Shubhra Varshney

Inspirational

3.8  

Shubhra Varshney

Inspirational

देशभक्ति का जज़्बा

देशभक्ति का जज़्बा

12 mins
343


भारत माता की जय"


"वंदे मातरम... वंदे मातरम"


" यह देश है वीर जवानों का

अलबेलों का मस्तानों का

इस देश का यारों क्या कहना..."


नन्हे नन्हे बच्चों के इन स्वरों से गूंजता वह जुलूस अपने पूरे शबाब पर चल रहा था... हाथों में तिरंगा लिए चलते उन नन्हे नन्हे बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था... कदमताल करते वे लगातार भारत माता की जय घोष करते हुए आगे बढ़ रहे थे।


मौका था ही इतना पावन... यह मौका था उस दिन का जश्न मनाने का ...भारत के स्वतंत्रता दिवस ,15 अगस्त, पर अपनी भावनाओं को खुलकर प्रदर्शित करने का।


हर वर्ष पंद्रह अगस्त पर प्रभात फेरी निकालते उन स्कूल के बच्चों को चॉकलेट और टॉफियां देना गौतम का प्रिय काम होता था लेकिन आज उसने सामने से उन्हीं स्कूली बच्चों का जुलूस आता देख अपने घर के दरवाजे को बंद कर लिया था और चुपचाप अपने कमरे में जाकर बैठ गया था।


उसे कमरे में यूं जाता देख कर बाहर बरामदे में नाश्ता कर रहे गौतम के पिता विजय आश्चर्य में उसकी मां रचना से पूछ बैठे थे कि उसे क्या हो गया था... आज 15 अगस्त का दिन था और गौतम खुशियां ना मनाए ऐसा वह पहली बार देख रहे थे।


"आप को तो सब पता है जी... मन दुखी है बेचारे का... धीरे-धीरे सामान्य हो पाएगा" बहुत धीरे से रचना बोली थी जिससे कमरे में बैठा गौतम सुन ना ले।


"अरे यूं घर में बैठकर मन सही नहीं हो पाएगा तुम्हारे लाडले का ...इससे कहो मेरे साथ होटल पर आए.... अब काम नहीं सीखेगा तो कब सीखेगा... कब से कह रहा हूं इन सब चक्करों को छोड़ दे और सीधे सीधे व्यापार में मन लगा लेकिन मेरी बात सुनता ही कौन है", नाश्ता कर उठ बैठे विजय ने जोर जोर से बोलना शुरु कर दिया था वह चाहते थे कि उनकी बात गौतम के कानों तक पहुंच जाए और वह उनकी बात पर ध्यान दे।


"आप भी ना बार-बार वही बात लेकर बैठ जाते हैं... एक दो वर्ष की बात और है करने दीजिए उसको तैयारी फिर तो उसे आपके साथ काम पर लगना ही है", रचना जैसे पति को समझाना चाह रही थी।


"हां हां पहले तुम्हारे लाडले के मन से देश के लिए कुछ कर दिखाने का जज़्बा तो कम हो जाए तभी वह कुछ और सोच पाएगा... पता नहीं किस पर गया है ...हमारे यहां तो इसकी सोच का कोई हुआ ही नहीं कि एक बात पकड़कर मन पर लगा ले" वाॅशवेसिन पर हाथ धोते विजय बड़बड़ा रहे थे।


"गया है क्यों नहीं परिवार पर ही तो गया है ...बिल्कुल उन्हीं की तरह सोच का ही तो है यह भी", अब तक दोनों पति-पत्नी का वार्तालाप सुन रही पास में ही तखत पर बैठी विजय की वृद्ध मां मंगला देवी के होंठ बुदबुदा उठे थे।


"आप चिंता ना करो गौतम जल्दी होटल पर आना शुरू कर देगा", मेज पर से प्लेट समेटती रचना कह ही रही थी कि उसने देखा गौतम बराबर में नाश्ता करने के लिए आकर खड़ा हो गया था।


कहीं गौतम ने उसकी बात सुन ना ली हो यह सोचकर रचना गौतम से नजर बचाकर वहां से हट गई थी।


