कड़वा सच
कड़वा सच
कविता की शादी हुए आज दस वर्ष हो गए थे,पर उसके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
उसका पति योगेश आए दिन शराब के नशे में धुत्त रहता। उसे अपनी बीवी, बच्चों से ज्यादा मतलब नहीं रहता।
यह सब कविता जानते हुए भी कुछ नहीं बोलती। जब मन भर जाता योगेश की हरकतों को देखकर... तब मन ही मन सोचती कि इसको छोड़कर चली जाऊंगी अपने घर (मायके) पर अगले ही पल ना जाने क्या सोच कर वह अपने मन को शान्त कर लेती।
वह रोजाना की भांति एक दिन घर के काम धाम को निबटा कर वह तैयार होकर अपने घर की बालकनी में बैठ कर अपनी पड़ोसन विनीता से बात करने लगी, तभी उसका पति योगेश अचानक अा धमका और आते ही कविता पर गलियों की बौछार करते हुए उसके चरित्र पर भी उगली उठाने लगा।
"तुम इतना सजसंवर कर क्यों बैठी हो ? जरूर तुम्हारा मोहल्ले में किसी से टांका भिड़ा है, इसलिए तुम इतना बन ठन कर बैठी है।"
यह सब सुनकर पड़ोसन विनीता बोल पड़ी - " कविता जी आप यह सब सुनकर कैसे चुप रहती हो? मान लेती हूं कि गाली गलौज , नोक झोंक तो हर पति - पत्नी में हो ही जाते है। पर इन्होंने तो हद ही कर दिया। आप जैसी पत्नी के चरित्र पर उंगली उठाकर....
मै होती तो कबका छोड़कर चली गई होती।"
कविता सुबकती हुई आंचल से आंसू पोछती हुई बोली - चली तो गई होती पर ...... कहां जाऊं, किसके घर जाऊं, ये समाज भी हम औरतों को कहां चैन से सांस लेने देता है।
मान लीजिए मां के घर भी जाऊं तो वहां भी कब तक लोग सुकून से रहने देंगे। जो मेरे अपने अभी पूछ रहे है कल के समय में वहीं हमें दुत्कार कर रोटी देंगे और अगर कहीं हम अकेले रहने को सोचे तो आप जैसे लोग ही हमें सिर उठाकर जीने नहीं देंगे। इसलिए सब सोच कर हर दर्द सहकर अपने बच्चों के लिए जीती हूं, और हां जैसे भी है ये मेरे बच्चों के पिता है।
यह सब सुनकर विनीता के रोंगटे खड़े हो गए और रुंधी हुई गले से बोली - हां कविता जी आप बिल्कुल सही कह रही है यही एक कड़वा सच है।