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Shubhra Varshney

Inspirational

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Shubhra Varshney

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यह तो मेरा घर है

यह तो मेरा घर है

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तेज हवा के झोंकों ने वृक्षों की डालियों को हिला हिला कर ऐसा दृश्य उत्पन्न कर दिया था मानो देवासुर संग्राम चल रहा हो। बिजली की कड़क व पत्तों की करुण क्रंदन ने एक बार फिर कैलाश के घर लौटने की उदासीनता को चिंगारी दे दी थी।


प्रकृति का यह रूप और यहां की परेशानियां छोड़ कर ही तो गया था वह और आज इस मंजर में उसे वापस आना पड़ा।


जब से कैलाश ने अपने पिता जगत के द्वारा निर्मित उच्च आदर्श त्यागी व उनकी तैयार की धरातल पर कार्य न कर कर स्वयं के लिए कर्मभूमि तैयार की तभी से पिता पुत्र के बीच संघर्ष प्रारंभ हो गया।


यह द्वंद्व अपनी चरम सीमा पर तब पहुंचा जब कैलाश ने अपनी जन्मस्थली उस कस्बे को छोड़ शहर का रुख कर लिया।

तकनीकी क्षेत्र में अपनी शिक्षा समाप्त करने के बाद फिर उसने उस कस्बे से दूरी बना ली।


कैलाश के शहर गमन से अगर कोई सबसे ज्यादा प्रभावित ठीक तो बूढ़े दादा गोकुलनाथ। गोकुलनाथ ने अपना सारा जीवन जंगल से सटे उस कस्बे को ही समर्पित कर दिया था उनके मार्गदर्शन में ही जंगल का व्यवसाय अपने चरम पर पहुंचा था।

उनका पुत्र जगत पिता का अनुगामी बना और वन्य पदार्थों के साथ व्यवसाय कर जंगल के रंग में ही अपने जीवन के रंग बिखेरने लगा।


उस कस्बे से सटा जंगल बहुत घना था, प्रकृति की अनुपम सौंदर्य से तृप्त व अकूत प्राकृतिक संपदा से युक्त।

कस्बे के लोग भी जीविका के लिए जंगल पर ही आश्रित थे। प्रातः जंगल बाहें पसारे कस्बेवासियों को स्वागत करता दिनभर सभी फूल, फल, लकड़ी, छाल व गोंद आदि जमा करते। कुछ कस्बे के बाजार में बिकने जाता और कुछ गोकुलनाथ की देखरेख में शहर में बिक्री हेतु।


गोकुलनाथ पुत्र जगत के साथ उस कस्बे के सर्वांगीण विकास में तत्पर थे समय बदल रहा था और बदल रहे थे नई पीढ़ी के विचार।


कस्बे के कई नव युवकों ने परंपरागत व्यवसाय के ऊपर आधुनिक जीवन को चुना और वह कस्बा अपने खून व जोश की कमी महसूस करने लगा।


फिर स्वयं गोकुलनाथ का घर कैसे अछूता रहता। उनका हृदय पुष्प कैलाश तकनीकी क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त कर कस्बे से दूर चला गया।


अब वह गोकुलनाथ की रुग्ण अवस्था को सुनकर तीन वर्षों के बाद वापस आया था। उसके घर में पुनः प्रवेश के साथ मानो घर की आत्मा वापस लौट आई थी , गोकुलनाथ व उसके माता-पिता का शुष्क मुख प्रसन्नता व घर हलवे की सुगंध से महक रहा था।


प्रातः भ्रमण पर जाने पर कैलाशने ध्यान से देखा तो पाया जंगल में पेड़ काफी कम हो गए थे। जो जंगल आम, जामुन, देवदार व चीड़ से लगा रहता था अब वीरान लग रहा था।


फिर कस्बे में घूमने पर उसे पता चला कि यहां की आर्थिक व्यवस्था बिगड़ी हुई थी लोगों की आजीविका के लाले पड़े हुए थे।

घर लौटकर पिता से ज्ञात हुआ कि विगत वर्षों में कुछ 'प्राइवेट' संस्था ने आकर जंगल की कटाई शुरू कर दी थी। कस्बे वासी जो पहले वन्य पदार्थों की बिक्री से कुछ ही दाम पाते थे अब मोटे पेड़ों की कटाई से मिली मजदूरी से हुई मोटी कमाई से बहुत खुश थे।


गोकुलनाथ में काफी प्रयास किए उनको समझाने की पर वह नहीं माने। वन विभाग से भी संपर्क किया पर संस्था से आपसी सांठगांठ के चलते कटान की तरफ कोई सुनवाई नहीं हुई।


