ठेस
ठेस
आखिरकार आज उसकी वो पेंटिंग पूरी हो गई थी। सबसे छिपाकर अपने रूम में कितने दिनों से वो उसे साकार करने की कोशिश कर रहा था।
उसकी कोई तस्वीर भी तो नही थी उसके पास। बस आँखों के कैमरे से दिल पर छप गई थी उसकी वो दो खूबसूरत आँखें। आँखों के बाद अपने आप उसका चेहरा बना पाया था वो।
पहली बार जब उसे पेंटिंग क्लास में देखा था, बस उसी पर नज़र रुक गई थी। वो कैनवास पर कुछ उतार रही थी, लेकिन उस दिन इसका कैनवास खाली रह गया था। नज़रें उस पर से हटी ही नही थी उस दिन।
एक दो बार की बातचीत में ही उसने उसे दीवाना बना दिया था। आज वो आनेवाली थी घर पर, उसकी सीक्रेट पेंटिंग देखने। कितना ख़ुश था वो। बार बार अपनी ही बनाई पेंटिंग को देख, उसमें कोई कमी तो नही रह गयी, देख रहा था।
वो आई और पेंटिंग देखकर हैरान रह गयी।
आज बिना वक़्त गवाएं, पेंटिंग के साथ साथ अपने दिल में बसी उसकी तस्वीर भी उसे दिखाना चाहता था। बस सीधे सीधे अपने प्यार का इज़हार कर बैठा वो भी।
वो कुछ कहना चाहती थी, फिर रुक गयी और फिर बस इतना कहा,
"क्या हम बस अच्छे दोस्त बनकर नही रह सकते" ?
उसकी बात सुन वो चुप हो गया था। ज़िंदगी के कैनवास के सारे रंग बिखरकर कैनवास से मिट गए थे और कैनवास रह गया था कोरा, बिल्कुल सफेद कोरा...
वो चली गयी। उसके पास रह गई बस वो उसकी पेंटिंग। वो उसे भी दूर कर देना चाहता था। एक प्रदर्शनी में दे दी। प्रदर्शनी में रखते वक़्त कोई शीर्षक तो देना ही था उसे।
उसने उस पेंटिंग को शीर्क दिया, "ठेस"!!!
ज़िंदगी के हसीन राहों में लगी एक ठेस ही थी वो, जो जिंदगी भर के लिए एक ज़ख्म छोड़कर चली गयी थी औऱ इसने भी तो उस ज़ख्म को ज़िंदगीभर भरने नहीं दिया था........

