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कलम ज़ादे

Abstract

5.0  

कलम ज़ादे

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शर्मिन्दगी

शर्मिन्दगी

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मेरा कुसूर नहीं था। जो सच था, बस वही लिख दिया। मानो कयामत बरपा हो गई। लाल मिर्च की तरह कड़वा सच बहुत से लोगों को भीतर तक जा लगा। ऊपर से नीचे तक बिलबिला गए। बदहजमी ऐसी हुई कि उल्टी किए बिना रहा भी नहीं गया। बात उन दिनों की है जब धर्म-मजहब, मेरा धर्म, तेरा धर्म और उत्तेजना फैलाने वाले शब्दों का इस्तेमाल पूरी तरह से आम हो चुका था। फसाद होने पर एक पक्ष अथवा दूसरा पक्ष या एक गुट-दूसरा गुट का संबोधन न कर सीधे-सपाट शब्दों में पीडि़त अथवा आरोपी का नाम और उसकी जाति का उल्लेख ऐलाने-जंग की तरह खुलकर किया जाने लगा। गंगा-जमुनी तहजीब की बयार में सुकून से जी रहे लोगों के दिलों में नफरत के बीज बो दिए गए।

फूट डालो, राज करो की नीति भी पानी-पानी होती नजर आने लगी। गलबहियां कर साथ-साथ घूमने वाले भी अब सामने से अजनबियों की तरह गुजर जाते। पुराने शहर में धार्मिक उत्सव के दौरान मामूली बात को लेकर दो पक्ष आपस में जा भिड़े। जैसा कि मेरे वतन में होता आया है, ऐसे हालात में दंगा-फसाद होना तय था। आगजनी, पथराव, लाठीचार्ज, आंसू गैस, फायरिंग, हवाई फायरिंग।

सबकुछ हुआ था उस रात। दोनों पक्षों ने जैसे सौगंध ले रखी थी कि किसी से कम नहीं रहना। बहुतन पुलिसकर्मी भी घायल हुए। फसाद पर काबू पाने के लिए मैदान में कूद पड़े एक साहसी, दबंग आला अफसर को बेहद गंभीर चोटें आई। इतनी गंभीर कि इलाज के लिए एयरलिफ्ट कराना पड़ा। अगले दिन सुबह शहर में दहशत का माहौल था। आनन-फानन में पुलिस ने आगजनी, पथराव, मारपीट, चाकूबाजी व हत्या का प्रयास और आधा दर्जन से अधिक आईपीसी की अन्य धाराओं के तहत आधा दर्जन से अधिक प्रकरण पंजीबद्ध किए। इनमें एक मुकदमा घायल आला पुलिस अफसर की ओर से भी कायम किया गया। घटना बड़ी थी। वो भी मेरे गरीबखाने से पांच मिनट के वाकिंग डिस्टेेंस पर। लिहाजा घरवालों के मना करने के बाद बावजूद रात में ही दो-तीन चक्कर लगा आया था। हालत बेहद खराब थे।

इलाके में कफ्र्यू लगा दिया गया था। सुबह दफ्तर में बैठा में इस फसाद की खबर बना रहा था। दोपहर 12 बजे तक अखबार छोडऩे का चलन था। संपादक ने भी कह रखा था कि आज इससे बड़ी कोई खबर नहीं है। इसीलिए सिर्फ इसी पर एकाग्र रहो। शहर के हालात को देखते हुए अखबार के मालिक भी संपादक के पास आकर विचाराधीन हो गए थे। फोन पर एक पुलिस अधिकारी से बातचीत हुई तो पता चला कि महकमा काफी नाराज है आला पुलिस अफसर के चोटिल होने से। आक्रोशित पुलिसकर्मी तो यह कहने से भी नहीं चूके कि ऊपर से आर्डर नहीं मिले, वरनाबता देते। लेकिन पुलिस की कार्रवाई देख मैं अचम्भित था। आधा दर्जन से अधिक मुकदमे पंजीबद्ध हुए और वो भी सिर्फ एक ही पक्ष के खिलाफ । दूसरे पक्ष को पूरी तरह से क्लीन चिट दे दी गई क्या। लेकिन, क्यों।

जोर आजमाइश तो दोनों तरफ से हुई थी। संपादक को जब इस बात की जानकारी हुई तो वो भी हैरान हुए। फौरन मालिक को जानकारी दी गई। यह तो पुलिस की अनूठी कार्रवाई है। अखबार मालिक और संपादक के विचार-विमर्श करने के बाद प्रथम पेज पर बड़ी सारी खबर लगाई गई। शीर्षक भी कुछ इसी तरह का था, पुलिस की अनूठी कार्रवाई जैसा। बाजार में अखबार आते ही लोगों पर असर हुआ हो या न हुआ हो, प्रतिद्वंद्वी और कुछ साथ काम करने वाले साथियों को अवश्य हुआ था। अखबार के बाजार में गिरते ही अखबार मालिक और संपादक को फोन आना शुरू हो गए। कथित तौर पर साथ काम करने वाले दूसरे पत्रकार भी आला पुलिस अधिकारियों को बरगलाने में कामयाब रहे। अधिकारियों ने अखबार मालिक को फोन कर मुझे नौकरी से हटाने का दबाव बनाना शुरू कर दिया। कहा गया कि ऐसी खबर पढ़कर लोगों में आक्रोश पैदा होगा। दंगा भड़क सकता है।