ज्यादातर पेड़ कटने के बाद जब काम हल्का हुआ तो मजदूरी भी कम हो गई। पेड़ कट गये तो वन्य पदार्थों का अभाव हो चला गया इस कारण कस्बे वासियों की आजीविका भी खतरे में पड़ गई थी।


कुछ कैलाश की अनुपस्थिति और कुछ कस्बे के बिगड़ते हालात ने वृद्ध गोकुलनाथ को बिस्तर पर ला दिया था।


अब तक इन सब बातों से अनभिज्ञ कैलाश का मन सारा वृत्तांत संदर्भित हो गया था दिन भर में घूम-घूम कर कस्बे का हालात देखता रहा और रात होते-होते वह तन से ही नहीं मन से भी बहुत थक गया था।


खाना खा रात को सभी सो गए पर थके होने के बावजूद व्याकुल कैलाश की आंखों से निद्रा दूर थी। रात के शांत वातावरण में उसे बाहर पेड़ो के टूटने की आवाजें आने लगी फिर अचानक बाहर कोलाहल मच गया।


सब तरफ जाग हो गया था पता चला तेंदुए ने बाहर सोते एक व्यक्ति पर हमला कर दिया था, अंधेरे में बस आवाजें मात्र सुनी जा सकती थी।


'बचाओ बचाओ' करते उस व्यक्ति की आवाज तो थोड़ी देर में शांत हो गई लेकिन अब कस्बे के लोगों की आवाज से क्षेत्र गूंज रहा था।


टॉर्च लाठी लेकर लोग दौड़ पड़े लेकिन कुछ हाथ नहीं आया, जंगल में और अंदर जाना उस समय खतरनाक साबित होता था तो लोग वापस लौट आए।


कैलाश घटना से स्तब्ध था घर आकर उसे पता चला पिछले दिनों जंगली जानवरों के हमले बहुत बढ़ गए थे।

सप्ताह पीछे कोई ना कोई व्यक्ति कभी तेंदुए और कभी हाथियों के द्वारा मारा जाता था। जंगली जानवर घर तक पहुंच रही थी और कभी-कभी किसी किसी का घर पूरा नष्ट कर दे रहे थे।


खड़ी गेहूं की फसल भी इन जंगली जानवर ने चौपट कर दी थी। जगत कई बार वन विभाग से लिखित शिकायत कर चुके थे तो कभी कबार थोड़ा मुआवजा उपलब्ध हो जाता , कभी गश्त बढ़ जाती पर समस्या का हल किसी के पास नहीं था।


अपनी जन्मस्थली से कैलाश दूर भाग रहा था और यहां समस्याएं मुंह बाए खड़ी थी। पूरी रात सोचकर सुबह वह निष्कर्ष पर पहुंचा और उसने पिता जगत से लोगों को एकत्रित कर बैठक बुलाने को कहा।


कस्बे के लोग स्वयं बहुत पीड़ित थे और समाधान चाहते थे। कैलाश को इन सब में रुचि लेते देख गोकुलनाथ के निर्जीव हुए शरीर में प्राण लौट आए थे और वह भी बैठक में आ गए।

दर्जनों लोग एकत्रित होकर समस्या का समाधान खोज रहे थे।


"वन विभाग से संपर्क कर इन तेंदुए व हाथियों को कस्बे से दूर भगा दिया जाए।" एक व्यक्ति का मत था।


"हां वन रक्षकों की संख्या बढ़ानी चाहिए।" दूसरा बोल पड़ा।


"सरकार तो सुनती नहीं हमें खुद जंगल की तरफ के हिस्से में कटीले तार लगाने चाहिए।" कैलाश का बाल सखा नीरज बोल पड़ा। उसकी बात का सब ने समर्थन किया।


सब कुछ ना कुछ सुझाव दे रहे थे। अब तक मौन बैठा कैलाश बोला, "पर इस ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता कि ऐसा क्यों हो रहा है, जब मैं यहां था तब तो ऐसा नहीं होता था।"


नीरज ने कहा, "अब जानवर बढ़ गये है और इसी कारण वह कस्बे में आ रहे हैं।"


अब तक चुप बैठे गोकुलनाथ बोल पड़े, "जानवर नहीं बढ़ रहे, बढ़ तो हम रहे हैं और हम ने उनका घर हथिया लिया है और उनका खाना छीन लिया है तो वह हमारे घर तक आ रहे हैं।"


