स्वागत द्वार
स्वागत द्वार
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राजस्थान में भूगौलिक विषमताएं इतनी अधिक है कि 20 कोस जाने पर ही आबोहवा बदलने लग जाती है।
मेरे गृह जिले श्रीगंगानगर से कार्यस्थल- सरदार शहर,चूरू की दूरी महज 210 किलोमीटर ही है परंतु दोनों जिलों के रहन-सहन और वातावरण में काफी बदलाव है।गृह जिले से दूर नौकरी ने गांव की मिट्टी से लगाव को ओर गहरा कर दिया।छुट्टी के दिन जब भी गाँव आता हूँ जिले की सीमा शुरू होते ही मन आह्लाद से भर जाता है।चारों तरफ फसलों से भरे खेत,मिट्टी की सौंधी खुशबू और शीतल हवा से अपनेपन का अहसास होने लगता है। नजऱ की पहुंच तक दिखाई देती धरा पर हरियाली की चादर, स्वागत में बिछी कालीन सी नजर आती है।चारों तरफ फैली इस हरियाली के बीच सड़क से गुजरते हुए दोनों किनारों पर लगे वृक्षों से बने द्वार...स्वागत द्वार।
आहा...यूँ लगता है जैसे घर आने की खुशी में प्रकृति भी पलक पाँवड़े बिछाए स्वागत में खड़ी हो।
एक के बाद एक वृक्षों से बने द्वार ऐसे लगता है जैसे लोग आगे बढ़ कर गले में फूलों की माला डाल स्वागत कर रहे हो। लेकिन जिस निर्मल भाव से प्रकृति स्वागत करती है उस निर्मल भाव से मनुष्य का स्वागत करना लगभग असंभव है।
खैर... मातृभूमि का आँचल भी माँ के आंचल जैसा होता है। उसमें भी वही स्नेह, वही लगाव, वही निर्मलता और वही सुकून होता है जो माँ के आँचल में होता है। मातृभूमि की मिट्टी,हवा और पेड़ पौधे भी उसी प्रकार स्वागत करते है जिस प्रकार एक माँ बाहें फैलाये स्वागत को आतुर रहती है।मैं हर बार प्रकृति के इस मूक स्वागत को हर्षित भाव से महसूस करता हूँ।मेरे लिए यह यात्रा हर बार इसी प्रकार आनन्ददायक होती है। आप भी प्रकृति के इस अनोखे स्वागत का आनंद ले सकते है बशर्ते आपके मन की आँखे खुली हो और आपका निवास गृह जिले से दूर स्थित हो।