दंगा भड़क सकता है, सच जानकर। मैं कतई नहीं घबराया। आखिर क्यों। इस बीच मेरे नजदीकी रहे साथी फोटोग्राफर का फोन आ गया। मैं घर पर था। बिस्तर पर लेटा सोच रहा था कि कुछ देर बाद बाहर निकलूंगा। हालात का जायजा लेने। अचानक फोन आने से उठकर बैठ गया। फोटोग्राफर ने जो बताया वो हैरान करने वाला था। मालिक और संपादक को भड़काया जा रहा है। आपके अपने साथी यह काम कर रहे हैं। वही, जो आपके साथ बाहर जाते हैं चाय-सिगरेट पीने। बहरहाल, जो भी हो। सच तो सामने आ ही चुका था। बंदूक से निकली गोली और तरकश से निकला तीर भी भला लौटता है कभी। लिहाजा, संतुलन बनाने के लिए पुलिस को बाद में दूसरे पक्ष के खिलाफ भी मुकदमे दर्ज करना पड़े। आखिरकार सच्चाई की ही जीत हुई लेकिन सच कहूं तो, इस घटना के बाद मेरा मन खट्टा हो गया। ऐसी जगह काम क्या करना, जहां ढेर सारे आस्तीन के सांप फन फैलाए डसने के लिए घात लगाए बैठे हों। अगले ही दिन मैंने अखबार मालिक को मोबाइल फोन पर मैसेज भेज दिया। दो लाइन का। माफी चाहता हूं। शर्मिन्दा हूं। अधिकारियों की हां में हां नहीं मिला सका। सच लिखने का साहस कर बैठा था। अब आपकी संस्था में काम नहीं कर सकता। दो लाइन को ही मेरा इस्तीफा समझा जाए। नमस्कार। मैसेज करने के बाद कुछ मिनट तक में खामोश बैठा सन्नाटे से रूबरू होत

ा रहा। कुछ समझ नहीं आ रहा था लेकिन काफह हल्का महसूस कर रहा था। मानो लंबी जेल काटकर खुले आसान के नीचे खड़ा होकर सूरज देख रहा हूं। अब कुछ दिन बाद ही नए ठिकाने की तलाश शुरू करूंगा। खुद ही दिल और दिमाग को समझा दिया। कम से कम एक हफ्ते तक तो इस ओर सोचूंगा भी नहीं। लेकिन रहा नहीं गयालोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का आयाम तलाशने की जद्दोजहद में एक बार फिर एक सुलझे पत्रकार की हैसियत से मैंने दूसरा समाचार पत्र ज्वाइन कर लिया। यूनिट के सभी लोगों से ठीक से परिचय नहीं हुआ था, लेकिन कुछ-कुछ चेहरे पहचान में आने लगे थे।

जो पूरी तरह से अनजान थे वो कनखियों से तो कुछ तिरछी नजर से देख लेते थे। दिनभर अपराध संबंधी कुछ खास घटनाओं का लब्बो-लुआब जमा कर उस रोज शाम ठीक पांच बजे ऑफिस पहुंच गया था। मौसम काफी खुश्क था। मेरे सिर के ठीक ऊपर लगा सीलिंग फेन बंद होने से खासी गरमी लग रही थी। एयर कंडीशन खराब हुए दो साल बीत चुके हैं और फिलहाल दुुरुस्त होने के कोई आसार भी नजर नहीं आ रहे। लिहाजा शर्ट के ऊपर के दो बटन खोलकर कम्प्यूटर पर समाचार बनाने में जुट गया। इससे पहले जिस न्यूज एजेंसी में था वहां कम से कम मूलभूत सुविधाओं की कमी तो नहीं थी।

खैर, अपराध संबंधी दो-तीन मुख्य समाचार बनाने के बाद मैंने 10-15 मिनट का ब्रेक लेने का फैसला लिया। कुर्सी पर बैठे-बैठे नजरें दौड़ाईं। दीवार पर लगी घड़ी की सुईयां छह बजने का इशारा कर रही थी। तकरीबन सभी रिपोटर्स आ चुके थे और अपने-अपने काम में व्यस्त थे। शाम की चाय भी आती होगी। चाय पीने के बाद काम करने का अपना अलग ही मजा है। लेकिन, मैं तो चाय भी नहीं पी सकता।

