इंसानियत
इंसानियत


"नमस्ते!साहब! कई दिनों से मैं चक्कर लगा रही थी आपके घर की, पर कोई घर पर था ही नहीं आप सब कहाँ चले गये थे।"
गेट खुलते ही सलोनी घर में घुसते ही सार्थक से सवाल कर बैठी।सलोनी,सार्थक के घर की नौकरानी थी,जिसे कुछ दिनों से सार्थक जान बूझ कर नज़र अंदाज़ कर रहा था।
"ये लो चाय,अभी दिन भर से फुर्सत मिली है।घर का सारा काम निबटाने में पूरा दिन लग गया।"
"आज तो संडे था,इसलिए आज ऑफिस से छुट्टी मिल गई मुझे, वरना इस लॉक डाउन में भी चैन कहाँ? जबसे तुम्हारी जॉब गई है मेरी तो टेंशन ही बढ़ गई है ऊपर से बच्चों को सम्भलना, ऑफिस जाना, और ये सलोनी का भी कुछ पता नहीं चल रहा है।न जाने मेरा क्या होगा? तुमसे तो किसी चीज से मतलब ही नहीं है। तुम बस लॉक डाउन खत्म होने का इंतजार लिए बैठे रहो।"
निकिता चाय का ट्रे लिए एक ही साँस में बड़बड़ाती हुई बाहर तक आ गई। वो काम से इतना थकी थी कि वो सामने खड़ी सलोनी के दस्तक से भी अंजान थी।सलोनी चाय का ट्रे अपने हाथ में लेती हुई बोलने लगी।
"अरे मैडम जी मैं कई बार आई थी। इस लॉक डाउन में भी। सोची कि..... अंदर का काम भले ही नहीं करूँगी पर झाड़ू पोछा तो कुछ करके आप की मदद तो कर ही दूँगी।भले ही आप पगार दो या ना, मुझे पता लगा था, कि साहब की नौकरी चली गई है इसलिए शायद साहब नौकरी पर मुझे न रखें, फिर भी मन नहीं माना मेरा। इतने बरसों से जो जुड़ी हूँ , तो कुछ तो लगाव होगा ही।"
"हाँ! सलोनी क्यों नहीं,मुझे भी तो है,तुमसे लगाव। मैं इनसे कई बार बोली कि सलोनी के घर जाकर उसे बुला लाओ।बेचारी के ऊपर बहुत जिम्मेदारी है,उसके बूढ़े सास ससुर भी बीमार रहते है। पति भी नहीं है। मेरी भी मदद हो जाएगी और उसकी भी।पर ये मेरी सुनते कहाँ हैं। नौकरी भले ही न हो पर इंसानियत के नाते हम एक दूसरे के काम तो आ ही सकते हैं।"
सार्थक दोनों की बात सुनता रहा पर अपनी गलती के कारण चुप्पी साधकर चाय की चुस्की लेता रहा ।
"मैडम जी ये लीजिये। मेरे खेत में हरी सब्जी उगी थी।इसलिए मैं कई बार देने आई, मगर कोई दिखा ही नहींं, तो मैं बाहर से ही चली जाती थी। आज इत्तेफाक से साहब दिख गए तो अंदर तक आ गई।"
"अरे सलोनी इसकी क्या ज़रूरत थी। सब्जियां तो हम रोजाना ही खरीद लेते हैं। ऐसा करो सब बात छोड़ो रोज आ जाया करो। तुम्हें पगार मिलती थी उतनी ही मिलेगी कोई कटौती नहीं होगी।इसकी चिंता मत करो।इनकी नौकरी गई है मेरी नहींं,लॉक डाउन जरूर है,मग़र जरूरतें कम नहीं है। मुझसे अधिक जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है।"
"ठीक है मैडम जी,पर आप इतनी गहराई से सोचती हैं मुझे आज मालूम हुआ। साहब! आप बहुत किस्मत के धनी हैं कि देवी जैसी मैडम जी आपकी जीवन संगिनी हैं।आज के ज़माने में इतनी इन्सानियत कहाँ है। आज पता चला आप जैसे पैसे वालों के पास भी इंसानियत जिंदा है, वरना हम जैसे गरीबों के बारे में कौन इतना सोचता समझता है।"
कहते कहते सलोनी की आंखें सजल हो गई।
"अरे बस भी करो। इतनी तारीफ़ की पूल मत बाँधो,कि ये कहीं अपनी इंसानियत ही खो बैठे।सलोनी! तुम्हारे अंदर भी तो इंसानियत है , तभी तो थैला भरकर सब्जी लाई हो।"
सार्थक,निकिता को चिढ़ाते हुए चुप्पी को तोड़ा।
"बिल्कुल! तुम्हारे इस बात से सहमत हूँ कि सलोनी के भीतर हमसे अधिक इंसानियत है।सच में सलोनी तुम वाकई में बधाई के पात्र हो। खुलकर दिल से सबकी मदद करती हो।गरीबी और महामारी से जूझकर जो आगे कदम बढ़ाए वहीं एक सच्चा इंसान है।"
सलोनी धूमिल सी साड़ी पहनी हुई,हाथ में नाम मात्र का सफेदी लिए एक मटमैला सा थैला सब्जी भरी पड़ी लेकर खड़ी थी,जो टूटी सी चप्पल पहनी हुई , माथे पर एक काली सी बिंदी, और आँख में काजल व होंठों पर हल्की सी लाली लगाई हुई थी जो उसके साँवले रँग में भी काफी फब रही थी।
"रुको!बैठो तुम, तुम्हारे लिए चाय लाती हूँ और बच्चों के लिए मिठाई, मैं कल ही घर पर स्वादिष्ट खोये की मिठाई बनाई हूँ।"सलोनी को बैठाकर रसोघर की ओर निकिता एक फुर्तीले कदम से बढ़ गई।