दरकते ख्वाब
दरकते ख्वाब
जेष्ठ माह की उस भीषण गर्मी में आज सूर्य अपना पराक्रम दिखाने को प्रतिबद्ध था। प्रचंड गर्मी से इंसान तो इंसान पेड़ पौधों को भी पसीना आ रहा था... लेकिन यह विकल कर देने वाली गर्मी आशुतोष मन के ताप के समक्ष कुछ भी ना थी।
बाहर का अंग अंग जलाता ताप ज्यादा भीषण था या मन का वह संताप जो मनोभावों को पिघलाकर आंखों के रास्ते बाहर लाने को तत्पर था, अंदाजा लगाना मुश्किल था।
अभी मुश्किल से 8:00 बजे होंगे किंतु दिन ऐसा लगता था जैसे पहाड़ सा निकल आया था। दिल्ली से दरभंगा धड़धड़ाती दौड़ रही उस एक्सप्रेस ट्रेन ने अभी अपना आधा भी सफर पूरा नहीं किया था।
गर्मी इतनी थी कि रेल के उस बंद डिब्बे में सभी यात्रियों को ऐसा लग रहा था मानो उनका दम सा घुटा जाता था सिवाय ट्रेन के उस डिब्बे में निरपेक्ष भाव से बैठे आशुतोष के।
गर्मी के ताप से अधिक उसे इस बात का संताप था कि जो उसकी मंजिल थी वहां तक उसे पहुंचाने में यह एक्स्प्रेस ट्रेन देर कर रही थी।
वह तो ट्रेन घने वृक्ष समूह के झुंड के बीच से गुज़र रही थी इसी कारण यद्यपि सूरज की किरणें सीधी ना पड़ती थी तो भी काटों सी चुभती हुई महसूस हो रही थीं जिनकी तपिश तन को ही नहीं मन को भी झुलसा रही थी।
अचानक ट्रेन एक छोटे से स्टेशन के बाहर के क्षेत्र में ठप पड़ गई थी... शायद आगे लाइन में कहीं रुकावट थी ।
गंतव्य पर जल्दी पहुंचने की उत्कंठा थी या फिर मन में चल रहे द्वंद की पराकाष्ठा ,अब तक भावहीन बैठा आशुतोष सीट से उठ खड़ा हुआ था और व्यग्रता में कभी वह ट्रेन के दरवाजे तक जाकर बाहर झांक आता और कभी वापस आकर बैठ कर खिड़की के बाहर रेल की पटरियों को झांक लेता था जो साथ ना हो कर भी साथ चल रही थी....पटरियों को देखकर यकायक आशुतोष उदास हो गया था ...ठीक उसके और माधवी की तरह तो थी वह कभी ना मिलने वाली रेल की पटरियां जो साथ साथ चल कर भी कभी मिल ही नहीं पाई थीं।
माधवी का स्मरण आते ही आशुतोष का मन व्याकुल हो चला था और वह कभी शर्ट की जेब से निकालकर उस चिट्ठी को पढ़ लेता जो माधवी ने उसे भेजी थी और कभी अपने पर्स की अंदर की जेब से निकालकर उस फोटो को देख लेता जो उसने लड़कपन के पहली प्रेम की मीठी गंध के साथ अपनी बालिका वधू माधवी के साथ मेले में खिंचवाया था।
आंखों के कोर नम होने के साथ टपकती बूंदे उस चिट्ठी नुमा कागज के पुर्जे को भिगोने लगी थीं। कहीं आंसुओं से उस पर लिखे अनमोल शब्द मिट ना जाएं यह सोच कर आशुतोष के हाथ उस चिट्ठी को समेट कर वापस शर्ट की पॉकेट में रख रहे थे।
इस अनमोल चिट्ठी को वह किसी भी हालत में खराब नहीं होने देना चाहता था...वह चिट्ठी जो वजह थी उसके इतनी दूर से तुरंत ही चलकर आने की....बिना किसी रेल रिजर्वेशन के... बिना किसी प्लान के।
आधा घंटा रुक कर ट्रेन वापस अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगी थी... खिड़की से आई ठंडी हवा के झोंके के मध्य मन को भी शांति देने के लिए आशुतोष ने जेब से चिट्ठी एक बार फिर निकाल ली थी... आंखें फिर नम हो आईं थीं।
पूरा पत्र बार बार पढ़कर आशुतोष की निगाहें उन्हीं पंक्तियों पर आकर ठहर जाती जहां लिखा था," आ जाओ आशु... देबू मिलना चाहता है तुमसे... अब ज्यादा समय नहीं बचा"
