सूनापन
सूनापन
संडे का दिन था। सभी अपने काम में व्यस्त थे । उस दिन।मगर बालकनी में बैठी उमा बहुत उदास थी तभी साथ में रहने वाली प्रेमा की आज छुट्टी थी जो पास के गोदाम में कांच की चूड़ियों का काम करती थी,जो उसके पास जाकर पूछ बैठी।
"क्या बात है उमा आज दो हफ़्ते हो गए तुम्हें यहां आए हुए मगर बहुत शांत शांत सी रहती हो।
मेरे पास भी समय नही रहता है कि तुम्हारे पास बैठूं और कुछ बात करूं।"
प्रेमा के बार बार पूछने के बाद उमा फूट फूट कर रोने लगी।
जैसे किसी ने एकत्रित समंदर के पानी को मेंड़ बनाकर रोक रखा हो। बरसों से और आज उस बांध को किसी ने खोल दिया हो। जो लगातार प्रवाहित होता जा रहा है।
उमा खुद को संभालती हुई दुपट्टे के कोरो से आंसूओं के गति को रोकने का प्रयास करती हुई अटक अटक कर प्रेमा की बात सुनकर बोलने लगी।
बहन आज बहुत दिन बाद किसी ने मुझसे मेरा हाल जानने की कोशिश की है, नही तो मेरी जिंदगी एक जानवर से भी बदतर हो गई है। इस समय। मुझसे काम ज्यादा नही होता, रीढ़ की हड्डियों में दर्द रहता है। आज दो साल हो गए चुन्नू के पापा को गुजरे हुए,वो थे तो ऐसी हालत नही थी मेरी।
आज परिवार होकर भी परिवार नही है। बेटा है जो बहू के इशारों पर रहता है और बहू मेरे ही घर में रहकर मुझपर रौब झाड़ती है और नौकरों की तरह काम करवाती है। और अगर न हो पाए मुझसे तो गंदी गंदी गाली देती है विधवा विधवा कहकर मेरी बार बार बेइज्जती करती है।
और तो और इनके जाने के बाद किश्त पर लिए घर का पेमेंट भी मुझे करना होता है।
जो मेरे किसी काम का नहीं। एक दिन तो हद्द हो गई बहू और मेरी बहस हो गई ,जिसमे बहू मुझपर हाथ उठा दी,तभी से मैं घर छोड़ कर यहां आप सबके बीच शिफ्ट हूं,पर मन उदास रहता है ।सोचती रहती हूं कि जब गृहस्थी संभाली तो पाई पाई जोड़ कर बच्चो के पढ़ाई लिखाई में लगा दी।
और अब मुझे उनकी जरूरत है बुढ़ापे में तो बच्चे हाथ खड़े कर लिए। मेरी जिम्मेदारी से।
सच कहा गया है जीवन साथी कैसा भी हो, बुढ़ापे में उसी का सहारा होता है। खास कर एक महिला के लिए।
हां उमा बहन सच कह रही हो। हम जैसी महिलाओ का जीवन सूना पन से लबालब है। रूह की आखिर सतह तक।
ये तकलीफ, दर्द आज आपसे बांट रही हूं,क्योंकि मुझ जैसी अभागिन अपना दुखड़ा भी नही रो सकती। क्योंकि विधवा का मोहर जो लग गया। हम पर।
मै नई नवेली दुल्हन बनकर आई थी। ससुराल में। मेरे पति आर्मी में थे उन्हें दूसरे दिन ही जाना पड़ गया था। मुझे छोड़ कर। मुझे क्या पता था कि ये आखिर मुलाकात है।जो मुझे बहुत स्नेह भी करते थे,पर शायद मेरी जिंदगी में खुशियां लिखी ही नहीं,वो देश के लिए शहीद हो गए।
उनके जाते ही मैं ससुराल वालों के नजरों में खटकने लगी ।
मुझे घर से निकाल दिया गया मुझपर लांछन लगाकर।और मायके वालों ने भी मुझे ही गलत समझा।
तबसे मैं यहीं हूं,चूड़ी बनाती हूं ।अपना पेट पालती हूं।
दर्द को समेट कर टूटी हुई मगर ऊपर से मजबूत दरख़्त के भांति जीवन जी रही हूं।
अब आप भी इस सूने पन से दोस्ती कर लो।
और खुद को मजबूती से सजाकर मेरी तरह जीना शुरू कीजिए।यूं खामोश होकर छुप छुप कर रोने से कोई फायदा नही है।जितना रोएंगी उतना ही कमजोर होती जायेंगी।
ये परिवार बस पति के पैसे तक सीमित होती है। उसके बाद सब ख़त्म। और हम महिलाएं पहले के ज़माने इतनी पढ़ी लिखी कहा होती हैं कि अपने पैरो पर खड़े रहे।
पर फिर भी हिम्मत हौसला ने मुझे जीवित कर एक नया इंसान बनाया।जो आपके सामने खड़ी हूं।
दोनों एक दूसरे की बात सुनकर सजल नयनों से एक दूसरे को सांत्वना देती हुई गले से लिपट गई। जैसे बरसों बिछड़ी सहेलियां लिपटी हों।