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Arun Gode

Romance Others

3  

Arun Gode

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तीन कुंवारीयाँ

तीन कुंवारीयाँ

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       एक साधारण परिवार का लड़का परिस्थितियों से लोहा लेते –लेते अपनी शिक्षा पुरी करने के बाद, कई स्पर्धा परीक्षाओं से गुजरते हुए, उसे एक स्पर्धा परीक्षा में सर्व प्रथम सफलता मिलती हैं। इस सफलता से वह और परिवार बेहद खुश हो जाता हैं। यह उपलब्धि उसे और परिवार के लिए आसमान को छू लिया जैसी थी। आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत करने के बाद उसे पर प्रांत के शहर में नियुक्ति मिलती हैं। यह उसके लिए एक आनंद भरी घटना थी। लेकिन व थोड़ा परेशान भी था। जीवन में पहिली बार, वह अपने परिवार से अलग हो रहा था। उसकी तैनाती भी उसके जन्म गांव से कोसो दूर हुई थी। यह सफलता उसके लिए उलटी गंगा बहाना जैसी थी। मानो कोई किल्ला फतेह किया हो। उसने साहस जुटाते हुये तैनाती की जगह जाने का ठोस निश्चय किया था। अपने निर्णय को अगली-जामा पहनाने के लिए उसने पुरी मानसिक तैयारी कर ली थी। उसे केंद्र सरकार में नौकरी लगने से अपने राज्य से हिंदी भाषी राज्य में कार्यरत हो जाता हैं। नई जगह होने से वो थोड़ा सा सहमा-समासा और डरा हुआ था। संयोग से वहाँ एक उसी के राज्य का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी पहिले से तैनात था। पाणी से खून गाढ़ा होता हैं। हम भाषी होने से दोनों के दिल में थोड़ा सा अपना पण था। उस कार्यालय में कार्यालय के अपने कवार्टर नहीं थे। सभी कर्मचारी क्रियायें के घरों में शहर में रहते थे। वो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, उसे मकान क्रियायें से दिलवाने में मदद कर रहा था। वह काफी दिनों से वहां होने से उसकी अपने समाज में जान पहचान हो चुकी थी। अचानक हम किसी रास्ते से जा रहे थे। उसे एक परिचित मिला था। वह उसी राज्य का रहवासी था। उसने, उसके साथ जो अजनबी था। उसका परिचय करवाया था। उसने कहाँ साहब इस शहर में नये हैं । उनके लिए मकान ढूंढ रहा हूं। उसके किसी परिचित साहब का मकान खाली था। उसने उस मकान का पता बताया था। उसे देखने का सुझाव देकर चला गया था।  उसे आप इन्हें दिखा सकते हैं कह के नौ-दो –ग्यारह हो गया था। साथ में उसने कहाँ आप के समाज का एक परिवार भी वहां रहता हैं। इसकी सूचना भी दी थी। । फिर हम दोनों उस मकान को देखने गये थे। मकान देखते- देखते हम कुछ बातें अपनी भाषा में थोड़ी ऊंची आवाज में बोल रहे थे। दीवारों को भी कान होते हैं, ये भूल चुके थे। आजु –बाजु में थोड़ा सा सन्नाटा था। इसलिए हमारा संवाद उस परिवार के कुछ सदस्य सुन रहे थे। चर्चा करते-करते हम मकान देखने के बाद बाहर आये थे। उत्सुकता वश परिवार की बड़ी लड़की, बाहर आई थी। मेरे साथ जो जनाब थे। उसका उनके साथ परिचय था। इसलिए उसने उसके तरफ देखा और पुछा, काका इधर कैसे ?। उसने फिर मेरे साथ उसका परिचय करवाया था। मुझे भी थोड़ी अलग राज्य में मेरी जुबान वाला परिवार होने से मुझे वह मकान लेना उचित लगा था। मैंने मकान मालिक से चर्चा की थी। बात करके क्रिराया तय हुंआ था। मैंने उन्हे कुछ अग्रिम राशी भी दी। इस तरह मैंने वहाँ अपना ठियाँ गाड दिया था।