कैसे लिख लेती थी माधवी इस विकराल दुख को जिस पर आशुतोष अपनी निगाह रोक भी नहीं पता था... देबू की खबर पढ़ते ही उसके हृदय का स्पंदन तीव्र हो जाता था... हो भी क्यों ना उसका एकमात्र पुत्र... उसके जीवन की आखिरी उम्मीद जो था देबु जो स्वयं उसके ही पाप कर्म को भोगता अल्प अवस्था में ही कैंसर जैसी घातक बीमारी से डटकर सामना कर रहा था।
चिट्ठी मिलते ही आशुतोष तुरंत ही चल पड़ा था... अपनी पहचान छुपाने हेतु कार से ना जाकर उसने रेल यात्रा का विकल्प चुना था ।
तत्काल में लिया हुआ रिजर्वेशन टिकट कंफर्म नहीं करा पाया था और वह एक कोने की सीट पर सिकुड़ा बैठा भागा जा रहा था ट्रेन के साथ माधवी के पास, देबू के पास... अपनी जिंदगी के पास, जिन्हें कभी वह भरपूर जिंदगी जीने के लिए.... अच्छा भविष्य बनाने के लिए मझधार में अकेला छोड़ आया था।
ट्रेन तेज भाग रही थी या बचपन में माधवी को लेकर उसके मन की उड़ान... तय करना मुश्किल था।
एक्सप्रेस ट्रेन होने के कारण बिना किसी स्टेशन पर रुकी वह भागे जा रही थी और साथ ही भाग रहे थे आशुतोष के मन के भाव जो ले जा रहे थे उसे उस समय की ओर जब वह माधवी के साथ गांव की कच्ची पगडंडी पर घंटों दौड़ लगाता, उसके साथ खेलता और मन ही मन भविष्य को लेकर सपने बुनता।
वह गांव जो ना सिर्फ उसके मनमौजी बाल्यजीवन का साक्षी था अपितु अकूत पैतृक संपदा लिए उसे उस गांव के धनाढ्य व्यक्ति के रूप में अंगीकार कर चुका था।
पांच वर्ष की अल्पायु में आशुतोष की मां के गुजर जाने पर रोती दादी उसे हाथ पकड़ कर अपने साथ शहर से गांव ले आईं थीं। उसके दादाजी गांव के धनाढ्य बाशिन्दों में से एक थे जिसके चलते आशुतोष का जल्द ही गांव में नामकरण 'छोटे जमींदार' के रूप में हो गया था।
बेहिसाब छूट और लाड मिलने से वह गांव की शैतान टोली में शामिल हो गया था... उम्र का तेहरवां साल चल रहा था, कुछ शरीर में बदलते हार्मोन का प्रभाव और कुछ गांव में आया नया नया सिनेमा....आशुतोष एक सतरंगी दुनिया की सैर करने लगा था।
उसे मातृविहीन देख कर दादी रोया करती.... अपने फूटे भाग्य को कोसा करती.... आशुतोष को हमेशा खुश रखने की ललक में दादाजी उसे पैसे दे देते... सिनेमा देखने के लिए... घर के बाहर खुशी ढूंढने के लिए।
वह अपने आवारा दोस्तों के साथ सिनेमा देख कर आता.... घंटों आईने के सामने बाल बनाता..... फिल्म के गाने याद करके अगले दिन साथियों को सुनाता।
मां का रूप रंग उसने भर कर पाया था.... तेरह -चौदह की उम्र में ही वह अठ्ठारह वर्ष का गवरू नौजवान दिखने लगा था फिर दादा से मिली बेछूट पॉकेट मनी वह सजने संवरने पर ही खर्च कर देता।
तरह-तरह की टोपियां, चश्मे, नई प्रचलन में चली जींस टीशर्ट पहनकर वह खुद को किसी हीरो से कम ना समझता था और फिर आई जीवन में माधवी।
पन्द्रह वर्षीय माधवी उम्र में भले ही आशुतोष से बड़ी थी पर फूल की तरह कोमल कमसिन माधवी के साथ आशुतोष की जोड़ी ऐसी दिखाई देती थी मानो कृष्ण संग राधा।
बड़ी बड़ी आंखों वाली दूधिया गौर वर्णी माधवी कोई ना कोई बहाना ढूंढ लेती थी आशुतोष से मिलने का.... चाहे वह बहाना आशुतोष को छुपकर खीर देना हो या फिर गणित के सवाल समझना हो।
