंने आपसे आपका परिचय पूछा और खुद के बारे में भी बताया, वार्तालाप से आपको ज्ञात हुआ कि वे मध्यम वर्गीय परिवार से जाने जाते हैंं,अमित जी के पिताजी रा. इ.का.कालाढूंगी             ( हल्द्वानी) में शिक्षक पद पर कार्यरत थे।  और अमित जी के स्नातक में विज्ञान वर्ग से उनके ८०% अंक थे जो आपके अंकों से काफी अधिक थे और आपके और अमित जी के आर्थिक स्थिति में भी बहुत अंतर था किंतु इन सब चीजों को नजरंदाज करते हुवे और सिर्फ पढ़ाई को लक्ष्य मानकर आगे बढ़ने की सोच ने आप दोनों को एक दूसरे से भलीभांति परिचित करा दिया और फिर क्या था यहां से आप दोनों के बीच बातें हुई आप दोनों ने ही एक दूसरे के अनुभव और कला को परखा , समय दिया और उस समय निर्णायक वर्ष के लिए सहपाठी बन गए। अमित जी और आपकी मित्रता समय के साथ साथ और अधिक गहरी होती गई,  आप दोनों मिलकर जटिल से जटिल प्रश्नों का उत्तर ढूंढते तब तक प्रयास करते जब तक उसका हल किसी से या खुद से मिल न जाय, आप हर उस इंसान के पास जाते जिसके पास आपको उम्मीद होती कि आपके प्रश्न की समस्या का हल उनके पास मिलेगा। आप दोनों गुजरे वर्षों के परीक्षाओं के प्रश्नपत्र हल किया करते और फिर १९९५ में आपने स्नातकोत्तर पास कर लिया। और सभी कक्षाओं में आपका स्थान अव्वल छात्रों में आता था। अमित जी बताते हैं कि एक बार ऐसा प्रश्न था, जो हमें पिछले सालों की परीक्षाओं के प्रश्नपत्र से मिला था। उसे हल करने के लिए हमने बहुत मेहनत की किंतु हमें उसका हल नहीं मिला, हमने कई लोगों जिनसे हमें उस प्रश्न के हल मिलने की उम्मीद थी उसका हल पूछा लेकिन हर कोई असमर्थ रहा। मुझे और संजय को पता नहीं क्यों ऐसा पूर्वाभास था कि वह प्रश्न इस बार की परीक्षा में आएगा। और आखिर हमने उस प्रश्न से हार मान ली थी, और वो क्षण जब परीक्षा कक्ष में बैठे और उस प्रश्न पत्र में उस प्रश्न का होना हम दोनों को ही एक विस्मय के साथ पछतावा करा रहा था। किंतु हम कुछ कर नहीं सकते थे सिवाय एक दूसरे की तरफ देखने के।

 स्नातकोत्तर के बाद आपने बी एड की पढ़ाई की जिसमें आपके सहपाठी अमित तिवारी जी भी साथ थे और इसके लिए आपका चयन महाविद्यालय अल्मोड़ा सोबन सिंह जीना में हुआ,  और तिवारी जी का महाविद्यालय पिथौरागढ़ जिले में चयन हुआ आप लोग साथ ही अपनी पढ़ाई जारी रखना और साथ ही रहना चाहते थे और उसी वर्ष चयनित हुवे छात्रों की सूची में एक अन्य छात्र कामन सामंत का नाम भी था जो रहने वाले पिथौरागढ़ के थे और उनके बीएड के महाविद्यालय का चयन अल्मोड़ा जिले में हुआ था और उन्हें भी अपनी पढ़ाई के लिए पिथौरागढ़ में महाविद्यालय चाहिए था अमितजी को अपने मूल निवास अल्मोड़ा में महाविद्यालय चाहिए था इसके लिए आपने और उन छात्र से परस्पर होने का निर्णय लिया और बात करने पर वो भी सहमत हुवे इस बात से। और १९९६ में आपने बी एड उत्तीर्ण कर लिया। आपने बताया कि किस तरह इस दौरान एक साथ रहने के लिए आपने कमरा लिया, जो काफी अंदर और शायद छोटा रहा हो और जिस कारण अमित तिवारी जी को वहां घुटन महसूस हो रही होगी और उन्होंने दो दिन तक खाना नहीं खाया था ,सिवाय चाय पीने के । फिर आपने उसी क्षेत्र में अलग और दूसरा कमरा ढूंढा जो दो दिन भ्रमण के बाद कहीं आपको नहीं मिला था और अंत में उसी कमरे के पास में ही नीचे मिला जो पसंद तो आ गया किंतु मकान मालकिन किराए पर आपको देने को राजी नहीं हुई थी, कारण यह था कि आंटीजी लड़कों को और फिर पढ़ने के लिए आने वाले रोज सहपाठियों के शोरगुल से परेशान रही होगी किंतु आपने और अमितजी ने उन्हें मनाया और विश्वास दिलाया कि वे अपने साथ किसी को भी उस कमरे में नहीं लायेंगे और कोई ऐसा कार्य नहीं करेंगे जिससे उन्हें परेशानी होगी, तो आंटीजी मान गई। और आपको कमरा दे दिया आंटीजी हमारे ही क्षेत्र चमडखान की मूल निवासी थी। चमडखान भी ग्वेल देवता मंदिर के लिए जाना जाता है, ग्वेल देवता और ये मंदिर उत्तराखंड के इतिहास से जुड़े हुवे हैं। आपने बताया कि किस तरह अमित जी ने एक बार क्रिकेट के बहाने आंटीजी से अंदर आने और टीवी देखने की अनुमति मांगी, और उस दिन आंटीजी मान गई, किंतु क्रिकेट जब भी आता आप हर बार देखने के लिए चले जाते और आपकी इस आदत से परेशान होकर फिर एक बार आंटीजी ने अंत में एक दिन कहा कि ये रहा टीवी इसे उठा और जा अपने कमरे में ही ले जा वहीं देखना,  लेकिन इतना कहने के बाद भी अमित जी ने वो मेज भी मांगा जिसके ऊपर टीवी रखा हुआ था, आंटीजी ने बोला तू ले जा इसे भी लेकिन यहां सेे जाओ। अमित जी का व्यवहार और कार्य करने का तरीका अलग ही चतुराई का होता और वे सफल भी हो जाते थे। आप लोग आंटीजी की उम्र को ध्यान में रखते उनके लिए पानी के बर्तन खुद ले जाया करते थे जिसका मान वे हमेशा रखती थी, आपने बताया कि किस तरह एक बार आप दीदी यानी उनकी बेटी को जो मायके रहने आई हुई थी और फिर बाजपुर अपने ससुराल जा रही थी, आंटीजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं था, और दीदी को छोड़ने जाना था, किंतु आंटीजी ने आपसे कहा नहीं इस बारे में और जब जाते समय आंटीजी दरवाजा बंद कर ताला लगा रही थी उन्हें देखकर साफ पता लग रहा था कि वे स्वस्थ नहीं हैं। और शायद उन्हें सफर के दौरान ज्यादा परेशानी हो सकती थी, , आपसे रहा नहीं गया और आपने आंटीजी से पूछा कि कहां जाना है दीदी को यदि आप स्वस्थ नहीं हैं तो आज हमारी छुट्टी है हम छोड़ आएं ससुराल, तो आंटीजी बोली मैं तो ऐसा चाह ही रही थी किंतु कह नहीं पाई तुमसे, इसे बाजपुर जाना है बाजपुर प्रसिद्ध शहर काशीपुर और जिला उधम सिंह नगर में आता है, फिर हमने दीदी को बाजपुर छोड़ा और अगली सुबह लौट आए, , , , , , , , , ।

 १९९६ यानी जब मेरा जन्म हुआ होगा तब गुरुजी अपनी सफलता के करीब पहुंच चुके थे। गुरुजी आपसे बातचीत में ज्ञात हुआ कि आपको संगीत का भी बहुत शौक था, किंतु पढ़़ा़ई केे चलते आपने इसके लिए प्लेटफार्म की तलाश नहीं की और अगर आपने यदि कोशिश की होती तो शत प्रतिशत मैं ये कह सकती हूं कि आप संगीत के जगत में भी आज अपनी पहचान बना चुके होते। आपने बताया कि आपके सहपाठी अमित तिवारी जी भी संगीत में माहिर खिलाड़ी हैं। आपने बताया था कि किस तरह एक बार आप घूमने केे लिए मंदिरों का भ्रमण कर रहे थे और चितई ग्वेल मंदिर जो हमारे उत्तराखंड केे अल्मोड़ा जिले का प्रसिद्ध मंदिर है हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति और हमारी धरोहर को जो बखूबी दर्शाता है, और देवों में उच्च देव हमारे ग्वेल देवता जी हैं किस तरह आपने और आपके सहपाठी मित्र अमित जी ने साथ मेंं घूम रहे अन्य दर्शनार्थी के साथ अंताक्षरी करवाई तथा चितई ग्वेल से कसार देवी मंदिर पैदल मार्ग तय किया तथा अंताक्षरी में जीत हासिल की थी। और एक वर्ष की मित्रता वाला निर्णय इस बीच काफी बदल चुका था और आपके गहरे मित्र बन चुके थे, जो अभी भी हैं। एक संगीत का शौक ही है जो गुरु और शिष्या की मिलती जुलती इच्छा है, लेकिन यहां विपरीत स्थिति है यहां कोशिश और चाहत दोनों हैं जो नहीं है वो है सहयोग जिसके बिना मेरे लिए संगीत जगत में जाना और उसे और गहराई से समझना बेहद ही मुश्किल भरा है। और मैं आजीवन इसके लिए प्रयासरत रहूंगी।संगीत का शौक आपको इस कदर था कि आपने १९९६ जाना माना दूरसंचार प्रसारण केंद्र आकाशवाणी अल्मोड़ा में प्रसारण के कार्यक्रम पर एक बार वार्ता में हिस्सा लिया आपको शीर्षक मिला था पर्यावरण संरक्षण में विज्ञान का योगदान और आपके मित्र अमितजी को शीर्षक गणित के विषय पर मिला था , आपकी वार्ता का प्रसारण पास हुआ जो आपके अनुसार बारह से तेरह मिनट तक चली थी। और आपको मेहनताना १५० डेढ़ सौ रुपए मिला। जो अपने आप में उस समय पहली कमाई की रकम थी और आपके लिए छात्र होने के नाते एक बड़ी सहयोग राशि थी। आगे भी आपको वार्ता जारी रखने और आकाशवाणी केंद्र से जुड़े रहने के लिए कहा गया किंतु पढ़ाई और लक्ष्य के साथ साथ आपके लिए यह संभव नहीं था, और आपने मना किया।

आइए आप सभी को गुरुजी के नैनिहाल नूना गांव लेकर चलते हैं।

 आपसे मिलने के उपरांत मैं कुछ दिनों तक आपके बचपन पर अध्ययन करने लगी और सोच विचार करने लगी  कि आखिर मैं किस तरह आपके व्यक्तित्व को इस जग को दिखा सकूं जो गरीबी साधनों के अभाव और संघर्ष के रहते तब भी शांत और सरल था और आज सफलता को हासिल करने के बाद भी जिसमें तनिक भर बदलाव नहीं आया है, और यही एक अपने आप में श्रेष्ठ गुण है जो लोग आप में देखते हैं। एक निस्वार्थ भाव जो आज तो मिलना बिलकुल भी संभव नहीं है। यही कथन अमित जी का भी है अर्थात एक मित्र का अपने करीबी मित्र से कहना है कि मैं कभी कभी संजय के बचपन को लेकर हैरान हो जाता हूं कि इतनी कठिनाई भरी परिस्थिति में वो डगमगाया नहीं, भटका कैसे नहीं और आज की सफलता के बाद वो अभी भी एक सादा जीवन व्यतीत करता है। परिवर्तन शब्द उसके जीवन में कभी शामिल ही नहीं हुआ।

