कलम ज़ादे

Drama

5.0  

कलम ज़ादे

Drama

चुस्कियां

चुस्कियां

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घर से निकलते समय मन अशांत था...! खाली जेब और वाहन का ईंधन खत्म होने की आशंका...! रास्ते भर दुआ करता रहा। बस, सही सलामत ऑफिस पहुंच जाऊं। करीब दस किमी दूर है ऑफिस। बीच में थोड़ा सूना व जंगली इलाका भी पड़ता है, इसलिए थोड़ा भयभीत था कि बीच रास्ते में पेट्रोल खत्म होने की दशा में क्या करूंगा। मंदी की असर मेरी जेब पर भी पड़ा है। पिछले तीन माह से वेतन नहीं मिलने से घर चलाने के साथ-साथ गाड़ी चलाना भी मुश्किल हो रहा है।

कुल मिलाकर फिलहाल जीवन की गाड़ी उधारी के ईंधन पर चल रही है। खुदा ने भी सुन ली। बिना किसी दुश्वारी के ऑफिस पहुंच ही गया। अब लौटूंगा कैसे, यह बाद की बात है। रविवार होने के कारण आम दिनों की बनिस्बत दफ्तर में सन्नाटा पसरा हुआ था। वैसे अख़बार के दफ्तर में क्या रविवार और क्या सोमवार। साल में सिर्फ चार दिन होते हैं जब दफ्तर पूरी तरह से बंद होता है। गणतंत्र दिवस, स्वाधीनता दिवस, दीपावली और होली। बाकी ईद और बकरीद समेत अन्य कुछ मौकों पर ऐच्छिक अवकाश तय है। तबियत नासाज़ लग रही थी।

काम करने का बिल्कुल भी मन नहीं कर रहा था। सोच रहा था गरमा-गरम एक कप चाय मिल जाए तो काम करने की उर्जा में इज़ाफा हो...! चाय पीने के बाद स्फूर्ति सी आ जाती है। ठीक वैसे ही जैसे एक नशेड़ी 90 एमएल खींचने के बाद बौराने सा लगता है। भीतर से एक आवाज़ आई कि आज तो चाय मिलने से रही। सुबह कंपनी के सम्मान समारोह कार्यक्रम में व्यस्त होने के कारण चाय बनाने वाला मेहनती गुलाब तो अब तक घर भी चला गया होगा। इसी उधेड़बुन में था कि अचानक नथुनों में चाय की महक भीतर तक समा गई। उम्मीद में चार चांद लग गए कि अब तो चाय मिलना तय है। लेकिन यह क्या...!

इंतज़ार करते-करते आधा घंटा बीत गया। लेकिन कोई चाय लेकर नहीं आया। समझ गया कि वो चाय की महक मेरा वहम भर था। लिहाज़ा, बेमन से खुद को काम में व्यस्त करने की कोशिश करने लगा।

तभी कुछ हलचल होने का आभास हुआ। यहां वहां नज़रें दौड़ाई तो लगा कि आसपास कोई हलचल सी हो रही है। ऑफिस के कुछ वरिष्ठ सज्जन दबे पैर एक-एक कर अपनी सीट से उठकर एक निर्धारित दिशा की और रवाना हो रहे हैं। कैंटीन की तरफ...! कहीं यकायक मीटिंग तो नहीं बुला ली गई। मन में ख्य़ाल आया। लेकिन बॉस तो रविवार को होते नहीं। खैर, मैं दुबारा अपने काम में व्यस्त होने का यत्न करने लगा। लेकिन यह क्या, अभी दस मिनट भी तो नही हुए थे। सभी वरिष्ठ एक-एक कर अपनी सीट पर आकर बैठ गए। दबे पैर...! ठीक उसी तरह, जिस तरह प्रस्थान किए थे, दबे पैर। उनके थके चेहरे अब स्फूर्ति और ताज़गी से दमक रहे थे। ऐसा लगा, मानो चाय पीकर आए हों...!


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