यह बात अलग थी एक तो आशुतोष उससे दो क्लास पीछे था और साथ ही था पढ़ाई में गोबर गणेश तो वह भला क्या गणित हल करता.... पर माधवी घर पर यही बहाना बनाकर आती कि उसे आशुतोष से पढ़ने जाना था।
माधवी नित ख्वाब सजाती कि वह विवाह करेगी तो आशुतोष से... और वह यह बात जता भी देती उसको.... आशुतोष हंस कर कहता कि," तूने शक्ल भी देखी है अपनी शीशे में... कहां तू और कहां मैं गांव का छोटा जमींदार"
माधवी घंटों आईना निहारती.... अलग-अलग कोणों से अपने चेहरे को देखकर कहती," हां देखी है मैंने अपनी शक्ल.... है तो अच्छी खासी", फिर वह खुद में ही शरमा कर रह जाती।
जब गांव में रामलीला की बात चली... तो कुछ आशुतोष का रंग-रूप और कुछ उसके दादाजी के प्रभाव से उसका राम बनना तय हो गया।
जब माधवी को इस बारे में पता चली तो उसने रोज मंदिर जाकर भगवान से प्रार्थना शुरू कर दी कि सीता का रोल उसे ही मिले। वह रामलीला के संचालक के पास सुबह शाम चक्कर काटती, मिन्नते करती.... दादी के पास जाकर घंटों उनके बाल बनाती... उनके पैर दबाती और उनका मनपसंद भोजन भी स्वयं बनाती।
कजरारी आंखों वाली मन मोहिनी माधवी जब अपनी मुस्कान से किसी का भी मन मोह लेती थी तो कोमलह्रदयी दादी का दिल उससे कैसे अछूता रहता... अपने आशुतोष के लिए उन्हें माधवी से प्यारी दुल्हन कहां मिलती... उन्होंने दादाजी से साफ कह दिया था कि आशुतोष की बगिया महकाने वाली और कोई नहीं माधवी होगी।
जिस लड़की के पास सीता का रोल था उससे लेकर माधवी को सीता का रोल दे दिया गया और बहुत धूमधाम से सीता स्वयंवर वाले दिन ही आशुतोष और माधवी, दादा दादी के परम आशीर्वाद से विवाह बंधन में बंध गए थे। बहुत बुलाए जाने पर भी आशुतोष के पिता ने आशुतोष के विवाह में भी गांव में आना उचित नहीं समझा।
उस छोटी उम्र में विवाह का सही अर्थ ना समझने वाला आशुतोष बस माधवी का साथ पाकर प्रसन्न था जो साल दर साल अटूट प्रेम में परिणित होता जा रहा था।
आशुतोष की दादी दोनों को प्रेम के बंधन में बंधे साथ बड़े होते देख निहाल हुए जाती... वह उन दोनों की बलैया लेते ना थकती थीं।
प्रेम की रथ पर सवार वे दोनों एक दूसरे में मगन रहते और यौवन की दहलीज पर आते आते उनकी प्रेम की बगिया में देबबंधु नामक प्यारा फूल खिल चुका था।
अपना सुखी संसार बसता देखकर दादी भगवान से मन ही मन प्रार्थना करती थी कि उनके बच्चों को किसी की नजर ना लगे पर होनी को कौन टाल सकता था जब कुदृष्टि, काली नजर डालने वाला घर में ही उपस्थित था।
शहर में आशुतोष के पिता अमरनाथ अब पत्नी के गुजर जाने पर उस बेलगाम घोड़े की तरह थे जिनके दुष्कृत्यों को ना तो कोई टोकने वाला था ना ही जहां जीतने की उनकी अंधी चाहत को कोई रोकने वाला।
इसी क्रम में अपनी कंपनी के लिए महत्वकांक्षी टेंडर भरवाने वाले मंत्री महोदय की दिमाग से अल्पविकसित इकलौती बेटी की विवाह की विकराल परेशानी को देखकर उन्हें जो योग्य उम्मीदवार नजर आया वह था उनका अपना पुत्र आशुतोष।
वह अब किसी भी कीमत में आशुतोष का विवाह मंत्री जी की उस कन्या से कराना चाहते थे जो ना सिर्फ दिमाग से अल्पविकसित थी अपितु मंत्री जी के अत्यधिक लाड प्यार में पली-बढ़ी नकचढ़ी और बदमिज़ाज भी थी जिसे उसके दिमागी असंतुलन के चलते कभी भी दौरे पड़ने लगते थे।