आपके कहे अनुसार मैं काफी उत्साहित थी कि कब वह सही समय आएगा जब मैं आपके नैनिहाल वालों से मिलूंगी और बात करूंगी इस बीच मैंने कुछ लोगों से दूरभाष से संपर्क किया ताकि मुझे आपके उन गुरु का दूरभाष नंबर प्राप्त हो सके और मैं उनसे वार्तालाप करके मिलने और कुछ समय देने की मांग कर सकूं, और इसमें मुझे ज्यादा कठिनाई नहीं हुई मुझे जल्द ही आपके गुरु के सुपुत्र जी श्री दीपक करगेती जी का दूरभाष नंबर प्राप्त हुआ जो वर्तमान में राजनीति के पथ पर अग्रसर हैं और कुमाऊं के विकास के लिए निरंतर प्रयास में जुटे हैं। मैंने हिम्मत करके उनका नंबर मिलाया और बात की पहले कुछ सवालात हुवे और फिर जाकर मैंने अपनी बात कही कि मुझे किसी विशेष कारणवश आपके पिताजी से बात करनी है हालांकि मुझे कारण बताना पड़ा और कारण बताते ही उन्होंने उत्सुकता से कहा आप उन गुरु को लिखना चाहती हैं जो मेरे भी गुरु रह चुके हैं और मेरे आदर्श हैं बताइए मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं और मैं वो हर प्रयास करूंगा जो आपके इस कार्य के लिए सहायक हो, बस फिर क्या था मानो मेरे लिए इस कार्य के लिए भी मुझे मार्ग मिल गया हो, उन्होंने अपने पिताजी का नंबर मुझे दे दिया और कहा कि आप वार्ता करके पता अवश्य कर लीजिए कि किस तिथि को आप वहां जा सकती हैं और इस विषय में विस्तार से बात कर पाएंगी। अब आपके नैनिहाल की यात्रा करने की उत्सुकता और बढ़ चुकी थी, प्रतीक्षा थी तो बस सही समय की। कुछ दिन ऐसी बीते और मैंने नूनागाँव जाने वहां जाकर कार्य करने की रूपरेखा अपने मस्तिष्क में योजनाबद्ध तरीके से बनाई।

 और योजना बनाते बनाते दो से तीन बार मेरा जाना किसी न किसी कारणवश रद्द हो जाता और फिर एक दिन सब कुछ अनुकूल चलते मैंने निर्णय किया कि आज जाना है और देखना है उस स्थान को जहां आपने इतना परिश्रम किया है, मैने घर में आवश्यक कार्य का बहाना बनाया और अपने साथ चलने को एक साथी भी तैयार किया जो रिश्ते से मेरी बहन थी दिलचस्प बात यह थी कि गुरुजी उसके भी आदरणीय हैं, और उसकी इच्छा भी गुरु के जीवन को पढ़ना था इसलिए जब मैंने उसे साथ चलने के लिए कहा और कारण बताया तो वह एक ही बार सहमत हो गई।फिर जाने की प्रातः हमने अपना अपना काम जल्दी जल्दी खत्म किया और जाने का रास्ता भी दूसरा तय किया ताकि आम रास्ते से जाने पर उन्हें जो बार बार टोकने वाले मिलते हैं उनसे बच जाएं। और फिर हम सुबह ७ बजकर ४० मिनट पर घर से इस कार्य के लिए निकल पड़े करीब डेढ़ से दो किलोमीटर के पैदल मार्ग के बाद हम सड़क पर पहुंचे जहां हमें गाड़ी के मिलने की संभावना थी और हमें गाड़ी का समय पहले से ही ज्ञात था सड़क पर पहुंचने के बाद हम दोनों ने चैन की सांस ली और सुकून जताया कि हम समय से पहुंचे हैं अभी गाड़ी आने में समय है और विश्राम करने लगे, इस बीच कुछ जानवर जो चरने के लिए खेतों में जो सड़क से लगे हुवे थे उनका सामना हमने किया जो शायद अनजान को देखकर चौंक से गए थे फिर हमने निर्णय किया कि क्यों न तब तक सड़क पर गाड़ी आने तक पैदल चला जाए, और हम चल दिए एक किलोमीटर चलने के बाद गाड़ी आई और हम नूना गांव की सड़क पर पर पहुंच गए।शायद वो उत्साह अकारण जाने या किसी गांव को देखने पर नहीं होता जो उस दिन था , हम सड़क से नीचे को चलते गए। सबसे पहले मुझे आपके गुरुजी से मुलाकात करनी थी यानी उपर बताए अनुसार दीपक करगेती जी के पिताजी आदरणीय श्री शेखर दत्त करगेती जी के पास लोगों के कहे अनुसार में उनके घर जो उस गांव और क्षेत्र का एकमात्र ऐसा घर है जो हमारे पहाड़ की पुरानी धरोहर है जो बहुत हीं सुंदर आकर्षक तरीके से बनाया गया है जो पत्थर, मिट्टी, लकड़ी से निर्मित है और अपने आप में अलग पहचान बनाता है। मैंने घर की पहचान की और वहां से अंदर जाने और पता करने की इच्छा की कि शेखर गुरुजी घर पर ही होंगे या नहीं??फिर मुझे एक लड़की दिखी जो अपने आंगन की गोबर और मिट्टी से लिपाई कर रही थी और हमें वहां देख शायद हमारा परिचय जानने को इच्छुक थी वो हमें देखती रही और मैं उसके करीब तक पहुंची मैंने उसका हाल चाल जाना, और पूछा कि दादाजी कहां होंगे जो गणित के शिक्षक हैं?? उसने हंसते हुवे कहा कि अभी बाहर ही थे आप अंदर जाइए आपको अंदर मिलेंगे और मैं सीढ़ियां चढ़ते मुख्य द्वार पर पहुंची और रुक गई , दादाजी फोन पर कुछ राजनीतिक बहस को देख रहे थे उन्होंने उसकी ध्वनि काफी तेज की हुई थी और अचानक उन्होंने द्वार पर मुझे खड़ा देख कहा अरे बेटा आप आ जाओ मैं प्रतीक्षा में ही था। इतना कहकर वे उठे फोन पर चल रही वीडियो को बंद किया तथा मेरे और मेरे साथी के लिए दो कुर्सियां लगाई और बैठने का आग्रह किया इतना करने तक मैं द्वार पर ही खड़ी थी। मैं अंदर गई और गुरु जी के चरण स्पर्श किए कितना सुकून था उस आशीर्वाद में जो गुरु जी के हाथों द्वारा मेरे सर पर पड़ा। और मुझे ऐसा प्रतीत हुआ की मुझे किसी दिव्य शक्ति का आभास हुआ है ये श्रद्धा भाव के कारण था या वास्तविकता कुछ और थी मालूम नहीं। फिर मैंने अपनी साथी को अंदर आकर बैठने को कहा और गुरुजी कहते गए कि मैं बाजार गया था कल अच्छा किया आपने फोन कर लिया आने से पहले मैं कभी कभी घर पर रहता हूं।  तेरे लिए पानी लाऊं बेटा उन्होंने आगे कहा अभी पिया है घर से लाई थी बोतल में, मैने न में उत्तर दिया, , , , अच्छा तो तेरे लिए चाय बनवाता हूं बढ़िया सी??? मैंने फिर आगे कहा कि नहीं में चाय भी नहीं पीती, आप बैठ जाएं परेशान न हों। मैंने अपना परिचय दिया और विस्तार से थोड़ा बताया कि मैं कैसे और क्यों उनसे मिलने आई थी , उन्होंने भी काफी जानकारी ली और सवाल किए गुरुजी की जीवनी लिखने के पीछे का उद्देश्य जानना चाहा।

मैंने भी अपना कार्य बताया कैसे मैं लेखन के द्वारा इस काम पर पहुंची हूं।

उसके बाद उन्होंने बोलना शुरू किया और मैं डायरी और कलम लेकर मुख्य चीजें लिखती गई। दादाजी कहते हैं संजू अर्थात मेरे गुरुजी को मैंने बच्चे के जैसा समझा और उसके लिए भी में हमेशा से आदरणीय रहा हूं वो आज भी मुझे उतना ही विनम्रता और आदर के साथ मिलता है जैसे की वो मेरे लिए अब भी वैसा ही है जैसा मैंने उसे यहां (दादाजी ने नीचे बिछी चटाई की तरफ इशारा करते हुवे कहा) पढ़ाया, मैंने हर छात्र को इसी कक्ष में पढ़ाया है संजू आज शिक्षक है में आज भी निजी तरीके से शिक्षा बच्चों को देता आ रहा हूं, लेकिन मेरे लिए गौरव की बात यह है कि संजू ने तुम्हें मेरे पास भेजा मुझे अपना गुरु का स्थान देकर मुझे इस योग्य समझा है और मुझे क्या चाहिए इससे ज्यादा?? मेरे लिए तो वो अब भी बच्चा ही है वे यही बात दोहराते जा रहे थे। उन्होंने आगे कहा संजू ने कभी किसी से अपशब्द नहीं कहा होगा कभी किसी से नहीं लड़ा होगा तुम कहीं भी जाओ तुम्हें कोई एक अकेला इंसान ऐसा नहीं मिलेगा जो ये कहे कि संजू ने यहां गलत किया। वो यहां अपने नैनिहाल रहा सारा घर का काम किया १ किलोमीटर नीचे गहराई जहां ठंडे पानी का स्त्रोत था वहां से पानी लाना होता था, उनके मामा मामी और नानी खेत के कामों में व्यस्त रहती थी और वो लड़का हर काम करके भी पढ़ाई नहीं छोड़ता था। वह जब शुरुआत में मेरे पास गणित के कुछ मुश्किल सवाल लेकर आया जो शायद उसने हल करने की बहुत कोशिश की होगी और अंत में मेरे पास पूछने के लिए आया, नैनिहाल वाले भी इतने संपन्न नहीं थे कि मैं उससे शिक्षा के बदले दक्षिणा लेता मेरा ध्यान सिर्फ उसकी लगन पर गया। और उसकी इसी मेहनत लगन के लिए मैंने उसकी हरसंभव पढ़ने को लेकर सहायता करने का निर्णय किया। और उसने भी पूछा कि क्या वे उसे पढ़ा देंगे और मैंने उससे कहा ठीक है तू आ जाना मुझसे जितना होगा में करूंगा। गुरुजी शायद वो शब्द आपके लिए आशा के चिराग समान होंगे।

और उसकी मेहनत रंग लाई आज वो शिक्षक है और उसके स्वभाव उसकी दी हुई शिक्षा दीक्षा से तुम आज मेरे पास आई हो। ऐसा इंसान आज कहां मिलेगा जो जैसा बाहर से दिखने में हैं वैसा ही अपने मन से भी है।मेरा आशीर्वाद है तुम खूब आगे जाओ और अपने काम में सफलता पाओ और मुझे भी अपनी रचनाएं पत्रिका के रूप में भिजवाना मैं भी पढ़ना चाहता हूं तुम कैसा लिखती हो??. मैंने हां में उत्तर दिया और थोड़ी देर के लिए हम सभी शांत हो गए इस विषय से अलग उन्होंने मेरी साथी के बारे में पूछा जिसका नैनिहाल भी उन्हीं के पास के गांव की उनकी पहचान में निकल आया। फिर थोड़ा पारिवारिक विषय से संबंधित बातें हुई और उन्होंने कहा कि उनका बेटा दीपक भी कवि है जो पल भर में कविता तैयार कर लेता है कविता वाचक भी है तुम कभी मिलना उससे काफी जानकारी और मदद मिलेगी अभी फिलहाल वो राजनीति में व्यस्त है लेकिन तुम उससे मिलना जरूर एक बार, और मैं तो मानो ऐसा ही कुछ विकल्प की प्रतीक्षा में थी मैंने उनकी बात का समर्थन किया और कहा जरूर मुझे अच्छा लगेगा मिलकर ददा से मुझे पहले मालूम भी नहीं था।

