Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win

Mukta Sahay

Abstract

4.7  

Mukta Sahay

Abstract

साथी ऐसे भी और वैसे भी

साथी ऐसे भी और वैसे भी

12 mins
696


आध्यात्म सेंटर में आज मेरा आख़िरी दिन था। पिछले दस दिनों से मैं यहाँ रह रही हूँ। यहाँ आ कर मेरे बेचैन मन को बहुत राहत मिली है। पिछले दो महीने से मेरा मन बहुत ही व्याकुल था और शांति की तलाश में मैं हर वह उपाय कर रही जो भी समझ में आ रहा था। इसी क्रम में दस दिन पहले मैं इस योग और आध्यात्म सेंटर में आई थी। यहाँ आ कर मुझे कुछ अच्छा लगा इसलिए रुक गई थी। आज योग की आख़री क्लास पूरी करके मैं अभी अपने कमरे में आई थी। नींबू पानी का गिलास ले कर मैं बालकोनी में पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। सुबह की स्वर्णिम आभा और शीतल-मधुर मंद हवा के साथ मेरे मन का पंछी चार साल पीछे उड़ चला। ये वही समय था जब मेरी बेचैनी के वजह की शुरुआत हुई थी। 

मैं और अजय एक ही कम्पनी में काम करते थे। हम दोनो ने इस कम्पनी को साथ ही ज्वाइन किया था और दोनो एक ही छोटे शहर से आए थे इसलिए हमारी दोस्ती अच्छी हो गई थी। हम दोनो ज्वाइन करने के समय कम्पनी के हॉस्टल में ही रुके थे। एक महीने यहाँ रहने को मिलता है फिर हमें अपना इंतज़ाम करना था, इसलिए ऑफ़िस के बाद शाम में मैं, अजय, कुछ और दोस्तों के साथ अपने रहने की जगह ढूँढने निकल जाते थे। अंततः हमारी मेहनत रंग लाई और हमें हमारा रैन बसेरा मिल ही गया। मैं और मेरे साथ मेरी दो और महिला दोस्त एक फ़्लैट में आए एवं सामने वाली फ़्लैट में अजय और उसके तीन पुरुष दोस्त। 

दो दिनों में हमें कम्पनी में आए एक महीना हो जाएगा और हमें हमारी पहली तनख़्वाह मिलेगी। सभी बेसब्री से इंतज़ार में थे। महीने के चालिस हज़ार रुपय मिले थे। हम सातों ने कभी अपने एकाउंट में एक साथ इतने पैसे नहीं देखे थे। अब इन्हें कैसे खर्च करना हैं इस पर चर्चा होने लगी। हम मध्यम वर्ग में पले बढ़े थे तो सोंच का दायरा भी वही था। सभी ने पहले तो फ़्लैट वाले को देने वाली अग्रिम राशी अलग कर ली और फिर अपने घर वालों के लिए सौग़ात लेने बाज़ार पहुँच गए। खुले हाथों से ख़रीदारी हुई। ऐसी लगा जैसे सब कुछ ही ले लें, सारा बाज़ार ही उठा लें। ऐसी ख़रीददारी हम सभी ने पहली बार की थी और खुद के कमाए पैसे खर्च करने का लुत्फ़ उठाया था।

अगले दिन शनिवार था और हम लोग अपने फ़्लैट में जाने वाले थे। शनिवार और रविवार फ़्लैट में साफ़-सफ़ाई और ज़रूरत के समान इकट्ठा करने में निकल गया। हम सभी महीने भर से साथ थे और हम सभी एक ही प्रांत के रहनेवाले थे तो दोस्ती कुछ ज़्यादा ही गाढ़ी होती जा रही थी। अब हमारा घर भी आमने सामने था तो सुबह सभी साथ ही आफ़िस जाते थे। शाम को काम के अनुसार वापस आते थे ,कभी कोई पहले आया तो कभी कोई। हम सातों इस अनजान शहर में एक दूसरे के सगे हो गए थे। दुःख हो सुख हो सब मिल बाँट कर काट लेते थे। ज़िंदगी इस समय बहुत ही खूबसूरत हो गई थी। 

समय निकलता गया और दोस्ती के डोर मज़बूत होते गए।

हम सभी उन पक्षियों में से थे जो अपनी मंज़िल हर पड़ाव के बाद ऊँची करते जातें हैं, अपने पंख मज़बूत कर फिर से ऊँची उड़ान भरते हैं। सभी नए अच्छे अवसर की तलाश में थे। एक एक कर सभी को मनवांछित अवसर मिलते गए और वे उड़ान भरते गए। एक समय ऐसा आया कि मैं और अजय ही बस रह गए। हमें इसी कम्पनी में ही अच्छे मौक़े मिल गए थे और हम खुश थे। यहाँ रहते रहते हमें अब लगभग एक साल हो गया था। अकेले रहने के दौरान मेरे और अजय के बीच नज़दीकियाँ कुछ बढ़ने लगी थीं। साथ अफिस जाना और काम के बाद साथ ही लौटना।