मंत्री जी की एकलौती पुत्री से आशुतोष का विवाह करा कर अमरनाथ ना सिर्फ अपने वैध-अवैध टेंडर पास कराने की अभिलाषा रखता था अपितु मंत्री जी की सारी अकूत संपत्ति पर भी अब मालिकाना हक जताने का सपना देखने लगा था और यह अब उसे हर हालत में पूरा करना था।
गांव में उचित शिक्षा ना मिल पाने और दुनिया की समझ ना हो पाने पर आशुतोष एक उसे नासमझ युवक के रूप में बड़ा हो रहा था जो सही गलत में भेद करना भूल गया था।
जब अमरनाथ ने गांव जाकर आशुतोष को अपने साथ शहर चलकर मंत्री जी की कन्या से विवाह करने को कहा तो दादा दादी विरोध में खड़े हो गए थे। उन्होंने तुरंत अमरनाथ को वहां से चले जाने को कहा।
दादा जी ने अमरनाथ को बुरी तरह से फटकारते हुए कहा,"अब तक तुमने आशुतोष की सुध नहीं ली और जब कि आशुतोष सुख पूर्वक जीवन बिता रहा है और एक बेटे का पिता भी बन चुका है तो तुम इतनी अनर्गल बात लेकर चले आए... तुरंत यहां से चले जाओ... मेरा आज से तुम से कोई संबंध नहीं है"
"मत रखिए आप मुझसे कोई संबंध लेकिन आपलोग मेरे बेटे से मेरा संबंध नहीं तोड़ सकते... मैं अपने बच्चे का अच्छा बुरा जानता हूं", कहकर अमरनाथ ने घड़ियाली आंसू बहाते हुए आशुतोष को गले से लगा लिया था।
बचपन से ही पिता के प्रेम को तरसा आशुतोष का मन अचानक इतना सारा प्रेम पाकर निहाल हो गया था और पिता के प्रेम में अपना अच्छा बुरा सोचना भूल गया था।
अमरनाथ ने उससे कहा कि माधवी उसकी गांव में पत्नी बनी रहेगी उसे बस शहर चलकर मंत्री जी की बेटी सोनी से विवाह करना है जिससे वह उन सारे ऐशोआराम का मजा उठा सकेगा जो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा होंगे।
पिता के दिखाए रंगीन चश्मे से आशुतोष की अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे।वह अमरनाथ के साथ शहर जाने को तैयार हो गया। दादी का रुदन, माधवी की अनुनय करती सूनी आंखें और देबू का प्यारा चेहरा भी अब उसे रोक नहीं पा रहे थे।
माधवी का तनाव चरम पर था.... जीवन के किस मोड़ पर आ गई थी वह..... उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि भगवान उसकी ऐसी परीक्षाएं लेगा। वह आशुतोष के समक्ष जब ना जाने के लिए गिड़गिडायी तो आशुतोष ने हंसते हुए कहा," पगली मेरा तेरा प्यार कोई एक दिन का थोड़ी है जो मेरे शहर जाने से टूट जाएगा... मैं शहर जाकर बहुत सारे पैसे बना लूं फिर तुझे और देबू को अपने साथ ले जाऊंगा"
इधर आशुतोष ने शहर की ओर कदम बढ़ाए थे और उधर दादाजी ने प्राण त्याग दिए थे... दादी और माधवी को अकेले संघर्ष करता छोड़कर वह आशुतोष के वियोग में दम तोड़ गए थे।
आशुतोष का विवाह शहर में सोनी के साथ बहुत धूमधाम से हो गया था... अब मंत्री जी का दामाद बनने के कारण वह स्वयं को कहीं का राजा महसूस कर रहा था। अमरनाथ ने उसे भोग विलास का वह सागर दिखा दिया था जिस में तैर कर वह अपने गांव... अपने सुखी संसार से बहुत दूर निकल आया था।
दादा जी के मृत्यु का समाचार भी उसके मन को विचलित नहीं कर पाया और बस वह औपचारिकतावश मात्र एक दिन को आकर वापस लौट गया था... न कुछ माधवी से कहा सुना और ना ही देबू को गले लगाया।
साल दर साल बीत रहे थे... भोग विलास में डूबा आशुतोष ना यह देख पा रहा था कि वह सिर्फ अमरनाथ का मोहरा मात्र था और ना ही उसे अब माधवी का एक क्षण भी ध्यान आता था।