 फिर उन्होंने आगे कहा पूछो और क्या जानना चाहती हो संजू को लेकर मुझे जितना पता था में बोल चुका हूं कुछ छूट गया हो तुम्हारे मन में इस बीच कोई प्रश्न आया हो तो पूछो, , ,  मैंने कहा बस एक लेखक को शब्दों से ज्यादा भाव चाहिए जो मैंने महसूस किए और देख लिए हैं बाकी कुछ मुख्य चीजें मैं इसमें से (मैंने अपने फोन की तरफ इशारा किया जो मैंने आवाज दर्ज करने के लिए श्रुतलेख चालू किया था ) समझ लूंगी। मेरा इतना कहते ही उन्होंने प्रतिक्रिया की तुमने सब रिकॉर्ड कर लिया??? मैं तो पता नहीं क्या क्या बोल गया और तुम इसे किस तरीके से प्रदर्शित करोगी तुम बहुत चालाक निकली। क्षण भर के लिए मुझे लगा कि वे मेरी इस क्रिया से क्रोधित हो गए हैं और शायद अब भाव कुछ बदल जाएंगे, , , लेकिन मैंने घबराहट से बाहर निकलकर बड़ी विनम्रता से कहा गुरुजी आपको ऐसा क्यों लगता है कि अपने आदरणीय गुरु के गुरु को कहीं गलत मनसा से प्रदर्शित करूंगी मुझे क्या मिलेगा मेरा उद्देश्य तो ऐसा कुछ है नहीं। इतना कहते ही वे बोले अरे ये तुम्हारी प्रतिभा का प्रमाण है जो तुमने बखूबी निभाया है अगर मुझे पता होता तो शायद मैं काफी कुछ नहीं बोल पाता मेरा ध्यान तुम्हारे श्रुतलेख पर केंद्रित हो जाता और जिस भाव की तुम्हें जरूरत थी वो तुम नहीं देख पाती। इसके लिए तुम्हें लेखक नहीं खुफिया शाखा में होना चाहिए। वे हंसे और बोले अब मैं कुछ नहीं बोलूंगा तुम मुझे फंसा दोगी अब मुझे इसे सुनाओ एक बार जो तुमने दर्ज किया है। मैं भी सुनूं कि मैं कैसा वक्ता हूं और मैंने क्या बोला है.? मैंने ध्वनि रक्षक चालू करके दे दिया और मैंने इस बीच उनके कक्ष में लगी तस्वीरों पर नजरें घुमाई। थोड़ी देर बाद वे बोले लो बेटा ठीक है, तुम अपना काम जारी रखना कभी मत छोड़ना इसे, अपने आप में कला है लेखन का काम। मैंने कहा बस आपका आशीर्वाद है तो सब होगा। वे आगे बोले थोड़ा सा पी लेना लेकिन मैं चाय बनवाता हूं मैंने फिर मना किया , और बड़े भावुक शब्दों में वे बोले भाग्य जहां लिखा होता है इंसान को वहां जाना होता है, , , सब भाग्य का खेल है इंसान कामयाब है तो भाग्य है इंसान सक्षम होकर भी कामयाब नहीं है वो भी उसका भाग्य है। मैंने थोड़ी देर उस वाक्य को दोहराया और विचार किया की अभी अभी बातों में इतना परिवर्तन क्यों आया होगा?? आखिर ऐसा कहने के पीछे उद्देश्य क्या होगा??

यहां आपको मैं विषय से थोड़ा अलग बताने जा रही हूं क्योंकि ये मेरे इस कार्य को करने के दौरान हुआ तो इसे भी जानिए। कि क्या सच में भाग्य का लिखा बदलना मुश्किल है??

जी हां मैं आपको गुरु के गुरु श्री शेखरदत्त जी के जीवन की कुछ मुख्य चीजें कुछ पंक्तियों में बता रही हूं क्योंकि मैं खुद भावुक हो गई उनकी बातें जानकर तो बात यह थी कि जब उन्होंने जब भाग्य को लेकर कुछ बातें निरंतर कही और उनकी आवाज में जब रूखापन आया तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूछा कि ऐसा क्यों वे सोचते हैं क्या हुआ उनके साथ जो वे अपना भाग्य को बार बार दोहराते हैं???तो उन्होंने कहा मैं क्या कहूं अपने लिए में एक शिक्षक एक गुरु जरूर रहा हूं मैने असंख्य बच्चों को यहां पढ़ाया है भतरोंजखान में निजी केंद्र खोलकर पढ़ाने का काम किया और अपनी आजीविका भी कमाई है मैंने काफी कमाया अपने हुनर अपनी प्रतिभा से लेकिन मैं कभी कभी निराश होता हूं कि जब मैं सक्षम था तो मैं भी एक सरकारी वेतन लेने वालों में से क्यों नहीं बन पाया ये मेरा भाग्य है जो इंटर की पढ़ाई के उपरांत निर्णायक सूची आने पर मेरे अंकपत्र में मेरे पसंदीदा विषय गणित की जगह जीव विज्ञान दर्शाया हुआ आया और मैं काफी निराश हताश हुआ उसमें सुधार के लिए मैंने कई प्रयत्न किए जो मेरे लिए मुश्किल थे फिर भी मैंने किए क्योंकि मैं हट पर आ गया था कि मुझे मेरे विषय और अपनी प्रतिभा पर नाज है मैं अन्य विषय से अपने भविष्य का चयन नहीं कर सकता और इसके लिए मेरा पूरा वर्ष बीत गया जिसका परिणाम ये हुआ कि उस बीच द्वाराहाट में फार्मेसी के लिए चयन मेरा रद्द हो गया जो एक वर्ष मैंने सुधार के लिए लगाया वो वहां निर्धारित उम्र से उपर हो गया था।हालांकि मेरा अंकपत्र बन कर आया और द्वितीय श्रेणी प्राप्त हुई थी, उसके बाद मैंने अपनी जिद छोड़ दी और मेरा स्वास्थ्य भी खराब रहने लगा, समाज में मैंने अपनी इज्जत बनाई खासकर उनके सामने जिनको मैंने पढ़ाया है, मैं हाईस्कूल और इंटर वालों को ही पढ़ाता था उन्होंने मेरे पढ़ाए बच्चे आज मेरा सम्मान करते हैं भले ही उनके मन में कुछ हो और वे किसी भी उच्च पद पर क्यों न हों लेकिन जब भी मिलते हैं तो मेरे गुरु हैं इन्होंने मुझे शिक्षा दी है इतना जरूर कहते हैं। मैं अपने गुरुओं का मान करता हूं जिन्होंने मुझे पढ़ाया अगर मुझे ऐसे गुरु न मिले होते तो मैं जो हूं वो नहीं होता। ये गुरुओं की कृपा ही होती है जो इन्सान को आगे बढाता है तुम मुझे क्या जानती थी, तुम्हारी मेरी पहचान गुरु शिष्य के माध्यम से हुई और गुरु के लिए हुई, संजू ने तुम्हें यहां भेजा है ये एक कृपा है उपर से और माता पिता गुरु देवता ये सब भगवान ही हैं और तेरे मन में जो गुरु के लिए सम्मान है तो तेरे ऊपर कृपा होनी ही होनी है मुझे लगता है बेटा जिन जिन गुरुओं ने भी तुम्हें पढ़ाया होगा तुम उन सबका सम्मान करती होगी। मेरे इस भाग्य मेरे पूर्व जन्म का संबंध भी रहा होगा मुझे विश्वास होने लगा है कि इंसान का जन्म जन्मांतर संबंध चलता रहता है। इतना कहकर दादाजी चुप हो गए और बोले मैं खाना बनवा देता हूं तुम आई हमारे घर और ऐसे ही कुछ खाए पिए चली जाओगी , मैने फिर मना किया और वहां से जाने की अनुमति के साथ अपने गुरुजी के नैनीहाल वालों ( नानी का घर पूछा) वो घर जहां आपने अपना सम्पूर्ण बचपन बिताया था। 

नैनिहाल वालों के अनुसार:

 दादाजी मेरे साथ बाहर आए और और दो घर नीचे की तरफ ले जाकर आपके मामाजी को आवाज लगाई कि उर्बादत्त जी संजू की कोई शिष्या आई है कुछ जानकारी लेना चाहती है तुमसे। और मुझे बोले आप अंदर चले जाओ घर पर ही हैं, मैं आगे बढ़ी आपके नैनिहाल के घर के द्वार पर प्रणाम किया और अंदर चली गई , जहां आपके मामाजी खाट पर बैठे टेलीविजन में समाचार देख रहे थे , उन्होंने तुरंत उसे बंद किया मैने चरण स्पर्श किया और उनका हालचाल जाना और उनके आग्रह पर कुर्सी पर बैठ गई मेरी साथी जो बाहर धूप में सीढ़ियों पर ही बैठ गई थी उसे खिड़की से आवाज देकर अंदर आने को कहा और बताया कि आपके मामाजी का घर हैं और जो अभी हमारे सामने हैं वे आपके मामाजी हैं, महसूस कर  इस जमीन को जहां गुरुजी बैठे होंगे, बैठकर पढ़ा होगा, खाया होगा , खेला होगा, वो बचपन की तस्वीर तो नहीं बन पाई किन्तु उसके अलावा सब कुछ ऐसा था जैसे हमारे सामने अभी वर्तमान में सारी चीजें चल रही होगी ऐसा प्रतीत हुआ।

