ताई की पोटली
ताई की पोटली
जब एक एक करके मात्र तीन अदद उस बड़े से आंगन में लाकर रखे गए तो चारों बहुओं को यकीन ही नहीं हुआ कि यह सामान उनकी उस लखपति ताई सास का है जो ताऊ जी के गुजर जाने के बाद अब उनकी कोठी में अपना परमानेंट अड्डा बनाने वाली थीं।
भरे पूरे परिवार वाले ताई ताऊ जब सब बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए और जब आधुनिकता और प्रगति के चलते उनके सभी बच्चे शहर की तरफ पलायन करने लगे तो उन्होंने गांव के पैतृक मकान में ही बाकी की जिंदगी गुजारने का फैसला किया।
ताऊ जी शंभू नाथ के छोटे भाई यानी कि इन चारों बहुओं के ससुर साहब रामसहाय ने पूरी कोशिश करी कि उनके भैया भाभी अपनी बाकी की जिंदगी शहर में आरामदायक सुख सुविधाओं के साथ बिताए पर ताजी हवा और पशुओं के बीच रहने के आदी उनके भाई शेर आने को तैयार नहीं हुए।
वह तो कभी शहर नहीं आए पर रामसहाय अक्सर अपने भाई के पास सपत्नीक घूम आया करते थे।
जब शंभू नाथ ने संसार को अलविदा कह दिया तब रामसहाय ने उनके बच्चों के फैसले की परवाह करे बिना भाभी को शहर लाने में क्षण भर भी नहीं लगाया।
अपनी सास मालती देवी से चारों बहुओं को यह तो समझ में आ गया था कि ताऊजी गांव में एक रुबाबदार व्यक्ति थे जो ना सिर्फ गांव में ढेरों जमीन रखते थे बल्कि अकूत संपत्ति के मालिक भी थे ऐसी में जब ताई सास अब इस कोठी में आने वाली थी तो चारों बहुओं की उत्सुकता चरम सीमा पर थी।
ताई सास के आने से पहले जब उनका नाम मात्र का सामान आगन में आकर रखा गया तब उनकी सास मालती देवी ने फुसफुसाकर कहा," छोटा मोटा सामान तो जीजी गांव से नहीं लाई है सब पैसा बैंक में जमा है शायद ...हां अपने गहने जरूर लाई होंगी"
बहुओं को सासू मां से यह भी पता चल चुका था कि कई किलो ज़ेवर है ताई सास के पास.... उन जेवरों की नक्काशी का इतनी सुंदरता से मालती देवी ने अपनी बहुओं के सामने वर्णन करा था कि सुनते सुनते ही चारों बहुओं के मुंह में पानी आ गया था।
वे सपने में उन जेवरों में सजे हुए स्वयं को अब अक्सर देखने लगीं थीं।
चारों बहुए अपनी सास से मंत्रणा कर ही रही थी कि तभी ताई सास अपनी बगल में एक बड़ी सी पोटली दबाए ससुर साहब के साथ आती दिखी.... सारे जेवर इसी पोटली में होंगे... चारों बहुओं ने आंखों आंखों में इशारा करा और आगे बढ़कर बारी-बारी से ताई सास के चरण स्पर्श करें।
अगली सुबह से नजारा बदला हुआ था।
सात बजे से पहले ना उठने वाली चारों बहुएं आज छः बजे से उठकर नहा धोकर रसोई में लगी हुई थी।
एक-एक करके चारों अलग-अलग सिर पर पल्लू रखकर ताई जी के पैर छूने गई। चारों ने बारी-बारी से चोर नजरों से देखा पोटली ताई जी के बिस्तर पर उनके तकिए के नीचे दबी हुई थी।
अब तो जैसे ताई जी को खुश करने की होड़ सी मच गई थी।
" लो ताई तुम्हारे भतीजे तुम्हारे लिए नई साड़ी लाए है अब तुम ये पहना करो" बड़की बहू ने पांच छः नई साड़ियां ताई जी के आगे रखते हुए कहा।
