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कलम ज़ादे

Abstract

4.3  

कलम ज़ादे

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अगला स्टेशन

अगला स्टेशन

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छत्रपति शिवाजी टर्मिनस मुम्बई के प्लेटफार्म क्रमांक-14 पर भोपाल की ओर आने वाली ट्रेन तैयार खड़ी थी। दस मिनट बाद ट्रेन का प्रस्थान समय है...। सुबह की ठंडक और ताजगी भीतर तक सुखद अहसास करा रही थी। हमेशा की तरह प्लेटफार्म पर भीड़ बहुत अधिक थी। जिनके पास रिजर्व बर्थ के टिकट थे, वे आराम से तेज कदमों वाली चहल-कदमी करते हुए अपनी डिब्बे की ओर जा रहे थे। काफी सारे यात्री पहले ही अपनी-अपनी सीटों पर जा जमे थे। बोगी की खिड़कियों के पास खड़े लोग परिचित अथवा रिश्तेदार यात्रियों के साथ बतियाने में व्यस्त थे। कंधे पर बैग लटकाए समीर भी भारी कदमों से आगे बढ़ रहा था। उसे इस समय उन लोगों से बेहद कोफ्त और जलन हो रही थी जो अपनी-अपनी सीट पर सुकून से जमे हुए थे। कुछ हाथ में टिकट लेकर अपने नंबर की बर्थ तलाश करने में मशगूल नजर आ रहे थे। जल्द ही उन्हें भी अपनी-अपनी सीट मिल ही जाएंगी। लेकिन, वह खुद...। उसका क्या होगा...!

वह कौन सी सीट अथवा बर्थ पर बैठेगा। उसके पास तो टिकट तक नहीं है। ट्रेन का टिकट तो छोडि़ए, उसके पास तो प्लेटफार्म टिकट तक नहीं है। कितना बड़ा जोखिम उठाकर वह मुंबई के उपनगर अंधेरी से लोकल ट्रेन में सवार होकर सीएसटी स्टेशन तक पहुंचा था। समीर अच्छी तरह जानता था कि लोकल ट्रेनों और स्टेशनों पर कितनी सख्ती के साथ टिकट चैक किए जाते हैं। लेकिन आज उसे हर हाल में अपने शहर के लिए रवाना होना था। अगर वो आज नहीं निकला तो...! कितने बुरे-बुरे ख्याल आना शुरू हो गए थे। वो एक क स्ट्रगलर ही तो था। दूसरे हजारों-लाखों लोगों की तरह वो भी तो बेहद खूबसूरत, बेहद हसीन सपने साकार करने सपनों की नगरी में आया था। सुन भी रखा था कि रोजाना जितने लोग यहां सपने सजाकर आते हैं उससे भी ज्यादा तादाद में निराश होकर लौटते भी हैं। लेकिन आशा...उम्मीद पर ही तो यह ब्रह्मांड टिका है। फिर मैं क्यों न अपना भाग्य आजमाने यहां आता। पिछले कुछ सालों से जमा भी तो हूं। सौगन्ध ली थी कि कभी अपने माता-पिता से पैसे नहीं मांगूंगा। ईश्वर ने लाज भी रखी...। जितना काम करके कमाता, उतना वहीं खर्च हो जाता। कुछ बचत ही नहीं कि घर भेज सकूं। बस, यही कसक, यही टीस सालती रहती हैं। बीते दो माह से काम बंद था। किसी तरह गुजारा किया कि चलो, आज नहीं तो कल काम शुरू हो ही जाएगा। लेकिन फिलहाल तो कोई उम्मीद ही नजर नहीं आ रही।

पैसे बचे नहीं थे। अजनबी शहर में कोई अपना भी नजर नहीं आया। फिर किसके सहारे खाली जेब लिए फिरता। अपने शहर लौटूंगा तो सुकून तो मिलेगा। दो रोटी तो खा सकूंगा चैन से। अपने लोग दिखेंगे, अपनी सडक़ें, अपने रास्ते, जाने-पहचाने चेहरे और सबसे अच्छी जान-पहचानी खुशनुमा हवा...। पैसे तो खतम हो ही गए थे लेकिन लौटना भी हर हाल में था। लिहाजा ईश्वर का नाम लेकर वह लोकल ट्रेन में सवार हो गया था। जेब में सिर्फ पांच रुपए का एक सिक्का बचा था। उससे न तो टिकट खरीद सकता था और न ही वड़ा-पाव। सोचा आगे कहीं जाकर चाय पी लूंगा। पांच रुपए का सिक्का संभाल कर रख लिया। र्ईश्वर की कृपा देखिए, लोकल ट्रेन में किसी टीसी ने टोका तक नहीं। जबकि बांद्रा स्टेशन पर लोकल ट्रेन बदलकर वह हार्बर लाइन की लोकल में भी सवार हुआ। सीएसटी स्टेशन पर लोकल से उतरने के बाद प्लेटफार्म क्रमांक-14 तक पहुंचने में उसका दिल सौ-गुनी रफ्तार से धडक़ता रहा था। न जाने कब किसी टीसी या पुलिस वाले का हाथ भीड़ को चीरता हुआ उसकी गिरेबान तक पहुंच जाए। चलते-चलते ट्रेन के इंजन के पास पहुंच गया। इंजन के पीछे ही तो लगा था जनरल डिब्बा। लेकिन, यह क्या...।