विजय रचना से बोले ,"आज 15 अगस्त पर होटल के सामने पीएसी (प्रांतीय सशक्त बल) में आज रौनक होगी... सैनिकों के साथ उनका परिवार भी जमा होगा उत्सव मनाने तो आज होटल पर भी भीड़ रहेगी मैं चलता हूॅ"


पिताजी के होटल का स्मरण करते ही गौतम का मुंह कसैला हो गया था.... अपने सेना में जाने के सपने के सामने होटल का व्यवसाय उसके मन को दुखी कर देता था।


शांत गौतम नाश्ता करने बैठ गया था और उसे दुखी देखकर विजय ने उस समय उससे कोई बात ना करते हुए अपने प्रतिष्ठान, अपने होटल, की राह पकड़ ली थी।


रचना नाश्ते की प्लेट गौतम के सामने रख गई थी और गौतम धीरे-धीरे बेमन से नाश्ता कर रहा था।


पास बैठी गौतम की दादी मंगला देवी उससे प्यार से बोली," बेटा आज तू इतना दुखी क्यों है... आज तो तेरे प्रिय दिवसों में से एक दिवस है तो हमेशा की तरह बाहर जाकर अपने दोस्तों के साथ खुशियां क्यों नहीं मनाता?"


"क्या फायदा है दादी देश के लिए खुशियां मनाने का जब आप देश के किसी काम ही ना आ सको", कहते-कहते गौतम बहुत दुखी हो गया था और उसे एक बार फिर याद आ गया था कि वह अपने दूसरे प्रयत्न में भी एनडीए की लिखित परीक्षा में असफल हो गया था।


जब से गौतम ने होश संभाला था तब से दादी मां के मुंह से वीर सिपाहियों की कहानी सुनते सुनते और बैठक में लगी दादा जी की पदक प्राप्त करते तस्वीर को देख कर उसने भी अपना सपना बना लिया था एक सैनिक के रूप में देश की सेवा करने का।


इसके लिए उसने हाई स्कूल से ही तैयारी शुरू कर दी थी और अब उसे 12वीं पास करे हुए भी एक वर्ष होने आया था और दो बार एनडीए की परीक्षा देने के बाद भी वह असफल रहा था।


ऐसा नहीं था गौतम शारीरिक रूप से कमजोर था या फिर वह एक बुद्धिमान विद्यार्थी नहीं था लेकिन बात जब ग्रुप डिस्कशन की आती थी तो अपनी एग्जाम फोबिया प्रवृत्ति के चलते वह घबराहट के कारण अपना सही प्रदर्शन नहीं कर पा रहा था और लगातार दो बार से एनडीए की परीक्षा उत्तीर्ण में करने में असफल हो रहा था।


इसी कारण आज 15 अगस्त के पावन अवसर पर हंसते गाते बच्चों का खिलखिलाता स्वर उसे खुशियां देने के बजाय उसके जख्मों पर नमक लगाने का कार्य कर रहा था।


"तो क्या बेटा क्या सिर्फ सेना में भर्ती होकर ही देश प्रेम दिखाया जा सकता है... क्या आम नागरिक देश प्रेम की भावना से कोई कार्य नहीं कर सकता?... अगर किसी के दिल में देश प्रेम का सच्चा जज्बा होगा तो वह उसे देश के कल्याण में जरुर लगाएगा", मंगला देवी उसे समझाने का प्रयास कर रही थीं।


"यह सब कहने की बातें हैं दादी.... अगर सेना में ही भर्ती ना हो पाए तो कैसे देश के काम आएंगे", कहते हुए एक बार फिर गौतम बहुत दुखी हो गया था।


मंगला देवी समझ गई थी कि गौतम को समझाना मुश्किल होगा उन्होंने उससे कहा कि उनके घुटनों में दर्द हो रहा है... वह उन्हें आज पार्क में घुमाने ले चले।


थोड़ी देर में गौतम दादी मां को लेकर पार्क में आ गया था स्कूल की छुट्टी जल्दी होने के कारण होने पार्क में झंडा लेकर घूमते खेलते बच्चे गौतम को जैसे मुंह चढ़ा रहे थे ...वह उनकी तरफ पीठ फेर कर बैठ गया।