दूजे नंबर की बहू तेल की शीशी लिए चली आ रही थी "लाओ ताई तुम्हारे सर में तेल डाल दूं"
तीजी झट से कूदकर ताई जी के पैर दबाने बैठ गई थी और चौथी वह क्यों पीछे रहती वह तो अब तक हलवा बनाकर ले भी आई थी।
मालती देवी कि अनुभवी निगाहें सब देख रही थी कि किस प्रकार उनकी बहुएं गुड़ की मक्खी की तरह उनकी जेठानी के इर्द-गिर्द मंडरा रही थी।
ताई को पटाने में उनके भतीजे यानी कि बहुओं के पतिदेव भी पीछे नहीं थे.... चारों अपनी-अपनी तरह से ताई को खुश करने में लगे हुए थे कि वह प्रसन्न होकर अपने खेत उनके नाम कर जाएं।
बूढ़ी ताई अपनी सेवा और बच्चों की प्रेम से अभिभूत थीं।
दिन महीने और फिर साल बीतने लगे... ताई का बूढ़ा जर्जर शरीर ताऊ के जाने से नितांत अकेला हो गया था.... एक दिन वह भी आखिरकार इस नश्वर शरीर को छोड़कर पंचतत्व में विलीन हो गई और पीछे छोड़ गई अपनी अकूत संपत्ति और रहस्यमई पोटली।
उनका सामान एक अलमारी में बंद कर दिया गया ।
उनके अपने बच्चे आए क्रिया कर्म और तेरहवीं में शामिल होकर चले गए... ना उन्होंने अपनी मां के सामान के बारे में पूछा और ना इस घर के लोगों ने उन्हें कुछ बताया।
सब रीति से निबट कर जब ताई के सामान को खोलने का फैसला लिया गया तो सभी की निगाहें उस पोटली पर थी।
मालती देवी ने पोटली खोली। खुलते ही सबकी आंखें फटी की फटी रह गई।
सोने और माणिक्य से लदे जेवर तो क्या उसमें एक चांदी की चैन भी नहीं थी... चंद पुरानी पैवंद लगी सूती धोतिया, ताऊ के कुछ पुराने कुर्ते जो शायद निशानी बतौर ताई ने रखे थे , उनके बच्चों की चंद तस्वीरें और एक फ्रेम में जड़ी ताऊ ताई की बहुत पुरानी धुंधली पड़ी फोटो.... बस यही था उस पोटली के खजाने में।
निराशा.... घोर निराशा में डूब गया पूरा परिवार।
बहुओं के दिमाग में बस एक ही ख्याल आ रहा था खोदा पहाड़ निकली चुहिया।
एक-एक करके बड़बड़ाती चारों कमरे से बाहर निकल गई और पोटली के साथ छोड़ गई मालती देवी को।
अब पोटली को सीने से चिपकाए मालती देवी फूट-फूट कर रो रही थी.... वह बहुत पहले से ही जानती थी कि उनकी मां समान जिठानी के पास एक पाई भी नहीं बची थी ।
उनके बच्चे जेठ जी के जीते जी ही उन्हें संपत्ति विहीन कर गए थे... वह यह बात बहुत अच्छे से जानती थी कि अगर वह अपने घर में बहुओं को यह कह देंगीं की उनकी जेठानी खाली हाथ ही उनके यहां आ रही है तो फिर चारों में से कोई भी उनका ध्यान नहीं रखेगा। वह अपने पति के साथ अक्सर उनकी सहायता करने गांव जाती रहती थी और जेठ जी के गुजर जाने पर बड़ी मुश्किल से अपनी संकोची जेठानी को अपने यहाँ रहने को मना पाई थी।
पिछले तीन सालों में संपत्ति के लालच में ही सही उनकी जेठानी वह सब सुख भोग गई थी जिससे वह जीते जी वंचित रही थी और मालती देवी जानती थी कि झूठ बोलकर ही सही उन्होंने अपनी जेठानी को उनके हिस्से की कुछ खुशियां दे दी थीं।