 सत्य से परिचित कराऊं तो मैं काफी भावुक थी उस जगह पर पहुंचने पर मालूम नहीं किंतु मन में एक अजीब सी उदासी थी, मैं उस भूमि को भी स्पर्श किया मैं महसूस करना चाहती थी, हर उस चीज को दोहराना चाहती थी देखना चाहती थी जो गुरुजी के समय वहां घटित हुआ था। मैं उस घर में की दीवारों में लगी तस्वीरों , देहली पर बने सफेद और लाल रंग की सुंदर आकर्षक ऐपण की कला को देखे जा रही थी और दाएं तरफ बना लकड़ी का बना फट्टा जिसमें दूसरी तरफ जाने का रास्ता था, मैं बस ये सोचे जा रही थी कि कितने हुनर बाज और सक्षम थे हमारे पहाड़ के लोग जो पर्याप्त अपनी निजी प्रकृति की ही चीजों से घर को आकर्षक बना देते थे और आज वो कला खरीद के भी वैसी नहीं बन पाएगी। फिर आपके मामाजी श्री उर्बादत्त जी ने पूछा कि आज किस चीज का भ्रमण तुम करने आई हो किसी गैर सरकारी योजना या केंद्र से जुड़ी हो??? मैने बोला नहीं मैं अपने गुरुजी की कुछ यादें यहां से बटोरने आई हूं , फिर मैंने उन्हें सब कुछ विस्तार से बताया और वे खुश दिखे , बोले संजय तो अपनी मेहनत से आज शिक्षक बना है हमें इतना समय मिलता ही नहीं था कि हम उन पर ध्यान दे सकें उल्टा उसे ही घर का कितना काम करना पड़ता था स्कूल जाते समय उसे दूध देकर आना होता होता था डेयरी में, पानी रखकर जाना होता था, खेतों में बुवाई के समय उसने हल लगाया फिर स्कूल को गया है। हम तो खेतों में रहते थे और थकान के मारे रात में सो जाया करते तो वह दिवालगिरी (एक तरह का लैंप जिस पर सूत की रस्सी की जोत होती थी और नीचे एक कटोरी में मिट्टी का तेल हुआ करता था और हवा से बचाने के लिए उसके चारों ओर बोतल की तरह उपर से खुला हुआ एक कांच का आवरण) होती थी उस समय और वह यहां मामाजी ने जहां टेलीविजन रखा था उसके नीचे कोने की तरफ इशारा करते हुवे बताया, पर थी उसकी रस्सी वाली खाट बस उसी में पढ़ता रहता था हम तो रामनगर चले जाते थे लेकिन वो यहीं रहता था, अपने आप बहुत मेहनती था हमारा भांजा वो तो भाग्य ने उसे संघर्ष के लिए मजबूर कर दिया। मामाजी ने आगे बताया कि रामनगर में उनका अपना मकान है कभी घर कभी वहां जाना होता रहता है,  हमारी बहन (आपकी माताजी) की बारात हाथी में आई थी, तब दामाद जी यानी आपके पिताजी तब रा. इ. का. में ही कार्यरत थे। शादी के समय एक और शादी थी कानिया (रामनगर) में जहां हाथी आए हुए थे और उनके मालिक के कहने पर शादी में उन्हें साथ लाया गया। गरीबी थी उस समय हमारे एक भाई किच्छा (हल्द्वानी) में प्राथमिक विद्यालय में कार्यरत थे लेकिन अचानक उनका देहांत हो गया ये नहीं पता लग पाया कि कैसे हुआ, क्योंकि उनका स्थानांतरण हुआ था सांवल्दे में लेकिन उन्हें वहां से भेज नहीं रहे थे, और उनके देहांत के एक हफ्ते पूर्व ही उनकी चिट्ठी आई हुई थी कि वे वहां किसी मुसीबत में हैं उन्हें घर से कोई लेनें आए, लेकिन व्यस्तता के कारण हमने आज कल करके समय और भाई दोनो को खो दिया, उनकी धर्मपत्नी तब से मायके में हैं और अकेली ही अपना जीवन यापन कर रही हैं। मैं तब स्टेट बैंक में नौकरी करता था कोई गुप्ता जी थे जो रामपुर के रहने वाले थे वे मुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे वे कह रहे थे कि मुझे किसी अच्छे पद पर काम दिलाएंगे लेकिन मैने अपनी घर की स्थिति को बताते हुवे मना करना पड़ा। और उसके बाद मैंने कुछ साल अल्मोड़ा जिला सहकारी बैंक में कार्य किया उसके बाद मेरा विवाह हुआ और उसके बाद मैंने अपनी खेती का काम और घर संभाल लिया क्योंकि हमारी माताजी (आपकी नानीजी) का कहना था कि एक बेटे को खो दिया है हमारी इतनी खेती है जमीन है रामनगर में घर है सब किसके लिए है ?? कहीं जाने की जरूरत नहीं है अब घर में ही साथ रहेंगे, आपके मामाजी ने यह भी बताया कि उनका नैनिहाल हमारे पड़ोसी गांव हऊली में है,  हमारी कड़ियां कहीं न कहीं से मिलती जा रही थी। इसके बाद मैंने फिर कभी आने और ज्यादा समय मिलकर बातें करने की बात कही और विदा ली। उस समय मैं आपकी मामी जी श्रीमती पुष्पा देवी और आपकी नानीजी श्रीमती गोपुली देवी जी से मिलना चाहती थी लेकिन वे उस समय कहीं खेतों में टहलने गई थी और समय का अभाव था तो मैंने प्रतीक्षा करना उचित नहीं समझा। आपके मामा जी ने कहा कि दोपहर का खाना खाकर जाइए आपने चाय तक नहीं पी तो मैंने कहा कि मैं खुद खाली हाथ यहां हो आई हूं समय और गाड़ी की जल्दी ने मुझे कुछ खरीदने का मौका ही नहीं दिया मुझे अच्छा नहीं लगा तो आपके मामा जी ने जवाब दिया आप अपना काम खत्म करके फिर कभी समय लेकर और एक झोला भर कर हमारे लिए ढेर सारी चीजें लेकर आना। मैंने हां जरूर करके प्रणाम किया और घर की तरफ वापस लौट आई।

अब आगे..

  गुरुजी आप बी. एड करने के बाद वर्ष के अंतिम महीनों से कुछ समय दिल्ली गए और मित्र अमित तिवारी जी भी साथ रहे, वहां घूमे और महीने भर करीब आपने अध्यापन (ट्यूशन) का कार्य किया लेकिन कुछ ही समय पश्चात लौट आए, आकर आपने अन्य सरकारी नौकरियों के लिए पढ़ाई और तैयारी की, कुछ लिखित परीक्षाएं भी आपने उत्तीर्ण की किंतु साक्षात्कार में आप रह गए। इसी तैयारी और परीक्षाएं देते आपके दो से ढाई साल का समय व्यतीत हो चुका था साथ ही अमित जी ने अलग अलग राज्यों से अनुशिक्षण केंद्रों में भाषाई तथा प्रगत संगणन विकास केंद्र (CDAC) जो भारत की एक अर्धसरकारी कंपनी है, तथा वर्तमान में सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र में एक नामी कंपनी है, में अपनी पढ़ाई की और तीन बार स्नातकोत्तर किया तथा भारत में अंतरराष्ट्रीय व्यापार मशीन निगम (IBM) में अनुशिक्षण करने के बाद नौकरी पर लगे तथा कुछ समय बाद उन्हें कंपनी द्वारा उन्हें विदेश भेज दिया गया और इसी दौरान जब गुरुजी का चयन और अध्यापक पद के लिए नियुक्ति हुई तो अमित जी भी चयनित थे, जिसके लिए उनके अभिभावक ने काफी कोशिश की उन्हें घर बुलाने तथा अध्यापक की नौकरी स्वीकार करने के लिए, , गुरुजी के कहलवाए जाने पर भी उन्होंने ये अवसर त्याग दिया कारण यह था कि वे इतनी मेहनत और धन व्यय करके विदेश तक पहुंचे थे, जहां से बस आगे बढ़ना चाहते थे, लौटना नहीं। कार्य समय पूर्ण होने के पश्चात जब कंपनी ने उन्हें वापस बुलाया तो उन्होंने कम्पनी से नौकरी त्याग दी तथा अपनी प्रतिभा के बल पर तुरंत दूसरी नौकरी पर में लग गए, आज वे कनाडा में अपने संपूर्ण परिवार के साथ रहते हैं।

सफलता की सीढ़ी...

 १९९९ में गुरुजी आपका शिक्षक पद के लिए प्रथम चयन हुआ प्राथमिक विद्यालय ओखलकांडा में जहां आप दो वर्ष रहे और उसके बाद उसी स्थान पर एक वर्ष आप जूनियर हाई स्कूल में कार्यरत रहे ; तत्पश्चात २००३ माह जुलाई में आपका स्थानांतरण हुआ और आपको राजकीय इंटर कॉलेज के शिक्षक पद के लिए रा. इ. का. सिद्धसौढ जो उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है , वहां भेजा गया और आप वहां ज्यादा समय कार्यरत नहीं रहे मात्र पांच महीने बाद ही नवंबर में आप हमारे क्षेत्र और राजकीय इंटर कॉलेज चौनलिया में आए,  जहां आप किराए के कमरे पर श्री दर्शन असवाल जी के यहां रहे और एक परिवार जैसा अपना समय बिताया, आपने वहां अपना समय शायद शांतिपूर्ण बिताना चाहा होगा और जीवन के एक अगले अध्याय में प्रवेश करना चाहा, जैसे जैसे कहानी में लग रहा था कि आगे और ऐसे मोड़ होंगे जहां संघर्ष के बाद मंजिल मिल रही थी, सुख का आगमन होगा, एक अकस्मात दुर्घटना हुई आपके चाचाजी  श्री केवलानंदद जी का कानिया रामनगर में एक सड़क हादसे से निधन हो गया, और उनके सम्पूर्ण परिवार की जिम्मेदारी अब आप पर आ गई , , , , , अब आपने अपने दोनों चचेरे भाई सौरव डॉर्बी और मोहित डॉर्बी को अपने साथ चौनलिया ही अपने साथ रख कर पढ़ाने का निर्णय किया, , और उन्हें चौनलिया के विद्यालय मेंं दाखिला दिलवाया और उनकी देख -भाल की।   

वैवाहिक जीवन

 चाचाजी के निधन के एक वर्ष पश्चात ४ जून २००५ में आपका विवाह शिक्षिका कु. गीता सनवाल जी के साथ हुआ, जो रहने वाली हल्द्वानी की थीं और मूल निवासी अल्मोड़ा जिले में स्थित काफलीखान गांव सन की थीं। गीता जी भी बीएड कर चुकी थीं और उस समय एक प्राइवेट स्कूल में कार्यरत थीं, गीता जी के अनुसार उनकी माता जी उन्हें कम उम्र में ही छोड़ कर जा चुकी थीं और पिताजी ही उनकी देखभाल करते थे, आपके विवाह की बात शुरू होने से लेकर विवाह होने तक मात्र एक माह का पूर्ण समय नहीं लगा, क्योंकि यहां गुरुजी की चचेरी बहन का विवाह होना था, और वहां गीताजी के बड़े भाई का विवाह तय था और इसी तिथि में दोनों पक्षों ने साथ में शुभ कार्य को करने की सोची और विवाह काम अधिक समय नहीं लेते हुवे पूर्ण हुआ। गीताजी पांच भाई बहनों में से बीच की यानी तीसरे नंबर पर थी, गीताजी बताती हैं हमारा विवाह बिल्कुल उसी तरीके से हुआ जैसे हमारे संस्कृति में और आज लोग जिसे चट मंगनी पट ब्या कहा जाता है, ये सब मेरे बड़े भाई की पहचान केेेेे एक मेडिकल स्टोर वालेे और उनकी पहचान के किसी अन्य व्यक्ति द्वारा हुआ, और मुझेे इतनी जानकारी ही थी कि वे अध्यापक हैं, और गुरुजी के द्वारा उन्हें इतना ही बताया गया था कि उन्हें उनके चाचाजी केवलानंद जी के पांच बच्चे, तीन चचेरी बहनें और दो भाइयों की जिम्मेदारी निभानी है, जो उनके पढ़ाई से लेकर उन्हें एक अच्छी नौकरी तथा उनके विवाह तक का प्रमुख था, हालांकि जिम्मेदारी आज भी हैं, , क्योंकि अभी चचेरी बहनों की ही शादी हुई है, दोनों भाई सौरव डॉर्बी जो रामनगर में अपनी विधवा मां के साथ रहते हैं और खेती का काम संभालते हैं, और छोटे भाई मोहित डॉर्बी होटल मैनेजमेंट करके नौकरी करते हैं, मैं दोनों ही भाइयों से परिचित हूं मैं अपने विद्यालय में पढ़ने के समय उन्हें रा. इ. का.चौनलिया में पढ़ते देखा है। गीता जी की बड़ी बहन वर्तमान में दिल्ली में हैं और शिक्षिका हैं, उनके बड़े भाई जो पशुधन प्रसार अधिकारी हैं, और छोटे भाई हैं जो प्राइवेट नौकरी करते हैं, और सबसे छोटी बहन हैं जो हल्द्वानी रहती हैं और गृहणी हैं।

गुरु दर्शन और मेरी माध्यमिक शिक्षा..