जनरल डिब्बे में तो पैर रखने तक की जगह नहीं थी। सीट अथवा बर्थ की बात तो छोडि़ए, नीचे फर्श और ऊपर अर्श यानि डिब्बे की छत पर पंखे से कपड़ा बांधकर यात्री लटके हुए थे। ऐसा लगा मानो किसी कसाई ने छोटी सी गाड़ी में बहुत सारे जानवर जबरन ठूंस दिए हों। खिडक़ी से भीतर का नजारा देख समीर के होश उड़ गए। डिब्बे के दोनों मेनगेट से भीतर घुसने की कल्पना बेमानी लग रही थी। पर क्या करूं...! घुसना तो पड़ेगा। एक बार फिर ईश्वर का नाम लेकर मेनगेट के पायदान पर पैर रखकर लटक गया। कंधे पर लटका बैग यहां-वहां लहराने लगा। मेनगेट पर खड़े यात्री चिल्लाए, अबे कहां घुसा जा रहा है...। जगह दिख रही है क्या तुझे। ट्रेन चल दी तो लटका-लटका भगवान को प्यारा हो जाएग। उनकी बातें मस्तिष्क में किसी भारी हथौड़े की तरह चोट कर रही थीं। लेकिन उनकी बातों को अनसुना करता में पायदान से टस से मस नहीं हुआ। बस, इस फिराक में था कि ट्रेन के दरवाजे का लोहे का पाइप किसी तरह हाथ में आ जाए। थोड़ी सी मेहनत और धैर्य के बाद पाइप भी हाथ में आ गया। हिम्मत बड़ी तो घिघियाते हुए बोल पड़ा, भाई थोड़ी सी जगह दे दो, खड़े होने की...। दुनिया में सभी लोग एक जैसे नहीं होते, इस कहावत का सीधा कायाकल्प होते देखा। दो-तीन लोगों

ने यहां-वहां खिसक कर मेरे लिए जगह बना दी। डिब्बे के मेनगेट पर खड़े होने के बाद मुझे अजीब से खुशी हुई, लगा कि जंग जीत ली हो।

प्रसन्नता को उस समय पर लग गए जब एक झटके के साथ ट्रेन चल पड़ी। मुंबई के छोटे-छोटे लोकल स्टेशन व उपनगर को पीछे छोड़ती हुई ट्रेन तेज रफ्तार से आगे दौड़ी जा रही थी। देखा कि ट्रेन के चलते ही मुसाफिर अपनी-अपनी जगह बनाकर बैठने लगे हैं। हांलाकि भीड़ पहले जैसी ही थी लेकिन न जाने क्यों ठसाठस जैसा माहौल अब नहीं लग रहा था। ज्यादातर मेहनतकश लोग सवार थे। ट्रेन की रफ्तार और तेज हवा के झोंको से मुसाफिरों के पसीने की बदबू अब काफी हद तक कम हो गई थी। हिल स्टेशन कसारा घाट को पार करती हुई ट्रेन इगतपुरी स्टेशन पर आ गई।

यहां इंजन की अदला-बदली होना थी इसलिए ट्रेन काफी देर यहां रुकने वाली थी। सभी लोग चाय-नाश्ते और खाने-पीने में व्यस्त हो गए। फेरी वाले भी इतनी भीड़ होने के बाद भी डिब्बे में इस गेट से घुसकर उस गेट तक आराम से ऐसे गुजर जा रहे थे मानो पार्क में टहल रहे हों। भूख तो मुझे भी बहुत लग रही थी, लेकिन क्या करूं...। फिर ख्याल आया कि अरे, जेब में पांच रुपए का सिक्का तो पड़ा है। तेजी से जेब टटोली तो एक कोने में पड़ा मिल गया। इस एक सिक्के का क्या करूं। खाने का ऐसा कुछ आएगा नहीं कि पेट भर जाए। फिर सोचा, क्यूं न चाय पी ली जाए। थोड़ी तरावट, थोड़ी एनर्जी की आ जाएगी। अंतिम फैसला लेकर मैंने चायवाले का आवाज लगा दी। चायवाला मेरे