गौतम को ऐसा करते देख दादी मां मुस्कुरा कर बोली," अच्छा गौतम तुम्हारा मानना है कि देश प्रेम तुम सिर्फ तभी दिखा सकते हो जब तुम सेना का प्रतिनिधित्व करो.... अच्छा बताओ तुम्हें पता है अपने दादा जी के विषय में कुछ.... क्या करते थे वे"


" क्या दादी आप भी फिर जैसे मुझे ही चिढ़ा रही हैं... बचपन से ही बैठक में लगी उनकी पदक लेती तस्वीर को देखकर ही तो मेरे मन में सेना में जाकर कुछ कर दिखाने की इच्छा जगी है.... मुझे भी उनकी तरह वीर सैनिक बनना है और देश सेवा करनी है"


"लेकिन जब वह सैनिक रहे होंगे तब तब ही तो तुम सोचोगे उनकी तरह सैनिक बनने के विषय में" मंगला देवी मुस्कुराते हुए बोली थी।


" मतलब क्या है आपका दादी ...सैनिक ही तो थे दादा जी पदक भी तो मिला उन्हें वीरता का" कहता हुआ गौतम चौंक गया था।


"नहीं बेटा तुम्हारे दादाजी सैनिक नहीं थे और ना ही उन्होंने कभी सेना का प्रतिनिधित्व करा था... वह तो थे एक आम नागरिक जो शहर के बाहर हाईवे पर एक छोटा सा ढाबा चलाते थे जो अब तुम्हारे पिताजी एक बड़े होटल के रूप में चला रहे हैं।", दादी कहते हुए मुस्कुराए थीं।


"ढाबा चलाते थे ??फिर दादी पदक कैसे मिला??", दादी के कहने पर गौतम की आंखें आश्चर्य से फैल गई थी... उसे अब जल्दी से जल्दी दादाजी के बारे में जानना था उसकी उत्सुकता देख मंगला देवी ने धीरे-धीरे कहना शुरू किया था," तुम्हारे दादा जी तुम्हारी तरह ही एक उत्साही नवयुवक थे जो देश के लिए कुछ कर दिखाने का जज़्बा रखते थे.... अपने विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए करे गए भारतीय सेनानियों के संघर्षगाथा से प्रेरित हो स्वयं भी अपनी मातृभूमि से प्रेम करना सीख लिया था।"


"मेरी सासू मां यानी कि तुम्हारी बड़ी दादी ने मेरे ससुर के गुजर जाने के बाद बड़ी मुश्किलों से अपनी बेटी और बेटे को पाला था।"


"अपने आप को अकेला जानकर उन्होंने जल्दी ही मेरी ननद का ब्याह कर तुम्हारे दादा जी का मुझ से विवाह कर दिया था और बेहद कम उम्र में ही तुम्हारे दादाजी और मैं गृहस्थी के बंधन में बंध गए थे।" मंगला देवी कहे जा रही थी और गौतम उनकी बात बेहद ध्यान से सुन रहा था।


" उस समय भारत पाक सीमा पर तनाव होने से युद्ध जैसे हालात छिड़ गए थे... तुम्हारे दादा जी शुरू से ही सेना में जाकर देश के लिए कुछ कर गुजरना चाहते थे परंतु अपनी माँ के एकमात्र पुत्र होने के कारण परिवार की जिम्मेदारियों से वह मुख ना मोड़ सके और बेहद कम उम्र में ही उन्हें अपने पिताजी के गुजर जाने के बाद उन का छोड़ा हुआ ढाबा चलाना पड़ गया था"


"उस समय ढाबे के थोड़े आगे ही सैनिकों की छावनी हुआ करती थी... तुम्हारे दादा जी उन सैनिकों को अभ्यास करता देख कर ही खुश हुए रहते और अक्सर ढाबे पर खाना खाने आए सैनिकों को कभी अपनी तरफ से और कभी बिना किसी लाभ के खाना खिला देते थे... एक मन का बंधन सा बन गया था उनका छावनी के सैनिकों से", मंगला देवी अब रौ में बहकर कहे जा रही थीं। 