वापस साथ लौटने के लिए अफिस मे बैठ एक दूसरे का इंतज़ार करना। अफिस के बाद साथ में शहर घुमना, बाहर खाना-पीना, मज़े करना। हमारी दोस्ती कब यहाँ तक पहुँच कि हम दोनो एक ही फ़्लैट में रहने लगे पता ही नहीं चला। हमारी दोस्ती की घनिष्टता और नज़दीकियाँ अब हमारे आफ़िस वालों, पड़ोसियों और परिचितों सभी को पता चल ही गई थी। 

हम दोनो को साथ रहते अब लगभग छह महीने हो गए थे। ना कोई वादा, ना कोई बंधन, ना कोई ज़िम्मेदारी, हमदोनो के बीच सब कुछ ख़ुशनुमा था। समाज के लिए ये रिश्ता सहज ही स्वीकार्य नहीं था। आस-पास के लोग तरह तरह की बातें करते थे, कभी पीठ के पीछे तो कभी सामने से भी प्रहार करते।

लेकिन हम दोनों अपने आप में मस्त थे और ये सामाजिक अस्वीकार्यता हमारे कदमों को नहीं रोक सकीं। दिन भर पूरी तन्मयता से नौकरी करते और शाम को एक दूसरे का साथ, हमदोनो की थकान मिटा देता। हमदोनो एक दूसरे के साथ ज़िंदगी के कदम आगे बढ़ाते जा रहे थे। हमारी कल्पना में एक दूसरे से अलग होने की बात कभी आई ही नहीं।  

मुझे नौकरी करते हुए अब दो साल होने के आए थे। अब घर से शादी के लिए ज़ोर बढ़ता जा रहा था। अभी तक तो कुछ ना कुछ बोल कर टालती रही थी मैं शादी की बात को पर अब माँ ने नौकरी ही छुड़वाने की बात करने लगी थीं। इधर अजय के शादी की बात भी होने लगी थी।

पिछले हफ़्ते तो उसकी माँ ने कुछ लड़कियों की फ़ोटो भेजीं थी। अब हमदोनो की ज़िंदगी में चिंता के बादल मंडराने लगे थे। मैंने अजय से बात करी की क़्यों ना हम दोनो शादी कर लें। हमारी शादी के बाद परिवार वाले भी शांत हो जाएँगे और आए दिन की ये चिंता भी ख़त्म हो जाएगी। अजय ने उस समय कुछ नहीं कहा और इधर-उधर की बातें करने लगा। मुझे उसका यह व्यवहार कुछ अच्छा नहीं लगा। दो एक दिन बाद मैंने फिर से शादी की बात छेड़ी। इस बार अजय ने मुझे झिड़क दिया क्या बेकार की बातें करती हो। हम दोनो साथ इसलिए नहीं रह रहे हैं की हमें शादी करनी है। हमारे इस रिश्ते में शादी कहीं नहीं है। वैसे भी मैं शादी-ब्याह कर किसी बंधन में नहीं बंधना चाहता। अजय की बातें कुछ अटपटी तो थी लेकिन सच तो यही था कि हमारे बीच कोई वादा, कोई बंधन नहीं था।

हाँ मुझे थोड़ा सुकून भी मिला की अजय अभी शादी नहीं करने वाला यानी वह मेरे साथ ही रहेगा।

लेकिन इस शादी रूपी परेशानी ने पीछा नहीं छोड़ा था। जब भी घर जाओ शादी को ले कर माँ के साथ मेरी कहा-सुनी हो ही जाती थी। माँ ने फ़ोन किया तो भी हम बातें कम बहस ज़्यादा कर लेते थे मेरी शादी को ले कर। दो वजह थे मेरे पास शादी ना करने के, पहली तो यह कि मैंने जिस सफलता की बुलंदी को छूने की ठानी थी अभी उसके आख़री पड़ाव की ओर थी मैं और शादी कर के उसे यूँ हाथ से फिसलने नहीं देना चाहती थी। दूसरी ये कि अजय के साथ रहना मुझे अच्छा लगता था और शादी के बाद उसका साथ छूट जाता।

इसी खींचा-तानी में सात-आठ महीने निकल गए और साथ ही घरवालों के दबाव से हमारी चिंता भी बढ़ती गई।

एक दिन अचानक अजय को घर से फ़ोन आया और वह शाम में ही घर को निकल गया। मैंने पूछा तो कुछ बताया नहीं। लौट कर आने पर भी जानना चाहा लेकिन कुछ पता ही नहीं चला। फिर बात आई गई हो गई। हाँ अब अजय अफिस से भी देर से आता था और हमारा साथ में बाहर जाना भी काम हो गया था।