पास आए इससे पहले ही एक आवाज ने मुझे चौंका दिया।

टिकिट...! काला कोट पहने टीसी सामने खड़ा था और सिर्फ मुझसे ही टिकिट मांग रहा था। कुछ देर तक उसकी सूरत देखता रहा। समझ ही नहीं आया कि क्या जवाब दूं। अधेड़ उम्र का टीसी बेहद रुआबदार दिख रहा था। पूरा पुलिस वाले की तरह। मैंने मरी आवाज में कहा, टिकिट तो नहीं है मेरे पास...।

क्या, टिकिट नहीं है, मतलब... टीसी कडक़ लहजे में बोला।

कुछ समझ नहीं आया, क्या बोलूं...। सच बोला तो सीधे हवालात भेज देगा।

मैंने सफेद झूठ बोलते हुए कहा, टिकिट खरीदकर प्लेटफार्म की तरफ आ रहा था। इस बीच भीड़ में किसी ने पर्स निकाल लिया। टिकिट और करीब दो हजार रुपए उसी में रखे थे।

टीसी ने गुस्से से मेरी और देखा। मेरा दिल जोर-जोर से धडक़ने लगा। अब क्या करेगा यह।

उसने नीचे से ऊपर तक मुझे संदेह की निगाह से देखा। फिर बोला, हुलिए से तो अच्छे घर के लगते हो।

मैंने तपाक से बोला, जी हां...। मैं साइंस ग्रेजुएट हूं। यहां मुंबई में पांच साल से काम कर रहा हूं।

क्या काम करते हो... ? टीसी ने फिर पूछा।

मैंने कहां-सर, मैं सहायक कैमरामैन हूं। छुट्टियों में अपने घर भोपाल जा रहा था। इस बीच जेब कट गई।

टीसी सर्द और कडक़ लहजे में बोगी में सवार लोगों की भीड़ की ओर इशारा करता हुआ बोला- जानते हो, इस भीड़ में कुछ लोग ऐसे भी होंगे तो तुम्हारी तरह बिना टिकिट हों। गरीबी के चलते यह लोग टिकिट नहीं खरीद पाते, फिर भी कानून तोडऩे की सजा इनका जरूर मिलती ही है। लेकिन तुम जैसे लोग, संपन्न होते हुए भी कानून तोड़ते हो। कानून का मजाक उड़ाते हो...। एक बार इन्हें छोड़ दूंगा लेकिन तुम जैसे कानून से खिलवाड़ करने वाले लोगों को छोडऩा सबसे बड़ी बेवकूफी होगी। डांटता हुआ टीसी मुझे बोगी से उताकर वहीं नजदीक की रेलवे पुलिस की चौकी ले गया। वहां मेरे बैग का सारा सामान चैक किया गया। सामान्य तौर पर पूछताछ की गई। इस बीच टीसी और चौकी प्रभारी ने भी आपस में बातचीत की। एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा, फिर मेरी तरफ देखते हुए टीसी बोला-जाओ, छोड़ते हैं तुम्हें। लेकिन आइंदा ऐसी गलती दुबारा न करना।

मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मैंने जल्दी-जल्दी अपना सारा सामान बैग में भरा और टीसी व पुलिसकर्मी से आज्ञा लेकर चलने लगा। लेकिन, अचानक ही मेरे पैर एक बार के लिए ठिठक गए। यहां तो बच गया लेकिन आगे क्या होगा...।

डरते-डरते टीसी से घिघियाते हुए कहा- सर, एक बात कहूं।

जी कहिए...! टीसी ने व्यंगात्मक लहजे में कहा।

सर, कुछ ऐसी रसीद या कागज-पत्तर दे दो, जिससे आगे पकड़ा जाऊं तो दिखा सकूं। कम से कम अपने शहर तक तो सही-सलामत पहुंच जाऊं। मैंने डरते-डरते कहा।

टीसी हैरानी से देखने लगा। फिा मुस्कुराते हुए बोला, जैसे यहां से बच निकले हो, उसी तरह आगे भी निपट लेना।

बिना कोई बहस किए मैं वहां से खिसक लिया और जनरल बोगी में अपनी जगह पर आकर खड़ा हो गया। इस वाक्ये के बाद डिब्बे में बैठे कुछ लोगों को मुझसे सहानुभूति हो गई। एक ने तो अपनी बर्थ पर बैठने के लिए थोड़ी सी जगह भी दे दी। वही चायवाला एक बार फिर सामने से निकला। पांच का सिक्का बढ़ाकर मैंने उससे चाय ले ली और सुकून से चुस्कियां लेने लगा। इंजन बदलते ही ट्रेन आगे चल दी।


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