 २००६ में मैने छठी कक्षा में प्रवेश लिया, तब भाई विपुल (गुरुजी का पुत्र) हुआ था, और तब तक मुझे मालूम था तो बस गुरुजी का नाम पता था कि हां इंटर कॉलेज में एक इस नाम से गणित के अध्यापक हैं मेरे अपने बड़े भाई के विषयाध्यापक होने के नाते घर में विद्यालय का जिक्र होते रहता था, , भगवान से आज भी यही प्रश्न है कि गुरुजी जैसे शिक्षक हमें छठी कक्षा से क्यों नहीं मिले और अगर ऐसा होता तो निसंकोच किसी मुकाम पर हम आज होते बशर्ते उच्च पद पर न होते,  गुरुजी से सिर्फ प्रातः प्रणाम और प्रार्थना स्थल पर कभी कभी कुछ प्रेरणादायक विचार मिल जाते जो गुरुजी अधिकतर सामान्य बातों में कह देते थे। एक बार की बात है जब मैं सातवीं में थी और विषयाध्यापक ना होने के कारण हम कक्षा में बहुत शोरगुल कर रहे थे, और गुरुजी बराबर के कमरे में आठवीं कक्षा वालों को गणित पढ़ा रहे थे और हमारे शोर की वजह से परेशान होकर हमारी कक्षा में आए, , और कुछ देर बातें सुनाने के बाद जो गुरुजी का डांटना था, भावुक होकर कुछ ऐसा कह गए जिससे उसी दिन मैंने भांप लिया कि गुरुजी ने मुश्किल हालातों में पढ़ा होगा, , हालांकि हमारी हरकतों में सुधार हुआ नहीं आया और हमारी आठवीं तक कक्षा की गाड़ी पास हो गई, और फिर गुरुजी के प्रेरणादायक शब्द आए दिन सुनने को मिले जब नवीं कक्षा में एक सप्ताह गृह विज्ञान विषय पढ़कर, मैंने गणित का विषय चुना कोई रुचि तो नहीं थी इतनी फिर भी मैंने गणित लेना चाहा।और वो पहला दिन था जब गुरुजी का मेरे समक्ष पढ़ाना था और सवाल का जवाब पूछने के बहाने आपने ये पूछा कि मैं निश्चित कर लूं कि फिर एक सप्ताह बाद मैं वापस गृह विज्ञान न पढ़ने लगूं। मैंने विश्वास दिलाया कि अब गणित ही विषय रहेगा और वो दिन था और आज मेरा आपके लिए लिखना जुड़ता गया आप मेरे प्रिय अध्यापक रहे और मार्गदर्शक भी, हालांकि मार्गदर्शन अन्य अध्यापकों ने भी मेरा बखूबी किया है मेरे ग्यारहवीं के बाद कला वर्ग के चयन से विषयाध्यापक होना छूट भले ही गया हो। किंतु मन से एक श्रद्धा भाव से मैंने अपने समक्ष आपको जीवन दर्पण मान लिया जिसमें मुझे मेरा चेहरे के साथ साथ पीछे हो रहे प्रतिक्रियाओं के बारे में पता लगता है। अपने जीवन में आपके महत्व को में यहां ज्यादा प्रदर्शित नहीं करूंगी। आगे बढ़ते हैं आपके मकान मालिक काम आपके बड़े भाई समान श्री दर्शन असवाल जी के पास जिनके घर में आप अपने परिवार सहित २००३ से २०२२ यानी कि १९ साल तक रहे , और एक प्रेमपूर्वक व्यवहार के साथ अपना समय वहां बिताया। आपके अनुसार मैं असवाल जी से मिलने गई। मैं घर से निकली थी और पूरे रास्ते यही सोच रही थी कि मुझे क्या जानना चाहिए मैं क्या क्या सवाल वहां पर करूंगी?? मुझे दो लोगों से मिलना था मकान मालिक असवाल जी और किराने की दुकान रखने वाली आपकी भाभी जी , जिनकी लड़की और मैं सहपाठी रह चुके थे सात साल तक श्रीमती कमला चौधरी जी के पास। आंटीजी को मैं जानती थी पहले से ही तो उनसे मिलना इतना मुश्किल नहीं लग रहा था जब भी दिख जाती थीं कहीं भी तो हाल चाल जान लेना होता था। मैं चौनलिया पहुंच गई और पहले आंटीजी के घर जाना ही सुनिश्चित किया उनकी दुकान खुली थी पर बैठा कोई नहीं था इसलिए मैं कुछ सीढियां नीचे उतरी और आवाज दी लेकिन कोई जवाब नहीं आया अब मैं नीचे जाने से डर रही थी कि कोई कुत्ता घर में बंधा हो मेरे इस तरह जाने से झपट न ले , लेकिन इतने में ही एक और भाई वहां आए और उन्होंने भी आवाज देकर बाहर बुलाने की कोशिश की और तब आंटी जी का बड़ा बेटा बाहर आया उन भाई साहब ने उनको मिठाई दी शायद किसी अच्छे काम से आ रहे थे और मिठाई लेकर वह अंदर चले गए मैंने उन्हें भैया को दोबारा बोला कि क्या उनसे पूछ कर बता सकते हैं कि आंटी जी अभी कहां है तो भैया ने पूछा और उनके बेटे ने जवाब दिया कि मम्मी घास के लिए गई है थोड़ी देर में आती होंगी। आप कौन हैं और किस काम से यहां आए हैं बताओ मुझे मैंने कुछ नहीं मैं जवाब दिया और कहा कि मैं थोड़ी देर में आती हूं आंटी जी से मिलने और इतना कहकर मैं वहां से चली गई दस कदम की दूरी पर ही अस्वाल जी का घर था और अंकल जी और एक अन्य महोदय जो हमारे विद्यालय के समय हमारे विद्यालय में ही चतुर्थ श्रेणी में कार्यरत थे बैठे हुए थे और बातें कर रहे थे मैं आज से पहले निजी तरीके से अंकल जी से कभी नहीं मिली थी पर शायद वो मुझे जानते होंगे क्योंकि गुरुजी के पास आना जाना होता था अंकल जी दिख जाते थे, उनकी अपनी दुकान है वह अपनी दुकान के बाहर बरामदे में कुर्सी पर बैठे हुए थे।

 मैं सड़क से सीढ़ियां चढ़ी और बरामदे में पहुंची मैंने नमस्कार किया और खुद ही पूछ लिया कि मैं यहां पर बैठ सकती हूं कुछ देर तो अंकल जी का जवाब है हां क्यों नहीं जरूर। मैंने बैठते ही अपना परिचय दिया और मेरे वहां जाने का कारण उन्हें बताया अंकल जी ने जवाब दिया कि ऐसे इंसान की जीवनी लिखना तो अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है और हम क्या क्या कहें क्या नहीं कहे उनके लिए । तो मैंने आगे कहा मुझे अब आप वह सारा वृत्तांत सुनाइए जो बीते अठारह वर्ष में यहां आपने देखा सुना और आभास किया तो अंकल जी ने जवाब दिया कि आपको अच्छाई और बुराई दोनों चाहिए होंगे लेकिन हमारे पास सिर्फ अच्छाइयां ही हैं गुरुजी को लेकर। मैंने हंसते हुवे आगे कहा की कृपया मुझे वो सभी चीजों से अवगत कराएं जिसके बारे में भी वे जानते हैं। और अंकल जी ने बोलना शुरू किया और वही सब वृतांत सुनाया जो मैं आपको पहले भी बता चुकी हूं कि गुरु जी किन हालातों में गरीबी में संघर्षमय बचपन बिता कर विद्यालय शिक्षा ग्रहण की घर के सारे काम काज किए और कभी भी कोई ऐसा कार्य नहीं किया जिससे एक अन्य व्यक्ति को नुकसान हो या किसी को जरा भी ठेस पहुंचे आप कहीं भी जाएंगे तो यह नहीं सुनेंगे कि गुरु जी का कहीं विवाद हुआ था जहां भी हुआ होगा तो हाथ जोड़कर माफी मांग ली होगी और अपना उस विवाद के स्थान से दूर हो गए होंगे।और अंकल जी ने गुरुजी के पिताजी , चाचाजी और मामाजी सभी को बराबर सहयोग का पात्र बताया और बार बार कह रहे थे कि इंसान की लगन और पारिवारिक सहयोग से ही आज डॉर्बी जी यहां पहुंचे हैं क्योंकि अकेले हाथ से ताली बजाना संभव नहीं होता है,  मैने कभी भी उन्हें कभी भी उन्हें अपना किराएदार नहीं समझा वरन एक छोटा भाई ही मैं उन्हें मानता आया और उन्होंने भी मुझे भरपूर एक बड़े भाई होने का एहसास दिलाया हर छोटी बड़ी चीजों में हमने एक दूसरे का साथ दिया और आगे भी देंगे उनके बच्चों को मैंने अपने बच्चों से ज्यादा प्यार दिया जब गुरु जी और उनकी पत्नी दोनों विद्यालय चले जाते तो बच्चों को मेरे भरोसे छोड़ कर चले जाते कि आप इन्हें खाना खिला दीजिए और उनका ध्यान दीजिएगा तो यदि मैं पल भर के लिए कहीं घर से बाहर जाऊं तो मुझे खुद के बच्चों की इतनी फिक्र नहीं होती थी जितनी विपुल और सिया की हो जाती थी।गुरुजी ने मेरे घर पर होते हुए कभी भी अपने कमरे का दरवाजा बंद नहीं किया अंदर बच्चे खेलते रहते थे और मैं उनकी देखभाल करता रहता था अपने घर के काम के साथ। डॉर्बी जी आज के समय में एक ऐसा चरित्र हैं जो आप किसी अन्य व्यक्ति में देख नहीं सकते हैं और ना ही यहां संभव है ऐसा निस्वार्थ भाव और ऐसा सरल स्वभाव जो कभी यदि क्रोधित या परेशान होता होगा तो वह इंसान अपने मन तक उसको सीमित रख कर खुद ही से लड़कर सामना करते होंगे लेकिन कभी किसी को भी किसी वजह से भी चाहे गलती करने वाले सामने हो पर अपशब्द नहीं कहा होगा। जो संघर्ष उन्होंने अपनी जिंदगी में देखा है काफी मुश्किल भरा रहा है जिसका उन्हें फल भी भगवान ने भरपूर दिया है आज वो शिक्षक हैं, उनकी धर्मपत्नी भी शिक्षिका हैं उनका बेटा नवोदय में दसवीं कक्षा जा चुका है और बेटी भी बेहद उत्कृष्ट है। राजकीय इंटर कॉलेज चौनलिया में रहते हुवे भी उन्होंने हर तरीके से वो सामाजिक कार्य हो,  हमारे कुमाऊं संस्कृति से जुड़ा हो त्योहारों में गांव और समाज को भरपूर सहयोग किया है। जैसे होली में, हमारे यहां भूमिया पूजन में पूरे तन मन से सहयोग करते हैं। विद्यालय में भी हर बड़े छोटे काम को बखूबी डॉर्बी जी ने निस्वार्थ निभाया और प्रधानाचार्य के दायां हाथ रहे हैं। हर उस बच्चे को पढ़ने में रुचि होती थी उन सभी को निशुल्क अमूल्य शिक्षा उन्होंने दी। डॉर्बी जी ने पढ़ने वाले बच्चे को हर सुविधा देना चाहा है जो परेशानियां कठिनाइयां उन्हें आई हैं वो किसी को नहीं आए। उनके चाचाजी जिन्होंने डॉर्बी जी को काफी सहायता की है अपने बच्चे की तरह उन्होंने देखभाल की हर प्रयास किए उनके लिए  , उनके चाचाजी केवलानंद डॉर्बी जी ठेकेदारी करते थे रामनगर लाल ढांक में ग्रामप्रधान रहे, तथा आजीविका का एक साधन उनकी अपनी चक्की थी। यहां भतरोंजखान में भी ठेकेदारी को लेकर दुकान में पिताजी के साथ उठना बैठना था, श्री कुंदन चौधरी जी ने बताया कि आपके चाचाजी एक समय पर राजकीय इंटर कॉलेज चौनलिया में अंशकालिक रसायन विज्ञान के प्राध्यापक रहे थे उस समय विद्यालय में प्राध्यापक को लेकर चिंता का विषय जाग गया था और सभी सहयोगी अध्यापक तथा प्रधानाचार्य इस चिंता के हल के लिए अन्यत्र विकल्प ढूंढ रहे थे, और हमारी पहचान के रहते हमने सुझाव दिया और केवलानंद जी हमारे विद्यालय में कार्यरत रहे। माननीय श्री हरीश रावत जी जो उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं,  कुछ उच्च पद शिक्षक ये सभी डॉर्बी जी की पिता के दुकान पर ही चाय पीने बैठा करते थे। हरी सब्जियों के शौकीन है डॉर्बी जी इतने साधन परिपक्वता के बावजूद भी आज हम हम लोगों के बीच सादा जीवन जीते हैं और और मिलजुलकर रहते हैं परिवर्तन शब्द का उन्होंने कभी अपने जीवन में उपयोग नहीं किया है। और हम लोगों की ही तरह यहां हर काम किया है जैसे हमारे साथ कई बार पानी की समस्या के कारण पानी की लाइन ठीक करने के लिए आते हैं, हर कार्य को अपना समझकर अहम योगदान उन्होंने दिया है, और आज वो इतने वर्षों बाद जब कमरा बदलने का विचार कर रहे थे क्योंकि सबसे बड़ी समस्या पानी और परिवार बढ़ने तथा कमरे छोटे होने के कारण मुख्य थे।काफी दिनों से विचार करके मुझसे कहना चाह रहे थे किन्तु कह नहीं पाए और एक दिन ऐसी बाहर बैठे उन्होंने मुझसे जब ये बात कही तो मैंने कहा की मुझे कोई समस्या नहीं है, आपको यहां कई समस्या हो रही हैं आपने विचार किया है उचित है आप जाना चाह रहे हैं आप जा सकते हैं मुझे कोई समस्या नहीं है ना ही कोई शिकायत है आप के इस निर्णय से हालांकि मैं जानता था कि मेरा मन इस हां के लिए कभी स्वीकृति नहीं देगा। मैं जानता था कि मैं भावुक हो रहा हूं लेकिन मैने नियंत्रण रखा था खुद पर मैं मेरे छोटे भाई को कैसे कुछ मना कर सकता था। लेकिन हां मैं चाहता था की डॉर्बी जी यहां से पदोन्नति के बाद ही जाएं, बहुत जल्द ही भगवान उनके इस कार्य को भी सफल बना देंगे। और अब वो यहां से हउली चले गए जहां मैं जीवनी लिखने के विषय में आपसे बात करने प्रथम बार मिली थी। वर्तमान में आप मेरे गांव के निवासी तथा राजकीय इंटर कॉलेज चौनलिया के पूर्व अध्यापक रह चुके श्री कुंदन सिंह नेगी जी जो अब इस संसार में नहीं है, उनके दूसरे घर जो उन्होंने अपने अध्यापक रहने के समय में सड़क पर बनवाया था वहां अपने नए कमरे में अपने परिवार के साथ रह रहे हैं।