"अब सैनिक भी आकर तुम्हारे दादा जी के पास आकर बैठते... अपने घर परिवार की कहते और संतुष्टि पूर्वक भोजन करके ही उठते... घर आकर जब तुम्हारे दादा जी मुझे यह सब बताते तो उस समय उनके चेहरे की खुशी देखने लायक होती थी... सैनिकों की सेवा कर कर उनका अंतर्मन दमक जाता था।" कहते हुए मंगला देवी भूतकाल में खो गई थी और अपने पति को याद करके उनकी आंखों में आंसू आ गए थे।


"फिर क्या हुआ दादी जी आगे बताओ पदक कैसे मिला दादा जी को", दादी को चुप देखकर गौतम व्याकुलता से बोल उठा अपने दादाजी के जीवन वृत्त को अब जल्दी से जल्दी जानने की उसकी तीव्र इच्छा हो चुकी थी।


गौतम की व्यग्रता देखकर मंगला देवी ने अपनी साड़ी के पल्लू से आंसू पौंछकर फिर से बताना शुरू करा," एक बार सेना की उस छावनी में खबर आई की उस छावनी के पीछे दुर्गम पहाड़ियों में देश के दुश्मन आकर छिप बैठे थे।"


"देश के दुश्मन??", गौतम आश्चर्य से बोला।


दादी बोली"अरे वही जिन्हें तुम आजकल की भाषा में आतंकवादी कहते हो... वही दुश्मन देश के घुसपैठिए आ छिपे थे।"


" खाना खाने आए कुछ सैनिकों के चेहरे पर तनाव देखकर जब तुम्हारे दादा जी ने उनसे आत्मीयता से पूछा था तो उन्होंने इन घुसपैठियों के बारे में बताया था और वे कह रहे थे बस उन्हीं पर हमला कर उनके अड्डे को ध्वस्त करने की योजना बनाने में लगे हुए हैं ये लोग"


" तुम्हारे दादा जी अपने जीवन में इस तरह की बातें कहानियों में सुनते आये थे ...वह पहली बार इस तरह की बातें देख रहे थे.... उनके शरीर में रोमांच की सिरहन दौड़ गई।"


"पास की पहाड़ियों में पीछे घुसपैठियों ने अपना अड्डा बना लिया था जो चुपके चुपके भारतीय सीमा में प्रवेश करने की योजना बना रहे थे.... भारतीय सेना इस बात का पता लगा चुकी थी कि कुल पांच दुश्मन थे जो घुसपैठ की कोशिश में लगे हुए थे।"


"योजना बनाई जा रही थी और टीम गठित हो चुकी थी। भारी मात्रा में वहां सैनिक आ चुके थे और वह दिन भी आया जब टीम ने अड्डे पर अटैक कर दिया.... दो घुसपैठियों को मार गिराया था टीम ने और एक को जिंदा पकड़ लिया था.... दो का अभी भी कुछ पता नहीं था तो खतरा बरकरार था।


इसी के चलते भारी छावनी दल अभी भी वहां पर एकत्रित था कि अचानक मौसम बिगड़ गया... जो तेज बारिश शुरू हुई अगले चार-पांच दिन तक होती रही।"


" तेज बारिश के साथ हुए भूस्खलन से रास्ते जाम हो गए थे जिससे वहां पर फंसे सैनिकों को अब परेशानी का सामना करना पड़ रहा था... उनके खाने-पीने की सामग्री समाप्त हो गई थी... उस समय आज की तरह सुविधाएं न होने के कारण उस विषम परिस्थिति में उन सैनिकों तक भारतीय सरकार खाद्य सामग्री पहुंचाने में असमर्थ थी और उस समय सैनिकों को खाना मुहैया कराने वाले और कोई नहीं तुम्हारे दादा जी थे।"


"ज्यादा मात्रा में खाना बनने के कारण हमेशा पल्लू में रहने के बावजूद भी वह मुझे हाथ पकड़कर ढाबे पर ले गए थे। वहां पर पहले के दो कर्मचारियों के साथ मैंने और तुम्हारे दादा जी ने दिन रात एक कर दिया था एक सप्ताह उन सैनिकों को खाना खिलाने में। " 