अपने जीवन की अंतिम अवस्था में इतनी विकराल परिस्थिति को ना सहन कर पाने के कारण दादी भी माधवी को अकेला छोड़कर चिर निद्रा में लीन हो गई थीं।
माधवी सूखकर कांटा हो चुकी थी...पूरी तरह से मुंह फेर चुके आशुतोष से उसने अब संपर्क करना बंद कर दिया था।
दादा जी अपने पीछे बहुत जायदाद छोड़ गए थे लेकिन जिस प्रेम रूपी द्रव्य की माधवी को अभिलाषा थी वह उसके जीवन से रिक्त हो गया था लेकिन यह उसके दुखों का अंत नहीं था। विधाता ने न जाने कितने दुख उसके जीवन में लिखे थे।
देबू अक्सर बीमार रहने लगा था... माधवी की उसे स्वस्थ रखने की सारी कोशिशें असफल जा रही थीं।
जब देबु की तबीयत में कोई सुधार ना होता दिखाई दिया तो गांव के चिकित्सक ने माधवी को देबू के सारी जांचे शहर जाकर कराने को कहा।
जिस अनहोनी का डर था वही हुआ...देबू ब्लड कैंसर जैसी घातक बीमारी से ग्रसित निकला। यह सब जानकर माधवी के तो जैसे प्राण ही निकल गए थे।
जिस दिन वह जांच कराकर देबू को लेकर वापस गांव आई उस पूरे दिन उसने भोजन नहीं किया... शाम होते-होते घनघोर बारिश शुरू हो गई थी....उधर आसमान में बादल घुमड़ रहे थे और इधर माधवी के मन में विचारों का तूफान हिलोर मार रहा था।
वह कब तक इस तरह से परेशानियों से लड़ती रहेगी.... क्या उसकी मुश्किलों का कुछ अंत है??.... यूं ही जिंदगी के थपेड़े सारे उसी के नसीब में लिखे हैं??....एक तरफ घुमड़ते बादल अपनी गर्जना के साथ बरखा के रूप में बरसने लगे थे वही उसकी भावनाओं का वेग बांध तोड़कर आंसुओं के रूप में उसकी आंखों से बहने लगा था।
अब वह फूट-फूटकर रो रही थी.... वर्तमान परिस्थितियों में स्वयं को असहज पा रही थी। रोते हुई उसकी नजर सामने दीवार पर पड़ी जहां पर उसने दादा दादी का फोटो लगाया हुआ था.... उस फोटो पर नजर पड़ते ही उसके आंसू और तेजी से बहने लगे।
आंखें बरसाते हुए उसके होंठ बस यही कह रहे थे," आप लोग मुझे अकेला क्यों छोड़ गए...... मुझे भी अपने साथ ले जाते... मैं कैसे इस बेरहम दुनिया का सामना करूं"
तभी उसे सामने से दादी का चेहरा मुस्कुराता हुआ प्रतीत हो रहा था। उसे लग रहा था मानो दादी उससे कह रही थी कि यह जीवन संघर्ष भी उसे हंसकर ही पार करना था...देबु को अब हर हालत में खुश रखना था... जब तक उसकी सांसे थी उसे जीवन में सभी खुशियां देनी थी।
माधवी ने पुत्र प्रेम के ऊपर अपना आत्मसम्मान गिरवी रखकर आशुतोष से संपर्क करने का फैसला किया।
उधर मतिहीन हो गया आशुतोष क्षणिक सुख के लिए, अपने इस अक्षम्य अपराध, अपनी इस गलत फैसले के लिए पछता रहा था।
वह सोनी का एक ऐसा पालतू खिलौना बन कर रह गया था जिसका उपयोग सोनी अपनी विकृत मनोवृति को तुष्ट करने के लिए करती... वह उसे सबके सामने बुरी तरह से डांट देती और कभी कभी घर से बाहर निकलने को भी कह देती।
घंटों सड़कों पर घूमता वह अपने सुखी संसार को स्वयं अपने हाथों से आग लगाने पर अफसोस मनाता।
आशुतोष माधवी से मिलकर अपनी इस दुष्कृत्य के लिए क्षमा मांगना चाहता था परंतु उसका पुरुषत्व और पिता अमरनाथ का डर उसे गांव जाने से रोक लेता। उसका मन देबू को गले लगाने को अकुलाता... माधवी के आंचल तले चैन की नींद सोने को करता... वह ख्वाबों में अक्सर देखा करता कि वह अपना पुराना जीवन जीते हुए माधवी और देबू के साथ जीवन के सारे सुखों का रसावदन कर रहा होता और नींद खुलते ही उसे अपने सारे ख्वाब टूटते दिखते देते।