        फिर दूसरे दिन, मैं कुछ सामान के साथ वहाँ पहुंचा था। मेरा कार्यालियन सहकर्मी भी मेरे साथ था। उसकी पहचान होने के कारण, एक दुकान से हमने कुछ अग्रिम देकर एक लोहे पलंग और गद्दा-रजई ली थी। खाने का बाहर और सोने का मकान में इंतजाम हो चुका था। धीरे-धीरे अगल- बगल के परिवारों से जान-पहचान बढ़ रही थी। ह्मभाषिय चाचाजी के परिवार में तीन कुंवारी लड़कियाँ , उनका बड़ा भाई और माताजी थी। घर का बड़ा लड़का वो भी कुंवारा था। वो राज्य सरकार के दफ्तर में कार्यरत था। चाचाजी राज्य के लोकनिर्माण विभाग से कुछ ही महीने पहिले सेवानिवृत्त हुए थे। अभी तक उनका पूरा परिवार विभाग के आवासीय कॉलोनी में रहता था। चाचाजी, कुछ ज्यादा ही ईमानदार होने के कारण, लोकनिर्माण विभाग में प्रशासनिक इकाई में महत्व पूर्ण सिट पर काम करते हुए भी अपना खुद का मकान नहीं बना पायें थे। इसलिए वे किराये के मकान में रहते थे। सेवानिवृत्ति का पैसे मिलने पर अपने मकान का काम शुरु करने वाले थे। पहचान होने पर ये सब बातें मालूम पड़ी थी। चाचा के घर में एक जवान लड़के का फोटो लगा था। परिवार के सदस्य, उस सबसे बड़े बेटे के संबंध में बारी-बारी से एक- एक करके बता रहे थे। उनकी दर्द भरी बातें सुनकर मैं भी भावुक हो गया था। मेरे भी आँखें नम हो गई थी। उन सभी की आठ-आठ आंसू निकल आयें थे। अंत में चाचा ने कहाँ होनी को कौन टाल सकता हैं!। दुनिया एक बड़ा रंगमंच है। हम सब उस प्रकृति के किरदार मात्र हैं। यहाँ हर कोई अपना किरदार निभाने आया हैं। जिस किरदार काम या कर्म खत्म हो जाता, वह दुनिया छोड़ के चले जाता हैं। उनके हाँ में हाँ मिलाकर उनके ऐसे साहसी, ऊंचे विचारों से मैं काफी प्रभावित हुआ था। उनके सबसे बड़े बेटे की स्कुटर दुर्घटना में राज्य के राजधानी में काम से लौटते समय मृत्यु हो चुकी थी।