"कुछ समय काम करके मैं तो घर आ जाती थी... दोनों कर्मचारी भी आराम कर लेते थे लेकिन तुम्हारे दादा जी भारी मात्रा में काम होने के कारण बिना अपने आराम की परवाह किए और खाने पर लगातार लग रहे लागत की बिना परवाह किए लगातार मेहनत करते रहे.... खाने की व्यवस्था के अतिरिक्त भी तुम्हारे दादा जी ने हर संभव सैनिकों की सभी जरूरतें पूरी करीं"


एक सप्ताह बाद मौसम के साफ होते होते छिपे हुए बाकी के दो घुसपैठियों का भी पता लगा लिया गया था।


सेना के कमांडर के द्वारा इनाम के रूप में धनराशि तुम्हारे दादा जी को दिए जाने पर तुम्हारे दादाजी ने लेने से साफ इनकार कर दिया था उनका कहना था,"देश सेवा के लिए जब वह अपना जीवन भी निछावर कर सकते थे तो फिर उनके द्वारा करी गई इस सेवा का क्या मोल था?"


"विपरीत परिस्थितियों में तुम्हारे दादा जी द्वारा की गई अभूतपूर्व सहायता से प्रसन्न होकर सेना के कमांडर ने उस छावनी में स्वतंत्रता दिवस मनाए जाने वाले दिन दादा जी को भी बुला कर सम्मानित किया था... जब तक तुम्हारे दादाजी जीवित रहे इस दिन को अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ दिन मानकर प्रसन्न होते रहे।"


"अपने परिश्रम से उन्होंने अपने उस छोटे ढाबे को इस बड़े होटल में तो जरूर बदल दिया था लेकिन उनका देशभक्ति का जज़्बा कभी खत्म नहीं हुआ और हर स्वतंत्रता दिवस पर उन्होंने अपनी तरफ से सैनिकों के लिए भोजन की व्यवस्था की... जिस की परंपरा तुम्हारे पिताजी आज भी बनाए हुए हैं"

कहते हुए दादी चुप हो गई थी उनकी आंखें नम हो गई थी सामने बैठे गौतम को महसूस हो रहा था आंसुओं से उसकी आंखें भी धुंधली हो चली थी।


उसे चुप देखकर दादी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फिराते हुए कहा," बेटा देश की सेवा सिर्फ सेना में ही जाकर नहीं की जा सकती... ऐसा नहीं है सैनिकों के त्याग, सैनिकों का बलिदान का कोई मोल है लेकिन अन्य वे कार्य भी तो अनमोल है जो राष्ट्र की भलाई में करे जा रहे हैं ... चाहे शिक्षक हो या चिकित्सक ,बैंक कर्मी हो या फिर और कोई व्यवसाय या अपना निजी व्यवसाय करता हुआ आम नागरिक अगर वह पूरी इमानदारी से कार्य कर देश के विकास में लगा हुआ है तो वह देश प्रेम ही है.... तुम चाहे कोई भी कार्य करो.... तुम्हारे अंदर बस देशभक्ति का जज़्बा होना चाहिए"

कहकर दादी चुप हो गई थी।


गौतम की नजर सामने खेल रहे एक छोटे बच्चे पर पड़ी जो एक हाथ में झंडा लिए पार्क में इधर उधर पड़ी बिस्कुट और टॉफी की रैपर डस्टबिन में डाल रहा था.... गौतम के मन में कुछ कौंथा.... हां यह भी तो देश प्रेम था उस बच्चे का जो अपने शहर ,अपने देश को गंदा नहीं देख सकता था।


"दादी जल्दी चलो मैं तुम्हें घर छोड़ दूं फिर मुझे होटल जाना है... सैनिक अपने परिवार को लेकर होटल पर खाना खाने आ गए होंगे", मुस्कुराता हुआ गौतम बाइक स्टार्ट कर दादी को बुला रहा था।


वह समझ गया था देश के लिए कुछ करने के लिए यह जरूरी नहीं था कि आप करते क्या हो ....जरूरी था तो बस दिल में देशभक्ति का जज़्बा।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational