ट्रिन-ट्रिन
ट्रिन-ट्रिन


70 वर्षीय सुधाजी अपने पती रामबाबु के साथ गाँव में रहती थी, उनका इकलोता बेटा राहुल दूर शहर में अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रहता था। राहुल और उसकी पत्नी निशा शहर में एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करते थे, छुट्टिया मिलने पर वे भी अक्सर गाँव आ जाते थे और माता-पिता से साथ चलकर वही रहने का अनुरोध भी करते थे, किन्तु सुधाजी और रामबाबु कही और जाना नहीं चाहते थे, वे सोचते थे की उनका मन शहर में नहीं लगेगा तो हमेशा कोई न कोई बहाना बनाकर बात को टाल दिया करते थे।
कुछ समय पश्चात् रामबाबु की मृत्यु हो जाती है, उसके बाद सुधाजी अपने बेटे-बहु के साथ शहर चली जाती है, किन्तु वह वहां की जीवनशैली को देखकर बहुत आश्चर्यचकित होती है।
वहां उसे लगता है की सब कोई अपने मोबाइल में व्यस्त है, किसी के पास भी एकदुसरे से बात करने का समय नहीं है, और तो और उनका 7 साल का पोता धेर्य भी हरवक्त मोबाइल ही देखता रहता है, वह न तो किसी से बात करता है, न ही कोई खेल खेलता है जैसे केवल मोबाइल ही उसकी दुनिया हो और जिंदगी में मोबाइल के खेल के अलवा उसने कोई और खेल तो खेलना ही नही सीखा हो|
धीरे-धीरे धेर्य की मोबाइल की लत बढ़ जाती है, अब वह ढंग से सो भी नहीं पाता है,ऐसा होते होते एकदिन धेर्य मानसिक बिमारी का शिकार हो जाता है, अब धेर्य के माता-पिता उसके इलाज के लिए हॉस्पिटल के चक्कर लगाते है| ये सब देख सुधाजी को मन ही मन बहुत दुःख होता है,
वह अकेली एकांत में बैठी बैठी आंसू बहा रही होती है और तभी विचार करते करते वह जीवन के उस दौर में पहुँच जाती है, जब घरों में एक ही टेलीफोन हुवा करता था और उसकी घंटी की आवाज हर किसी के मन में बसी होती थी।
टेलीफोन की आवाज सुनते ही जैसे सबके मन में लहरे उठने लग जाती थी, सब कोई उसे उठाने के लिए दौड़ पड़ते थे और लाइन में बैठ कर अपनी बारी का इन्तजार करते थे।
उस समय जो फोन में बात करने का उत्साह हुवा करता था, उसका एक अलग ही आनन्द था और अगर किसी एक के लिए खास फोन हो तो उत्साह से आवाज लगाकर बुलाने का भी एक अलग ही अंदाज हुवा करता था। उस समय फोन का इस्तेमाल केवल बात करने के लिए ही हुवा करता था। तभी सहसा सुधाजी चोक उठती है और अब वह धैर्य के हॉस्पिटल से घर वापस आने का इन्तजार करने लग जाती है।