Dr Jogender Singh(jogi)

Romance

4.5  

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सीता भाग 2

सीता भाग 2

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" चाय बना दूँ ?" सीता ने समीर को पूजा कर आते देखा । 

"अदरक डाल देना और तुलसी की पती भी , गले में ख़राश लग रही है ।" समीर प्यार से बोला ।

" जी " सीता धीरे से बोली । अदरक कूटते हुए ददाहु की वो छोटी सी चाय की दुकान याद आ गयी मुझे यानी सीता को ।विशाल के साथ में खिंची चली गयी चाय की दुकान तक । 

" दो चाय अदरक वाली " विशाल चाय वाले से बोला । बन मक्खन खायेंगी आप ? 

"नहीं बस चाय ! मैं धीरे से बोली ।"भूख तो मुझे लग आयी थी पर कहते नहीं बना । 

"आपने कितनी पढ़ाई की है ? 

"मैंने सिर्फ़ दूसरी तक पढ़ाई की है और आप ने? "

" मैंने ग्रैजूएशन किया है " विशाल बोला । पर पढ़ाई में मन कभी नही लगा । पिताजी ने डाँटा तो घर से भाग आया , यहाँ नौकरी करने ।" विशाल बेपरवाही से बोला । 

मुझे विशाल की यह बात ठीक नहीं लगी पर मैं हूँ कर के रह गयी ।ऐसे कोई पिताजी की बात का बुरा मान सकता है कि घर ही छोड़ दे , होगी इस की ही गलती ।बातें बना रहा है । चाय खतम हो गयी , मैं गिलास रख तेज़ी से घर की तरफ़ चली । 

" मैं छोड़ दूँ साइकल से ? " विशाल ने पूछा । 

नहीं !! मैं चली जाऊँगी , पास में ही तो है । 

फिर कब मिलोगी , उसने ने अधिकार से पूछा था । 

मुझे अच्छा लगा उसका यूँ अधिकार से पूछना । "देखते हैं कब मौक़ा मिलता है " दिखाने के लिए मैं बेपरवाही से बोली । मैं जा रही हूँ , अब मत बोलना कुछ भी , वो सामने रामसरन चाचा आ रहें है। मैं चली तो आयी , साथ में उस को अपने दिल में बसा लायी थी ।मेरे ख़्यालों में विशाल ही विशाल रहने लगा ।मेरे जीवन के रेगिस्तान में विशाल एक नख़लिस्तान की तरह था ।उसकी जात तो पूछी नहीं , न घर का पता । अगली बार सबसे पहले जात पूछूँगी , ब्राह्मण की लड़की हूँ आख़िर । हमउम्र सहेली तो मेरी कोई है नहीं , तो किसको दिल का हाल बताऊँ । मैंने घास के गट्ठर को खोला , एक बाजू भर घास फूलमा और बाक़ी घास बिंदिया के सामने डाल दिया । फूलमा मेरी सबसे प्यारी गाय । मैंने विकास के बारे में फूलमा से बातें करनी शुरू कर दी ।

जानती हो , कितना सुन्दर है वो ? फूलमा की गर्दन सहलाते हुए मैंने बोला , बहुत सुन्दर है । फूलमा घास ख़त्म कर चुकी थी , उसने अपनी गर्दन तान दी , गर्दन सहलाना उसको बहुत अच्छा लग रहा था । मैंने थोड़ा ज़ोर से उसकी गर्दन पर हाथ चलाया तो उसने अपना सिर ज़मीन से टिका दिया । मानो कह रही हो " सहलाती रहो "। बस !! मैंने उसकी गर्दन पर थपकी दी । उसने अपनी गर्दन ऊपर उठा ली । फूलमा की आँखों में ढेर सारा प्यार और आभार था मेरे लिए । विशाल की आँखों में ऐसा प्यार था क्या ? फूलमा जैसा , मैं सोच में पड़ गयी ।

नहीं , विशाल की आँखें कुछ तो छिपा रही थी । फूलमा की आँखों से बहती प्यार की रसधार एक तृप्ति दे रही है , इसकी आँखों में कोई दुराव / छिपाव नहीं दिखता ।

हुँह !! पागल हूँ मैं , जानवर और इंसान के प्यार में फ़र्क़ नहीं होगा क्या ? पर जो सुकून फूलमा के साथ में मिलता है वैसा विशाल के साथ क्यों नहीं मिलता । फूलमा को बाहर धूप में खूँटे से बाँध ,मैंने पानी की बाल्टी उसके सामने रख दी । एक बार में उसने आधी बाल्टी ख़ाली कर ,अपना मुँह हटा लिया । और पियेगी ? फूलमा ने बाल्टी की तरफ़ नहीं देखा । मैंने बाक़ी बचा पानी बिंदिया के सामने रख दिया । बिंदिया घूँट / घूँट कर पानी पीती रही । मैंने फूलमा और बिंदिया का गोबर उठा कर उनकी जगह को साफ़ कर दिया । कल बाक़ी बातें करेंगे , मैंने फूलमा को भीतर साफ़ सुथरी जगह पर बाँध दिया ।

कुछ तो ख़ास है , इस विशाल में । जाने क्यों इतना याद आता है । पता नहीं कब मिलना हो । एकादशी पर मेला लगेगा , उस में ज़रूर जाऊँगी । एकादशी को तो अभी सात दिन बाक़ी हैं ।एक बात बताऊँ आपको मोबाइल फ़ोन तो दूर की बात उन दिनों लैंडलाइन भी बहुत कम होते थे । मेरे पास सात दिन इंतज़ार करने के अलावा कोई चारा नहीं था ।

किस तरह से यह सात दिन बिताए , बता नहीं सकती । मेले वाले दिन जयमंती ताई , महिमा चाची के साथ मेला देखने चली तो अपनी तरफ़ से खूब तैयार हुई थी । मेले के बहाने विशाल को देख लूँगी , बात करने का मौक़ा तो शायद ही मिले । सुबह / सवेरे हम तीनों और गाँव के कुछ मर्द मेले के लिए चल पड़े । उपवास रखे हैं सब लोग , झील में स्नान करने के बाद ही कुछ खाने को मिलेगा । जल्दी / जल्दी झील के ठंडे पानी में नहा कर कपड़े बदल रही थी , कि एक जानी / पहचानी फुसफुसाहट सुनाई दी । यह तो विशाल की आवाज़ है , किस से बातें कर रहा है ? मैं झाड़ियों के पास सरक आयी । सामने विशाल किसी लड़की के सिर से सिर भिड़ाये प्यार भरी बातें कर रहा था । उसकी पीठ मेरी तरफ़ थी । मेरी हालत लकवे के मरीज़ सी हो गयी । मैं तेज़ी से दौड़ती हुई महिमा चाची के पास पहुँची । क्या हुआ ? मेरे सफ़ेद पड़ गए चेहरे को देख चाची ने पूछा । झाड़ियों में साँप देख लिया क्या ? 

"हाँ" —- मैं मुश्किल से बोली ।

"देवी माँ की कृपा से यहाँ के साँप किसी को नहीं काटते , बिल्कुल मत डर "चाची ने मुझे समझाया ।

"जी "- मन ही मन सोच रही थी , देवी माँ की कृपा से ही विशाल नाम के साँप से बची हूँ । पर मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ होता है ? 

अभी मैं आगे बताने की हालत में नहीं हूँ आप समझ रहें हैं ना ? माफ़ी के साथ विदा चाहती हूँ , बाक़ी क़िस्सा किसी और दिन । —- पक्का ।।



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