उजाले की ओर
उजाले की ओर
“कौ...न हो ? अरे, जबरदस्ती क्यों घुस रहे हो ? बाहर निकलो, मेरी आँखें फट रही है।”
“मैं....प्रकाश।”
“ कौन..?? ..यहाँ तुम्हारी जरूरत नहीं है। ”
“ वाह! अजीब आदमी है। प्रकाश से जीवन चलता है और यह मुझे अंदर घुसने से मना कर रहा है ! हे भगवान ..यहाँ तो घुप्प अँधेरा है, हाथ का हाथ नहीं सूझता!” बिना अनुमति के प्रकाश कमरे के अंदर प्रवेश कर गया।
“मुझे इसी तरह अच्छा लगता है, ऐसे ही रहने की आदत हो गई है।” अंधेरा बुदबुदाया।
“अरे...यार...... समझा कर। हमारी आँखें भी उजाले में ही काम करती हैं अंधेरे में नहीं।”
“मुझे रोशनी-वोशनी का काम नहीं पड़ता। हाथों को सब मालूम रहता है, कहाँ क्या है। फौरन तुम यहाँ से दफा हो जाओ।” उसे अपने करीब आते देख, अंधेरा गुस्से से उबल पड़ा।
लेकिन, प्रकाश बेधड़क आगे बढ़ता गया। कमरे के अंदर का नज़ारा देखकर वह भौचका रह गया, कहीं लुट-खसौट का माल बिखरा पड़ा था तो कहीं शराब की बोतलें ! ओह ये क्या?! यहाँ कोने में महिलाओं के आबरू की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है ! क्रोधाग्नि में जलता हुआ प्रकाश ने अपना विराट रूप धारण कर लिया।
अँधेरा को अधिक बर्दाश्त नहीं हुआ, कोई उसी के घर में आकर उससे ही जबरदस्ती करे! तमतमाते हुए वह प्रकाश को जोर लगाकर पीछे ढकेलने लगा। दोनों में घमासान छिड़ गया। आखिरकार अंधेरा .. लड़खड़ाकर धड़ाम से गिर पड़ा।
गिरते ही वह चीखा , "बचाओ ...."
“क्या हुआ...दोस्त ?” पुचकारते हुए, प्रकाश उसे उठाने लगा।
“कमरे में बहुत घुटन महसूस हो रही है..मेरा दिल घबरा रहा है ! अभी,अचानक इन औरतों के चेहरे पर मुझे क्यों असहनीय पीड़ा दिखाई पड़ रही है ?” वहीं बिखरे पड़े कपड़ों से औरतों के आबरू को ढकता हुआ, कमरे के सभी दरवाज़े को खोल,व ह बेतहाशा बाहर सड़क पर भागने लगा।
कमरे में अब अंधेरे का नामो-निशान नहीं था।
तभी तालियों की गड़गडाहट के साथ अचानक पिक्चर हॉल की बत्तियां जल उठीं।
टिप्पणी-- मैं इस लघुकथा में अंधेरे और प्रकाश के प्रतिकात्मक रुप के माध्यम से अंधेरे में हो रहे कूकर्मों को उजागर करने का प्रयास किया है। आखिर में, अंधकार के ऊपर प्रकाश की विजय होती है।