बगल में बैठे जायसवाल जी से ही बतिया लेता हूं। क्या चल रहा है जायसवाल जी। हमेशा की तरह मनमोहनक मुस्कान के साथ उन्होंने मेरी और देखा और कुछ कहने को हुए ही थे कि मिश्रा जी आ गए। ऑफिस के मुख्य द्वार के पास पेस्टिंग विभाग में बटर पेपर की कटिंग कर पेज और प्लेटें बनाई जाती हैं। मिश्रा जी उसी पेस्टिंग विभाग के प्रमुख थे। नवाबी स्टाइल में पान मुंह में हमेशा दबा रहता था। पान के किस कदर शौकीन थे इसका अंदाजा पेेस्टिंग विभाग के बाहर की दीवार को देखकर लगाया जा सकता है। पान की पीक से तर दीवार पर हर तरह की आकृति की कल्पना की जा सकती है। बहरहाल, मेरी ओर देखते हुए मिश्रा जी संबोधित हुए।

पहले तो अपराध संबंधी फीचर स्टोरी की प्रशंसा करते हुए कहने लगे कि भाई साहब, बहुत अच्छा लिखते हैं आप। खासतौर से बच्ची से बलात्कार व हत्या वाली आज की स्टोरी तो बहुत ही शानदार है। मजा आ गया पढ़कर। इतना कहकर खींसे निपोडऩे लगे। मुंंह इतना खुल गया कि दबा पान और दांतों में फंसे पान के टुकड़े साफ नजर आ गए। बोलते समय मुंह पर पानी की बौछार सी महसूस हुई। मानों तेज चलते कूलर से पानी के छींटे मुंह पर पड़ गए हों। लेकिन मुंह पर मेरी तारीफ कर रहे थे इसलिए मुंह पर थोड़ा सितम तो झेलना ही पड़ेगा।

जल्द ही समझ आ गया कि मिश्रा जी किसी और ही मतलब से आए थे। अरे भाई साहब, जरा एक बात कहना है आपसे। आप तो क्राइम रिपोर्ट हो। पुलिसवालों से तो काफी पहचान होगी। जरा मोहल्ले के लड़कों के बारे में कह दो टीआई साब से। साले, बहुत बवाल मचाते हैं मोहल्ले में। मना करो तो मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। गद्दार कहीं के। सालों की कौम ही ऐसी है। सारे के सारे देशद्रोही हैं। मैने कनखियों से जायसवाल जी को देखा। वो मुझे देखकर हौले-हौले मुस्कुरा रहे थे। मैंने भी थोड़ा सा उनका साथ दे दिया। आवेश में मिश्रा जी बोले जा रहे थे। अरे, हमारा भतीजा 307 में जेल में बंद है। अगर वो बाहर होता तो इन सालों की हिम्मत नहीं होती।

दूसरा भतीजा भी जेल में है। पुलिस ने जबरन उस पर झूठा मुकदमा जड़ दिया अवैध शराब बेचने का। मैं तो कहता हूं भाई साहब, इन गद्दारों पर भी दो-तीन अच्छी-अच्छी धाराएं लगवा कर जेल रवाना करवा दो। दिमाग ठिकाने आ जाएंगे सालों के। मेरा बस चले तो सारे के सारों को बंगाल की खाड़ी में फिकवा दूं। देश को बरबाद कर रखा है। एक बार फिर मेरी नजर पड़ोस में गई। जायवाल जी मुस्कुरा तो रह थे लेकिन इस बार उनकी नजर मेरी ओर नहीं बल्कि ऊंगलियां की-बोर्ड पर और नजर कम्प्यूटर स्क्रीन पर थी।

अचानक उन्होंने मेरी और देखते हुए कहा, अरे भाई यहीं पर बैठे हो। जाना नहीं है क्या। घड़ी पर भी एक नजर मार लो। सहसा मेरी नजर दीवार खड़ी पर चली गई। शाम के सात बजने वाले थे। कम्प्यूटर स्क्रीन मिनिमाइज कर तेजी से उठ खड़ा हुआ। मैंने मिश्रा जी से कहा कि माफी चाहता हूं। अभी मुझे जाना है। रोजा खोलने के बाद नमाज पढ़कर आऊंगा। करीब आधा घंटा बाद आप आ जाना, फिर देखता हूं।

आपकी समस्या का क्या समाधान हो सकता है। मिश्रा जी को मानो काटो तो खून नहीं। चेहरा हक्का-बक्का रह गया। मुंह में दबे पान ने भी चलना बंद कर दिया। कुछ पल मेरी तरफ देखने के बाद उनकी आंखें नीचे फर्श की ओर चली गई। मैं तेजी से बड़े-बड़े कदम भरता ऑफिस से बाहर मस्जिद की ओर चल पड़ा।


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