माधवी ने जब उसे पत्र के माध्यम से देबू के विषय में बतलाया तो वह घंटों रोया। उसे अब जल्दी से जल्दी गांव पहुंचना था।
अमरनाथ को जब आशुतोष के गांव जाने के विषय में पता चला तो वह एक बार पुनः उसके रास्ते के आड़े आ गए और उसे प्यार से धमकाते हुए बोले," इस समय मंत्री जी चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं, ऐसे में तुम्हारा गांव जाना और माधवी और देबू के साथ पाया जाना, उनके राजनीतिक कैरियर के लिए घातक सिद्ध होगा और साथ ही साथ हमारे लिए भी... उम्मीद है तुम समझ गए होंगे और अपने गांव जाने का कार्यक्रम कुछ समय के लिए टाल दो"
मोह ने एक बार फिर प्रेम पर विजय हासिल कर ली थी... सामाजिक प्रतिष्ठा का भय... पिता की धन लोलुपता ने आशुतोष के पैर में एक बार फिर बेड़ियां डाल दी थी... उसने माधवी को अपने आने की असमर्थता से अवगत करा दिया था।
अब माधवी इस समाचार से तनिक भी विचलित नहीं हुई थी उसका ह्रदय शुष्क हो चुका था । जिस सुख की अभिलाषा में उसने सालों साल बता दिए थे वह उसके भाग्य में ही नहीं है, जिन ख्वाबों को सजाने के लिए उसने पूरी जिंदगी प्रतीक्षा की थी वह उसे दरकते प्रतीत हो रहे थे.... उसे अच्छे से समझ आ चुका था.... आशुतोष वापस नहीं लौटेगा... अब उसे अपना जीवन देबू के जीवन के शेष रहे समय में उसको यथासंभव अपनी सामर्थ्य अनुसार सर्वसुख उपलब्ध कराना था।
वह ना चाहते हुए भी देबू के साथ हंसती थी... उसके संग खिलखिलाती थी.... उसे अपने हाथ से भोजन कराती और समय-समय पर चिकित्सीय जांच भी। धीरे-धीरे देबू का स्वास्थ्य और भी खराब रहने लगा.... प्रतिदिन उसकी चिंता में घुली रहने वाली माधवी अब सूखकर कांटा हो गई थी।
चिकित्सकों ने भी अब जवाब दे दिया था... देबू के पास सांसे लेने के लिए बहुत कम समय बचा था... और माधवी, वह भी कहा इससे अछूती थी... उसकी तो सांसे स्वयं देबू ही था।
वह एक बार अपमानित होने के कारण दोबारा आशुतोष से संपर्क नहीं करना चाहती थी परंतु वह देबू को जितना अपना समझती थी उतना ही अधिकार आशुतोष का भी मानती थी इसलिए अपने अंतिम समय में देबू आशुतोष के दर्शन भी कर ले यह सोचकर उसने भारी मन से आशुतोष को पत्र लिखा।
प्रिय आशुतोष,
ज्ञात नहीं तुम्हें प्रिय संबोधित करने का मुझे अधिकार है या नहीं... तुमने मुझे प्रिय माना हो या नहीं परंतु ईश्वर जानता है तुम मुझे संसार में सबसे प्रिय रहे... इसलिए चाहे तुम मुझे प्रिय कहने का अधिकार दो या ना दो... तुम मेरे लिए सदैव प्रिय रहोगे मेरे अंतिम सांस तक... जिसे शायद मैं कब लूं मुझे भी स्वयं नहीं पता।
बचपन से तुमने जो प्यार का नीड़ बनाया था वह तुम्हारे हाथों ही उजड़ जाएगा ऐसी मैंने न कामना की थी और ना ही कल्पना। जिस दिवस तुम मुझे यहां अकेला छोड़ गए थे वही मेरे जीवन का अंतिम सबसे सुखद दिवस था उसके बाद बस मेरा शरीर ही सांसे ले रहा है आत्मा जो तुम अपने साथ ले गए।
देखो मेरे सारे सुख मेरे सारे वैभव तुमसे ही थे... तुम्हारा साथ क्या छूटा मेरी तकदीर ही मुझसे रुठ गई... पहले दादाजी गए फिर दादी और अब शायद देबू और उसके संग मैं भी.....