सुनकर सब सकते में पड़ गए। कह तो सही रहे थे गोकुलनाथ।


कैलाश ने कहा, "विगत वर्षों में शायद यहां काफी परिवर्तन हुए हैं। शहर में तो हवा खराब हो चली है इसलिए सब लोग पेड़ लगाने को बढ़ावा दे रहे हैं पर मुझे तो यहां इसके विपरीत होता दिख रहा है।"


"तो तुम क्या चाहते हो हम लोग कमाई ना करें," एक व्यक्ति थोड़े रोष में बोला।


"अपने कमाई के साधन तो हम स्वयं नष्ट कर रहे हैं। पहले जंगल में उपलब्ध वन्य पदार्थ एकत्रित कर कर उन्हें बेचते थे और अब पेड़ों की कटाई के साथ हमने अपने कमाई के स्रोत की भी कटाई कर ली।" अब कहने की बारी जगत की थी।


कैलाश बोला, "हां पिता जी आप ठीक कह रहे हैं शायद।"


"तुम तो स्वयं यहां से पलायन कर गए थे और अब ज्ञान बांट रहे हो।", नीरज ने व्यंग्य करते हुए कहा।


कैलाश दुखी हूं उठा, "सही कहा मित्र मुझे अपनी शिक्षा समाप्त कर घर वापसी कर लेनी चाहिए थी।"


कस्बे के कुछ व्यक्ति बोल उठे, "अरे! इन सब बातों को सोचने का समय नहीं है, इस समस्या से कैसे निपटे यह सोचो।"


थोड़ा संयत हो कैलाश ने समूह की ओर रुख कर के कहा, "सर्वप्रथम तो हमें कस्बे की सुरक्षा करनी होगी। कटीले तार व बाड़ा लगाकर व रात में पहरा देकर मशाल जलाकर जानवरों को दूर रखना होगा।"


गोकुलनाथ ने कहा, "उन जानवरों के भोजन की भी व्यवस्था करनी होगी, इसके लिए जंगल के किनारे भूमि पर बांस व ईख की फसल लगाए जिससे हाथियों का समूह वही भोजन पा जाए, अंदर ना आए और जहां तक बात तेंदुए की है उसके लिए अभी फिलहाल वन रक्षकों की मदद लेनी ही होगी।"


यह सुनकर एक बुजुर्ग उत्साहित होकर बोल पड़े, "सही कहा बेटा, कटाई भी बंद करनी होगी और नए पेड़ भी लगाने होंगे।"


"जंगल फिर से हरा भरा होगा तभी हम लोगों के भी दिन फिरेंगे।" सभी कह उठे।


बात सभी को पसंद आई थी और अब एकजुट होकर सब अमल करने लगे।


कुछ दिन और रात में सजग रहकर जंगली जानवरों से बचाव किया गया, कटीले तारों से कस्बे को सुरक्षा दी और मशाल जलाकर जानवरों को दूर रखा।


ईख और बांस की फसल बो दी। और भी कई तरह के के पौधे लगाए गए। बसंत आते-आते रोपित पौधों में कोपले फूट पड़ी।

उजड़ा जंगल धीरे-धीरे हरा होने लगा। जंगल बसते बसते इसमें चिड़िया खरगोश और छोटे अन्य जानवर भी जैसे लौट आए।


गोकुलनाथ की सेहत में भी सुधार हो रहा था। कैलाश ने अपने तकनीकी ज्ञान से कस्बे के लोगों को आधुनिक खेती व उसकी बिक्री के सही तरीके से समझा दिए थे।


जंगल से सटी नदी को भी साफ रखने को प्रेरित कहा गया और उसमें कचरा डालने के सुझाव पर सब अमल करने लगे। विकास के साथ अन्य व्यवसाय भी कस्बे में धीरे-धीरे धीरे शुरू होने लगे।


धीरे-धीरे आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा था।


एक वर्ष बाद जब अपने लिए अवकाश के बाद कैलाश जाने लगा तो गोकुलनाथ की आँखो में खुशी के आंसू थे।


कस्बे के अन्य लोग उससे मिलने आए।


नीरज ने गले लगाते हुए कहा, "धन्यवाद मित्र नयी दिशा दिखाने के लिए। आते रहना..."


कैलाश ने कहा, "मैं हर महीने आने की कोशिश करुगां। बदलती तकनीक भी जरुर बताऊंगा। यहां तो आना ही है, मेरी जड़े जो जुड़ी है। यह तो मेरा घर है।"


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