            शायद पुरा परिवार अभी इस भयानक हादसे से उबर नहीं पाया था। चाचा, चाची और लड़का सफेद चमड़ी के रोग से पीड़ित थे। उनका यह रोग काफी फैल चुका था। तीनों लड़कियों को वैसे यह रोग बाहर के अंग पर दिख नहीं रहा था। परिवार की अन्य तीन लड़कियों में से सबसे बड़ी लड़की ने, मातोश्री वृद्ध होने के कारण अपनी शिक्षिका की नौकरी छोड़ दी थी। वह माँ के साथ घर संभाल रही थी। बातों- बातों, मैंने उसे कहाँ, जो कमाता नहीं उसकी कोई इज्जत नहीं करत। माँ-बाप भी नहीं करते। उसे थोड़ी मेरी बात जरूर अटपटी लगी थी। लेकिन उसे पता था कि यह एक सच्चाई हैं। अन्य दो लड़कियाँ निजी स्कूल में शिक्षिका थी। वैसे तो तीनों लड़कियाँ सुंदर थी। लेकिन सबसे छोटी लड़की, जो उस लड़के से लग-भग दो साल से उम्र में बड़ी थी। एकदम दुबली –पतली, गौरी-चिट्टी ऊंची-पुरी थी। उसे अपने रंग का बड़ा अभिमान था। कभी-कभी उसे देखकर, मैं मजाक में कहता, गोरे रंग पर इतना गुमान मत कर, गौरी, ये गोरा रंग तो एक दिन ढल जाएगा !। उतर जाएगा। उसकी दोनों बड़ी बहनें यह गाना सुनकर खुश हो जाती थी। क्योंकि इस गोरे रंग के कारण उसका मिजाज सातवें आसमान पे चढ़ा रहता था।। दो अन्य बहने थोड़ी सी निम्म गौरी थी। लेकिन बीच की लड़की, साँवला रंग होते हुये भी नाक- नक्शे की बनावट काफी अच्छी थी, शायद खुदा ने उसे फुर्सत में बनाया होगा। सबसे बड़ी लड़की उम्र ज्यादा होने से तीनों में उन्नीस-बीस अंतर था। चाचाजी थोड़े धार्मिक विचार धारा के होने से, उनका अपना एक खयाल था। वक्त से पहिले, और किस्मत से ज्यादा, किसी को कुछ भी नहीं मिलता। लड़कियाँ बहुत सुशील थी। वे भी अपने पिता के तरह सोच रखती थी। उन्हें लगा कि जब समय आयेगा तब जीवन साथी अपने आप ही चाला आयेगा। सब्र का फल मिठा होता हैं।

      छोटी लड़की थोड़ी अन्य के मुकाबले तेज थी। वह उस नये लड़के से का भी खुल के बातें और मजाक भी करती थी। बीच -बीच मौका मिलने पर नयन मटका करने से भी नहीं चुकती थी। सजने-सँवरने पर मुझे देखकर इशारों में अपने दीदियों के सामने कैसे लग रही करके पुछा करती थी। दीदियों को देखकर में जोर से कहता बहुत ही सुंदर, अति सुंदर, फिर धीरे से कहता जैसे सुर्पंखां। सभी हँसने लगते थे। वह बुरा नहीं मानती थी। इसका राज वहीं जाने। शायद उसे वो इंद्र की परी कहना चाहता होगा ! लेकिन कह नहीं पाता होगा !। ऐसा उसे लगता होगा।  

        एक दिन, उसने उससे पुछा की कितनी तनख्वाह मिलती हैं। उसने खुले दिल से अपनी तनख्वाह बताई थी। तुरंत उसने अपनी सॅलरी भी बिना पुछे बताई थी। आँखों-आँखों में इशारों से कहाँ, कोई बात नहीं, जिंदगी आराम से चल सकती हैं। यहां वो लड़का अभी गंभीर हो चुका था। उसके इरादे समझ चुका था। परिवार में सफेद चमड़ी की बीमारी और वो उससे उम्र में बड़ा होने से वह बहुत दुविधा में था। शायद उसकी सोच थी कि मियां-बिबी राजी तो क्या करेगा काजी। लड़का अच्छे परिवार से होने के कारण उसके नियत में कोई खोट नहीं थी। वो यहाँ रोजी-रोटी के लिए आया था। अपने पैरो पे खड़ा होना चाहता था। उसके परिवार वाले उसके शादी के लिए दबाव डाल रहे थे। दो-चार रिश्ते भी आ चुके थे। लेकिन वह अपनी आर्थिक परिस्थिति ठीक होने तक शादी के लिए राजी नहीं हो रहा था। अभी –अभी तो उसने अपने होश संभाले थे। ऊँच -नीच को समझ रहा था। ऊँच -नीच को समझना चहता था। उसे जीवन में कुछ और भी करना था। लेकिन आर्थिक परिस्थिति के कारण हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। उसकी मंजिल कुछ और थी। लेकिन परिस्थितियां कुछ और संकेत कर रहे थी। घर उसे एक चिट्ठी प्राप्त हुईं थी। पिताजी के अस्वस्थ होने का समाचार की थी। वो इसलिए अपने उधेडबुन में काफी व्यस्त था।



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