 और ये सारा वृतांत सुनाने में असवाल जी भावुक हो गए थे और इस भावुकता को और न बढ़ाते हुवे मैंने उनका दूरभाष नंबर मांगा और फोन करने और फिर मिलने की बात कही और मैं वहां से चाची जी श्रीमती कमला चौधरी जी के पास आई। तब तक चाचीजी घास काटकर आ चुकी थी मैं उनके पास गई तो वे बोलीं आज तू कहां जा रही है यहां कैसे आना हो गया तेरा इतने समय बाद वो भी तो मैंने कहा भेजा गया है मुझे तो वरना मैं क्यों आती??आज के मतलब रखने वाले समय में मैं भी उन्हीं में से एक हूं, चाची हंसी और बोली चल अच्छा किया तू आई तो सही कैसे भी, फिर हमने हालचाल जाना फिर चाची ने चाय का आग्रह किया जो आप जानते ही हैं कि मैंने मना किया, फिर चाची ने जूस के लिए कहा तो मैंने कहा की आप ले आइए लेकिन थोड़ा, चाची अंदर गई मैं बाहर बरामदे में बैठी उनकी पालतू बिल्ली मीनू से खेल रही थी चाची ने गिलास थमाते हुवे कहा ले पहले जूस पी ले फिर और काम मैंने देखा लाल जूस जो बुरांश के फूलों का था (बुरांश। जो हमारे उत्तराखंड में कुमाऊं में बहुत प्रसिद्ध फूल है) इसका रस सेहत से जुड़ी कई चीजों में गुणकारी और लाभदायक है इसकी सुंदरता अपने आप एक मिसाल है। हमारे पहाड़ में हिंदू नववर्ष के दिन यानी कि चैत्र माह की प्रथम तिथि को एक त्योहार मनाया जाता है जिसे फूलदेयी कहा जाता है और इस दिन फूलों की टोकरियां भरकर बच्चे घरों घरों में सबकी देहलियों में फूल बरसाते हैं और उसके बदले हर घर से उन्हें चावल और गुड़ मिलता है, ये हमारा पारंपरिक त्यौहार है और इस दिन यदि बुरांश का फूल घर में आए तो वर्षभर के लिए वह शुभता और संपन्नता का प्रतीक माना जाता है।

 यात्रा को आगे जारी रखते हुवे मैंने और चाची ने साथ में बैठे जूस पिया और बातों में ही मैने उन्हें बताया कि मैं वहां उनसे मिलने क्यों आईं हूं , तो चाची ने सबसे पहले पूछा की मेरे पास किसने भेजा तुझे मुझे कहां ये सब बताना आएगा और मैं भी वही सब दोहराऊंगी जो असवाल जी ने या अन्य लोगों ने तुझे बताया होगा, क्योंकि गुरुजी तो सब जगह सब के लिए एक समान व्यवहार रखते हैं चाहे किसी ने उनका बुरा चाहा हो या भला उनके मन में ऐसे भाव ही नहीं देखे कभी की वे अपने बुरे चाहने वाले को बुरे ही ढंग से देखेंगे या स्वभाव रखेंगे। मैं क्या कोई भी व्यक्ति गुरुजी को नहीं दर्शा सकता मैं किसी से भी उनकी तुलना नहीं कर सकती यदि आज भगवान भी होते तो वे भी अच्छे के साथ अच्छा और बुरे को बुरा फल देते हैं,  लेकिन गुरुजी तो सबके लिए समान हैं मेरे पास शब्द ही नहीं हैं उनके बारे में बताने या कहने के लिए तो तू अपने तरीके से जैसे लिख रही है वैसी लिख देना। उन्होंने सभी को अपना परिवार माना है और परिवार के सदस्य समान ही सबके लिए उनका आचरण रहा है यदि शिक्षा दी जाए तो एक अध्याय गुरुजी होने चाहिए आज की पीढ़ी के लिए। चाची ने आगे बताया किस तरह यहां नियुक्ति होने के बाद एक वर्ष पश्चात उनकी शादी हुई जून में और उन्होंने अपनी पत्नी को भी काफी सहयोग किया जो आज शिक्षिका के पद पर नियुक्त हैं।

 एक बार ही मैंने उन्हे थोड़ा क्रोधित देखा था जब गुरुजी का बेटा विपुल साल भर या उससे कुछ उपर का रहा होगा, उनकी पत्नी की नियुक्ति अन्यत्र क्षेत्र में हुई थी जो हमारे क्षेत्र से दूर था और वे विद्यालय में कार्यरत हो चुकी थीं और छोटा विपुल पिता (गुरुजी) के साथ ही था, गुरुजी को एक सुबह स्कूल जाना था, वो तैयार हो चुके थे और निकलने ही वाले थे इतने में भी विपुल ने पजामा खराब कर दी शायद उसका पेट खराब रहा होगा, और स्कूल की देरी की वजह से उन्होंने बच्चे को एक थप्पड़ मारा और स्कूल को जाते समय मुझे सौंपते हुवे बोले इसका ध्यान रख देना स्कूल के अर्धविराम तक। और मैंने बच्चे का गाल देखा था जिस पर गुरुजी के हाथ की छाप पड़ी थी और पूछने पर बताया कि उन्हें देरी हो रही थी और काबू नहीं कर पाए अपने आप पर। वो दिन था और आज के दिन तक मैंने कभी उन्हें गुस्से में नहीं देखा है शायद एक बच्चे से मां का दूर होना वे समझ चुके थे। किंतु गुरुजी ने अपने बच्चे को बिलकुल भी मान की कमी कप एहसास नहीं होने दिया भरपूर प्यार से उसे उन्होंने विपुल को संभाला है, गुरुजी निश्चिंत होकर विद्यालय जाते बच्चों को कभी हम तो कभी असवाल जी देखते थे बिलकुल वैसी जैसी हमने अपने बच्चों का ख्याल रखा। और आज बच्चे बड़े हो गए हैं समय के साथ सब परिवर्तित हुआ है किंतु गुरुजी आज भी वही हैं जो वे प्रथम बार यहां आने पर थे। इसलिए मैं कुछ भी बयां नहीं कर सकती ज्यादा। मैं कितना भी बता दूं कम ही होगा।