तुम गांव के छोटे जमींदार थे और मेरे हृदय पर पूर्ण अधिकार रखने वाले महाराज... तुम तो चले गए परंतु मेरी सांसो को अपना कर्जदार बना गए... न जीते बना ना मरते...देबू जो साथ था... अब यह जिम्मेदारी भी मेरे हाथ से छूटे जा रही है....आ जाओ आशु... देबू मिलना चाहता है तुमसे... अब ज्यादा समय नहीं बचा है... आकर एक बार पिता के रूप में उसे गले लगा लो और हम दोनों को विदा करो।
तुम्हारी कहलाए जाने का अधिकार तो नहीं रखती परन्तु अंतिम सांस तक तुम्हारी
माधवी
इतना हृदय विदारक... इतना अनमोल पवित्र प्रेम का साक्षी पत्र पढ़कर आशुतोष पल भर भी नहीं रुका।
पिता कहीं उसकी राह में फिर से रोड़ा ना डाल दे इसलिए उन्हें बिना बताए, बिना घर से कार लिए ट्रेन के रास्ते चल पड़ा। अब उन्हें क्या बताना था... क्या शेष रह गया था... स्वयं उसे भी भय था कि क्या उसके पवित्र प्रेम के भग्नावशेष शेष रह गए होंगे।
वह पूरे रास्ते बस यही प्रार्थना करता रहा कि भगवान अगर उसे एक अवसर दे दे तो वह अपने अधूरे ख्वाबों को खुल कर जिएगा... माधवी और देबू को समाज में स्वीकार कर अपना नाम देगा....वापस शहर नहीं लौटेगा... उस छद्म दुनिया से दूर यहां गांव में अपना प्यार का संसार बसाएगा।
ट्रेन नियत समय पर दरभंगा पहुंच गई थी और उसे अब वहां से अपने गांव के लिए बस से सफर तय करना था।
लगातार के दो घंटे के सफर के पश्चात अब वह अपने गांव के बाहर खड़ा था और वहां से तांगा लेकर अपनी हवेली की ओर बढ़ रहा था... वह हवेली जिसकी वैभवता को उसने स्वयं दीमक बनकर चाट लिया था।न जाने क्यों आशुतोष का मन यकायक घबरा रहा था...हवेली की ओर बढ़ते बढ़ते हृदय की गति असामान्य रूप से बढ़ने लगी थी।
हवेली के बाहर जमा भीड़ को देखकर उसका दिल धक रह गया। क्यों इतने लोग अचानक आकर समूह में खड़े हो गए थे??... सोचकर ही उसका कलेजा कांप रहा था।
उसके कदम धीरे-धीरे हवेली की ओर बढ़ रहे थे... बाहर खड़े लोगों में से कुछ लोगों की आंखें उसे पहचानने का असफल प्रयास कर रही थीं मानो कह रहीं थीं... अब यहां पर क्या करने आए हो??तभी दो अपरिचित लोग उसकी तरफ आपस में बात करते बढ़ते दिखाई दिए," बड़ी अभागी थी बिचारी... पूरी जिंदगी अकेले ही सारे दुख उठाती रही... और आज भी देखो लड़के के दम छोड़ते ही बैठे-बैठे प्राण त्याग दिए... मरते हुए भी उसकी आंखें दरवाजे की ओर ही थी... न जाने अभागी किसका इंतजार कर रही थी?"
आगे के शब्द सुनने की शक्ति आशुतोष में अब नहीं बची थी। लड़खड़ाते कदमों से वह किसी तरह से हवेली के अंदर तक जा पाया। बिस्तर पर चिर निद्रा में लीन देबू और दरवाजे को देखती माधवी की खुली आंखें मानो उसी का ही इंतजार कर रही थी। यह दृश्य देखने की ताकत उसके कदमों में नहीं थी वह लड़खड़ाते हुए गिर गया। उसकी आंखों में उमड़ आए आंसुओं का वेग और दरकते ख़्वाब उसकी आंखों के साथ शरीर को भी शून्य कर गए थे।