 २००७ में गीताजी शिक्षिका पद के लिए चयनित हुई और अपने डेढ़ साल के पुत्र विपुल को उन्हें छोड़कर चौनलिया क्षेत्र से दूर देघाट (प्रसिद्ध नाम भिकियासैंण से कुछ किलो मीटर आगे) रा.उ.मा.वि. उपराडी जाना पड़ा। वे बताती हैं कि उन्हें घर की जिम्मेदारी को देखते नौकरी की अति आवश्यकता थी, और उन्होंने किसी भी तरह की नौकरी करनी चाही जिससे उन्हें कुछ सीमा तक मदद मिल सके, पहाड़ में न रहने चलने के बावजूद चयनित होने पर उन्हें किलोमीटरों की चढ़ाई करनी पड़ी थी। जो उनके लिए बेहद मुश्किल भरा हुआ था, किंतु आवश्यकता के आगे वे हरसंभव प्रयास करने को तैयार थी, उस बीच उन्हें किराए का कमरा भी बहुत आपूर्ति के साथ मिला था जहां उस समय छोटे फोन होते थे और सूचना तंत्र संजाल की कमी थी, जिससे उन्हें घर बात करने करने की भी परेशानी होती रही, वे कहती थी जब संपर्क करना आवश्यक होता तो उन्हें कमरे से एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता था, तब से विपुल अपने पिता अर्थात गुरुजी की ही देखरेख में ही पला बढ़ा। विपुल कहता है मैं पापा को अभी तक ज्यादा नहीं जान पाया हालांकि मैंने अपने पापा के साथ ही ज्यादा समय बिताया है, और मैं जितना जानता हूं वो है कि पापा का प्यार जो वे बहुत करते हैं लेकिन जताते नहीं है, पापा को गुस्सा आता है वे बचपन से लेकर अब तक प्यार से हर छोटी छोटी चीजों को बातों को मुझे प्यार से समझाते आए हैं। पापा मुझे बाइक से मेरे स्कूल छोड़ने आते थे जबकि बाकी बच्चे पैदल या बस से आया करते थे। मुझे मेरे पापा ने पढ़ाया भी है और इतने अच्छे से हर एक चीज को मुझे बताया है, हालांकि मैं खुद कभी पढ़ने नहीं गया पापा के पास, जब वे मेरी ही बराबर की कक्षा के बच्चों को पढ़ाते थे तो वे कहते थे कि तू भी साथ में बैठा कर और पढ़ा कर। लेकिन मैं कभी नहीं गया और पापा खुद आते थे मुझे प्रश्न बड़े विस्तार से समझा कर हल करवाते। मेरी माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा में मेरे पापा का बहुत बड़ा योगदान है। वो कहता है कि मुझे याद है किस तरह पापा स्कूल से थके हारे घर पर आते थे, और आकर मेरे लिए खाना बनाया करते प्यार से खिलाकर मुझे कभी भी वे अहसास नहीं होने देते थे कि वे थके हुवे हैं उन्हें आराम की जरूरत है, ना जाने कई बार पापा की तबियत थोड़ा खराब होती और वे परेशान होते किंतु उसके बावजूद बाकी के दिनों और उस दिन में मेरे लिए एक प्रतिशत भी प्यार कम नहीं होता था। पापा सच में किसी खज़ाने से कम नहीं होते उनके पास हर वो चीज रहती है जिसकी हमें कभी भी जरूरत पड़ती है तो वे मना नहीं कर पाते हैं।

 सिया और शिक्षिका जी से प्रथम भेंट..

 मैंने मैरिट (इंटर) कर लिया था, जब शिक्षिका गीताजी चौनलिया में आई, अर्थात मैं तब उनसे परिचित नहीं थी, शिक्षिका जी से मेरी पहली मुलाकात २६ जनवरी २०१५ में हुई। उससे पहले दो से तीन बार फोन पर बातें हुई थी जब नववर्ष में या त्योहारों पर शुभकामनाएं देने के लिए मैं गुरुजी को फोन करती थी। मैं और मेरी कुछ सहेलियां स्कूल की यादों को ताजा करने २६ जनवरी के कार्यक्रम देखने रा. इ. का.चौनलिया में गए, और तब सिया यानी मेरी प्यारी सी बहन और गुरुजी की पुत्री मात्र ४ माह की थी हमने थोड़ी देर कार्यक्रम विद्यालय परिसर से दूर सड़क पर बने एक घर की छत पर बैठ कर देखे थे, उसके बाद मैं बहन को देखने अपनी एक सहेली के साथ गुरुजी के घर गए तब शिक्षिका की खाट पर बैठी सिया को सुलाने की कोशिश कर रही थीं।मुझे लगा मेरे जाने से वो जाग न जाए और फिर परेशान करने लगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं मैंने शिक्षिका जी को अपना परिचय दिया तो वे तुरंत पहचान गई। थोड़ी देर बैठकर हम आ गए और उसके बाद वे चौनलिया के विद्यालय में ही कुछ समय कार्यरत रही, और वर्ष भर में उनका स्थानांतरण राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय सिरमोली में हुआ और तब से अब तक वे वहीं पढ़ाती हैं। तब से मेरा गुरुजी, शिक्षिका जी और भाई बहनों से मिलना जुलना होता रहता है। परिवार के बाद यदि किसी से अपनापन और लगाव हुआ है तो वो मेरे गुरुजी का परिवार है। आज विपुल ग्यारहवीं में तथा सिया चौथी कक्षा में पढ़ रही है।

शिष्यों का गुरु के प्रति आदर सम्मान, , ,

 अब आपको दीपक करगेती जी के बारे में बताते हैं जिनका जिक्र मैंने जीवनी में पहले भी किया वह कहते हैं कि गुरु जी को अपने कुमाऊनी भाषा से बहुत ही लगाव है तथा यहां की संस्कृति से जुड़ी हर छोटी बड़ी रीतियों को वह बखूबी से निभाना जानते हैं बात तब की है जब मैं ११वीं का छात्र था, और राजकीय इंटर कॉलेज भतरोजखान में भौतिक विज्ञान के शिक्षक नहीं थे और ना ही उस समय इतने छात्र हुआ करते थे जो विज्ञान वर्ग से मेरिट करते थे यदि अंशकालिक किसी को शिक्षक भी रखें भी तो छात्र कम होने की वजह से वह इस बात पर ज्यादा गौर नहीं करते थे अब मुझे चिंता थी कि मैंने विज्ञान वर्ग का चयन तू कर लिया लेकिन मैं अपनी पढ़ाई मजबूत कैसे बनाऊंगा कौन मुझे पड़ेगा और मैं कहां पढ़ने जाऊंगा। दाखिला होने के बाद कुछ दिन में स्कूल गया और एक दिन अपनी यह बात घर आकर पिताजी को बताइ की मुझे भौतिक विज्ञान कि शिक्षक नहीं मिल रहे हैं मैं पढ़ना चाहता हूं मैं क्या करूं तो पिताजी ने कुछ समय सोच विचार किया और फिर एक दिन गुरु जी से पूछा कि दीपक ने विज्ञान वर्ग से मैरिट उत्तीर्ण करना चुना है और इस निर्णय को सफल बनाने के लिए ये कठिनाई आ रही है तो कोई उपाय दीजिए,  पापा का यह पूछना था और गुरुजी का उतने में ही जवाब आया कि मामाजी जब तक मैं हूं आपको चिंता करने की क्या आवश्यकता है आप इसे मेरे पास भेज दीजिएगा मैं से पढ़ा दूंगा मुझसे जितना होगा मैं उतना समय इसे दूंगा इससे अच्छा समय और क्या होगा कि मुझे मेरी गुरु दक्षिणा देने का शुभ अवसर प्राप्त होगा,  आप निश्चिंत हों जाएं। गुरुजी ने कहा नैनिहाल की तरह से पहचान होने और गुरु जी को बचपन में मेरे पिताजी ने पढ़ाने तथा हर संभव उनकी मदद करने के लिए जो कृपा मुझे पर की है उस ऋण तुम्हें आजीवन नहीं चुका पाऊंगा किंतु गुरु दक्षिणा के रूप में तुम जब तक चाहो मेरे पास आकर कभी भी किसी भी समस्या को लेकर पूछ सकते हो और में हर वह प्रयास करूंगा कि तुम्हें तुम्हारी समस्या का समाधान मिले और आगे कोई कठिनाई ना हो। मैं सुबह पांच बजे उठ जाता करीबन डेढ़ से दो घंटा मुझे नूना से चौनलिया जाने में लगता, मैं उनके कमरे पर जाता और वे सारा अपना काम छोड़कर मुझे पढ़ाने लगते और पढ़ने के बाद मैं वहां से भतरोजखान स्कूल के लिए चला जाता था। जब तक गुरु जी मुझे पढ़ाते तब तक एक गुरु और शिष्य का नाता होता था लेकिन पढ़ने के बाद वह अपनी कुमाऊंनी भाषा में ही मुझसे मेरा मेरे घर वालों और अपने नैनिहाल वालों का हालचाल जाना करते। मैं इंटर अच्छे अंक तालिका के साथ पास हुआ तो इसमें जो अहम योगदान है वह गुरुजी का है और उसके पश्चात भी जब मैंने इंजीनियरिंग करनी चाही तभी मुझे कोचिंग की जरूरत थी और मुझे कोई ज्ञान नहीं था कि मुझे किस तरह और कहां कहां अपनी पढ़ाई की शुरुआत करनी चाहिए तो फिर मैंने एक बार पिताजी को बताया और पिताजी ने फिर से गुरु जी से पूछा तो गुरु जी ने मुझे सुझाव दिया कि उनके पहचान में अपने दोस्त हैं हल्द्वानी में तो आप मेरा नाम लेकर मेरी पहचान से ही वहां जाइए और अपनी पढ़ाई शुरू कर दीजिए कहीं कोई समस्या आए तो बेझिझक होकर मुझे बताइएगा उस समय अनुशिक्षण केंद्र भी कम होते थे या यूं कहो उपलब्ध ही नहीं होते थे और मैं हल्द्वानी गया वहां मैंने कोचिंग की और फिर से अच्छे अंकों के साथ मैंने अपनी इंजीनियरिंग पूरी की। गुरुजी ने मुझे हर छोटे और बड़े गांव विद्यालय के कार्य में सहायता की है और आज भी वे हमेशा तैयार रहते हैं सहायता करने के लिए मैंने कई बार बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की मुहिम को लेकर मैराथन दौड़ करवाई है जो भतरोजखान से शुरू होती थी और चौनलिया या उस से 1 किलोमीटर आगे हऊली पर समाप्त होती थी। इस कार्य में गुरु जी ने अधिक योगदान दिया कि प्रतिभागियों को किस तरह से सहयोग करना है उनका हौसला बढ़ाना है और किस तरह से निर्णय करना है यह सारे काम वह अपनी जिम्मेदारी पर करते थे और इसमें गुरुजी के सहयोगी भी हुआ करते थे श्री राजेंद्र सिंह बिष्ट जी,  और श्री भंडारी जी जो राजकीय इंटर कॉलेज चौनलिया के ही शिक्षक हैं और बराबर सहयोग गुरुजी के साथ मेरे इस कार्य को देते हैं। और गुरु जी मुझे आज भी पूछते हैं कि मेरे लायक कोई सेवा या सहायता चाहिए हो तो मुझे जरूर बताना मैंने अपनी जिंदगी में जितने भी कार्य अग्रसर होने के लिए किए हैं उसमें अगर मैं कहूं की अगर सफल हुआ तो मुझसे कहीं ज्यादा गुरुजी की भूमिका रही है। और यदि मैं अभी भी कुछ किसी भी विषय के कार्य संबंधित सहायता की मांग करूं तो मैं कहता हूं कि वे बिना किसी शंका के मेरी मदद करेंगे और मैं इस कार्य में सहायता कर पाया करके एक आरामदायक भाव उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देगा।

यह छात्र हैं मेरे विद्यालय पढ़ने से पहले समय के हैं, मेरे समय की मैं खुद हूं और भी अन्य शिष्य और शिष्याएं हैं, जो इसी तरह गुरु जी को अपना दर्पण मानते हैं मार्गदर्शक मानते हैं आजीवन उनकी तरह संघर्षरत और प्रयासरत रहने का निर्णय करते हैं। आगे मैं आपको एक शिष्या जो अभी के वर्तमान में चल रहे समय की है के बारे में बताने जा रही हूं.......

 उनका कहना है.. कि गुरु जी के मार्गदर्शन में मुझे यही नहीं पता चला कि मेरी जिंदगी का मूल्य कब ० शून्य में से १०० सौ में पहुंच गया। ऐसा पावन और शांत सरल हृदय जो हमें गुरु के रूप में मिला मैं धन्य हूं कि मैंने इन गुरु से शिक्षा ली है और अपने जीवन में अपना लक्ष्य को बनाया है, छोटी कक्षाओं में रहते हम पढ़ते तो हैं लेकिन शायद हमें उस अमूल्य विद्या का मूल्य पता नहीं रहता जिसे हम मित्र समझकर खेल कर लेते हैं। मैं आठवीं कक्षा में थी जब गुरु जी हमारी कक्षा में आए थे और अपना परिचय देने के लिए उन्होंने मेरा नाम लिया था जो कि मुझे पता नहीं था, , लेकिन मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी कि गुरु जी मुझे जानते हैं और उस दिन से गणित विषय की गाड़ी शुरू हो गई थी हमें समय लगा समझने में लेकिन जैसे-जैसे गुरुजी हमें पढ़ाते गए हम भी गुरुजी से सवाल जवाब करते थे जो उन्हें अच्छा लगता था कभी घर के लिए सवाल दिया होता तो मैं करके ले जाती और गुरुजी मुझसे से पूछते थे कि तुम ने काम किया है तो मेरे लिए यही शब्द सोने पर सुहागा का काम कर जाते थे और मेरी गणित विषय में रुचि बढ़ने लगी थी कई बार गुरुजी मासिक परीक्षा लेते और हम अंक जब सही नहीं लाते थे तो उन्हें कुछ सीमा तक दुख होता था लेकिन फिर भी उन्होंने हमें जोड़ों घटाओ से गणित सिखानी शुरू की हालांकि हम भी मेहनत करते थे और जहां पर नहीं आता गुरु जी से सवाल जवाब करते थे उसके बावजूद जब हमारे अंक कम आए तो शायद वे जान गए होंगे कि हम मेहनत कर रहे हैं अब मेहनत से ज्यादा उन्हें समझाने की जरूरत है और गुरुजी ने हमें समझाया कि तुम मेहनत तो आज करोगे समय दोगे सिर्फ एक बार लेकिन ये दोनों तुम्हारे आजीवन के लिए तुम्हारे मस्तिष्क पर निशान छोड़ देंगे कि तुम क्या हो???? बस फिर क्या था मैंने ठान लिया की जो उम्मीद हमसे गुरुजी करते हैं अब उस पर हमें खरा उतरना ही है जिसके लिए मैंने दिन-रात एक किया अपने हर विषय की पुस्तिका को मैंने गणित के सवालों से भर दिया था और जो प्रश्न मुझे परेशान करता उसे समझ में नहीं आने तक गुरुजी से बार-बार पूछती और मेरे मेहनत देखकर गुरु जी ने मजाक में एक बार कहा था कि क्या तुम्हारी माताजी तुम्हें लिखने के लिए और पुस्तिका नहीं दिला रही हैं जो तुमने अन्य विषय की पुस्तिकाएं सिर्फ गणित के प्रश्नों से भरी हुई है, लेकिन मेरा पूरा ध्यान अपने अंकों में परिवर्तन लाना था जो मैंने करके दिखाया और जब मेरा अंकपत्र आया तो गुरु जी ने मेरा नाम लिया उनके चेहरे पर प्रसन्नता को भाव देखकर मैंने दौड़कर को अपने गुरु जी के पैर छुए और जो हाथ मेरे सर पर उनके आशीष के रूप में पड़े मैंने अनुभव किया कि गुरु जी का व्यवहार कितना पाक पवित्र है उनका हृदय एक शीतल सरोवर की भांति है जिसकी परछाई भी अगर किसी पर पड़ी तो और शांति की अनुभूति करेगा। बचपन से ही आज तक गुरु में भगवान का रूप देखा है और गुरु को भी अपना मार्गदर्शक मान लिया है और मुझे विश्वास है कि गुरु की कृपा से मैं अपने लक्ष्य को पाने में एक दिन सक्षम हो जाऊंगी और गुरु जी को अपनी सफलता की बात बताऊंगी तो मुझे गुरु के चेहरे का भाव भोर होते ही सूर्य के निकलते लालिमा के समान दिखाई देगा। (मनीषा)।

 कुछ ऐसे छात्र भी हैं जो कहते हैं, गुरुजी अच्छे मिले थे लेकिन तब हमने पढ़ने और गुरुजी की मेहनत पर गौर नहीं किया। उन्हीं छात्रों में से एक संतोष रावत हैं जो मेरे सहपाठी रहे किंतु विज्ञान वर्ग से और रिश्ते से हम मौसेरे भाई बहन हैं। वो कहते हैं कि आज पछतावा होता है जब गुरु की इतनी मेहनत के बाद हम गांव देहातों में गाय चराते हैं और गुरुजी देखते हैं तो उनका दुख मालूम पड़ता है। गुरु तो बहुत मिले किंतु डॉर्बी सर जैसे कोई नहीं उनके पढ़ाने के समय तन मन स्वतः ही शांत हो जाता था, एक आदर सम्मान जो मैंने आज तक अपने अंदर किसी के लिए नहीं पाया वो डॉर्बी जी के लिए है और अमर रहेगा। उनकी कोशिशों के बाद भी हमने अपना समय आवारा पन में गंवाया है, मैने विद्यालय समय में कई बार डॉर्बी सर को अपने लिए कुछ सीमा तक चिंतित देखा है प्राय:जब अन्य विषयाध्यापक को मुझसे शिकायतें होती थी वे मुझे तरह तरह की बातें सुनात लेकिन डॉर्बी सर चुपचाप सुनकर बिना किसी प्रतिक्रिया के वाहन से उठ जाते थे, जैसे उन्हें पता था कि मैं सुधरने वाला हूं नहीं। यह बात गुरुजी भी भलीभांति जानते हैं, गुरुजी आज जब भी मिलते हैं तो एक मुस्कुराहट के साथ नाम लेते हैं, खुशी होती है किंतु बुरा भी लगता है कि अगर गुरु की शिक्षा का मूल्य समझा होता तो आज नाम कई जगहों पर लिया जाता और गुरु का शीश गर्व से उठा होता। मेरी बहुत यादें डॉर्बी सर के साथ जुड़ी हैं।आज भी गुरुजी मेरे गांव से होते हुवे शिक्षिका गीताजी को छोड़ने गाड़ी दूसरे विद्यालय रा.उ.मा. विद्यालय सिरमोली जाते हैं और मेरा हाल जानते हैैं।

 ऊपर मैंने छात्र के द्वारा बताए गए वृत्तांत में श्री राजेंद्र सिंह बिष्ट जी का जिक्र किया है मैं बता दूं ये वो नाम है जिन्होंने हमें मैरिट में हिंदी विषय पढ़ाया था और बच्चों को काफी सहयोग उन्होंने विद्यालय समय में किया था, उनके पढ़ाने से लेकर खेल से संबंधित बच्चों के सपनों से संबंधित बच्चे चल रहे समय में किन परिस्थितियों से गुजरते हैं आगे जहां हर प्रकार के मोड़ हर समस्या का सामना करना पड़ सकता है जो जो भी परिस्थितियां उन्होंने देखी होगी उन सब का अनुभव उन्होंने बच्चों को गहराई से समझाया है और सही मार्ग दिखाया है विचित्र बात यह भी है कि वे गुरुजी के भी करीबी मित्र में से एक हैं और गुरुजी के लिए उनकी धारणा मैं आपको आगे बताऊंगी अभी वे गर्मी की छुट्टियों पर हैं और मैं मिल नहीं पाई हूं मुझे प्रसन्नता है इस बात की कि मैं अपने दो गुरुओं का आपसी वृतांत जो लंबे समय से साथ में हैं उसे जान पाऊंगी। 

 और एक माह बाद आज दिनों बाद की कोशिश पर मेरी बिष्ट सर से बात हुई, चाहती तो थी मैं उन गुरु से भी मिलकर और बैठकर आराम से वार्ता करूं। किंतु समय की स्थितियों ने साथ नहीं दिया और मुझे सर से फोन पर ही बात करनी हुई। गुरुजी आज भी वैसे ही हैं जैसा मैंने उन्हें बारहवीं कक्षा में पढ़ते देखा था, आज भी ध्यान से बात को सुनना और फिर उसे समझाकर सही से प्रदर्शित करने का तरीका बताना। गुरुजी मुझसे कहते हैं कि मैंने बिलकुल सही व्यक्ति का जीवन लिखने के लिए चयन किया है, आगे गुरुजी ने कहा कि अगर मुझे किसी किसी विशेष टिप्पणी पर बताना है तो ही मैं पूछूं, क्योंकि सामान्य तरीके से बताना तो न ये समझ आएगा कि कहां से और क्या बताऊं, और न ही मैं सब कुछ बता पाऊंगा, क्योंकि उस व्यक्ति में खूबियों की कमी नहीं है, जो मैं याद करूं और बता सकूं। डॉर्बी जी सामाजिक, आर्थिक और व्यवहारिक तीनों ही रूप से सर्वश्रेष्ठ और सर्वगुण सम्पन्न जिसे कह सकता हूं वो व्यक्ति हैं। गुरुजी कहते हैं जितना समय से मैं उनके साथ हूं उतना ही समय तुम्हें यानि कि मैं स्वयं को हो गया है, और मुझसे कहीं एक मित्र से ज्यादा एक शिष्य जितनी जल्दी गुरु को पढ़ता समझता है उतना कोई भी नहीं समझ सकता है। डॉर्बी जी बहुत ही भावुक इंसान हैं, हर छोटी से छोटी चीज वो दिल से लगा लेते हैं और रोने लग जाते हैं। कोई नाटक दृश्य भी यदि चल रहा हो और वहां कुछ पल भावुकता से भरे कोई किरदार निभाए हमारे गुरुजी वहां पर भी रोने लग जाते हैं। मैं तो कुछ पल के लिए किसी की सहायता ना भी करूं बिना स्थिति को जांचे किंतु डॉर्बी सर सबसे आगे वहां खड़े होंगे भले ही सामने वाला व्यक्ति अंजान हो और आपको मदद के नाम पर मूर्ख बनाने की मनसा से आया हो। बहुत ही सहयोगी पुरुष हैं मैंने अपनी जिंदगी में इतना भावुक और सहयोगी व्यक्ति नहीं पाया। जब से जानता हूं तब से अब तक डॉर्बी जी ने सहायता के लिए समय का विचार नहीं किया, रात में भी विद्यालय से सबंधित या समाज से संबंधित यदि कोई कार्य हो वो उन्होंने किया भले ही उस कार्य की जानकारी हो ना हो। मैं कर सकता हूं ये आत्मविश्वास उनका साहस बना रहा है। गुरुजी ने आगे बताया एक बार की बात है जब रात के समय हमारे नजदीकी क्षेत्र में सड़क हादसा हुआ था, सामाजिक तौर पर हम जिन्हें जानते थे और उनका घटना स्थल पर मुश्किल में होना, गुरुजी को पता चला उन्होंने रात को मुझे फोन पर बताया, और हम दोनों उसी समय घटना स्थल गए अपनी गाड़ी से पहुंचे, उन परिचित को पाया और उन्हें प्राथमिक उपचार के लिए भतरोजखान ले गए तथा रात के १२ बजे करीब वापस अपने कमरे पर लौटे थे, और न जाने कई ऐसे कार्य होंगे जो डॉर्बी जी ने किए हैं, जितनी सराहना की जाय कम होगी। गांव समाज के किसी भी तरह का निमंत्रण नहीं छोड़ते, सभी की खुशियों में सम्मिलित होना डॉर्बी जी की खूबी है।

 गुरुजी का अब तक का जीवन वृतांत मैंने आपको कहानी में बताया है, आपका सहयोग मुझे इस कहानी को आगे बढ़ाने और जीवनी का दूसरा अध्याय लिखने के लिए प्रेरित करेगा।

         अनुराधा नेगी।


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