पाँच महीने बाद अजय लम्बी छुट्टी पर घर गया। मुझे लगा जैसे पहले जाता रहा है वैसे ही गया है। लेकिन ये मेरी भूल थी। अजय का इस बार घर जाना कुछ ख़ास प्रयोजन से रहा था। अजय के घर जाने की वजह का पता मुझे अफिस में लगा जब अजय के बॉस, दीपक की मेज़ पर एक शादी का निमंत्रण देखा। उसपर नाम अजय का था। कई अजय है अफिस में सो मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन अनायास ही बाक़ी के विवरण पर नज़र चली गई, पिता का नाम, घर का पता सब अजय का। मैंने निमंत्रण हाथ में ले लिया, तभी दीपक ने बोला, ओह अजय के शादी का निमंत्रण देख रही हो। तुम तो ज़रूर ही जाओगी, तुम्हारा तो सबसे अच्छा दोस्त है।

सच बताना कब वापस आ रहा है वह, मुझे से तो बस सप्ताह भर की छुट्टी ले कर गया है। जानता हूँ मैं, वहाँ से खबर करेगा छुट्टी बढ़ने के लिए। सभी ऐसा ही करते हैं। पिछली बार जब सगाई के लिए गया था तो समय से वापस आ गया था, इस बार तो पक्का छुट्टी बढ़ाएगा। मैं तो इस खबर से ही सन्न थी। मुझे तो कुछ पता ही नहीं था। फिर भी खुद को सम्भालती हुई कह ही दिया सही कह रहे हैं आप, वैसे वह कब वापस आएगा इसकी पक्की जानकारी तो मुझे भी नहीं है। फिर मैंने झूठी मुस्कान दिखा कर वहाँ से निकल जाना ही उचित समझा। मेरे और अजय की बीच यूँ तो शादी कहीं नहीं आती थी पर इतनी पारदर्शिता तो थी ही कि वह अपनी शादी की बात मुझे बता देता।

इस तरह चोरों की भाँति अजय का जाना बहुत खला। हमारी नज़दीकियों के बीच अजय का ये व्यवहार एक धोखा लगा। शायद भावनात्मक रूप से भी मैं कहीं ना कहीं उससे जुड़ गई थी इसलिए थोड़ी बिखर गई थी।

इस बार जब माँ का फ़ोन आया और माँ ने जब फिर मेरी शादी की बात शुरू की तो मेरा नर्म रुख़ देख कर उन्होंने पूछ ही लिया, बेटा सब ठीक तो है। माँ का इतना कहाना था और मेरी पीड़ा आँखो से बह गई। मैंने मेरी शादी के लिए हाँ भी कर दिया। माँ ने बताया कि पापा अगले रविवार लड़के वालों से मिलने जाने की सोंच रहे थे, मेरी हाँ हो गई है तो वह चले जाएँगे। मेरे ना मानने की वजह से कहीं भी शादी की बात आगे नहीं बढ़ाई जाती थी। माँ बहुत खुश थी क्योंकि बेटियों की शादी आज भी हमारे समाज में एक ज़िम्मेदारी ही समझी जाती है।

अभी सप्ताह भर ही बीत था और मुझे पदोन्नत कर प्रोजेक्ट लीडर बना कर दूसरे अफिस में भेजा जा रहा था। मैं खुश थी कि इस कठिन समय में कुछ चीजें बहुत ही सही हो रही थीं। अफिस भी अलग हो रहा था अजय से तो अच्छा लग रहा था। इसी बीच माँ ने खबर किया की जिस रिश्ते की बात उन्होंने बताई थी वहाँ बात आगे बढ़ गई है और वे लोग एक बार मुझ से मिलना चाहते है। मुझसे मिलने की बात लड़के ने ही रखी है, इसलिए मुझे जितनी जल्दी हो सके घर बुलाया गया। मैं जिस दिन घर पहुँची उसके अगले दिन एक रेस्टरेंट में हमारे मिलने की बात तय हुई। 

दोनो तरफ़ के घर वाले आए थे। परिवार वालों के बातचीत का दौर शुरू हुआ फिर हम सभी ने खाना खाया। माँ खुश थी की उन्हें रिश्ता तय होता सा दिख रहा था क्योंकि लड़के वालों को मैं पसंद आ रही थी। खाने के बाद लड़के ने मुझसे कहा चलिए थोड़ा बाहर लॉन तक हो आते हैं। घर वालों की सहमति से मैं उनके साथ निकल गई। इसे संजोग कहे या मेरी क़िस्मत, बाहर निकलते ही एक नया शादीशुदा जोड़ा रेस्टरेंट में अंदर आ रहा था।

ये अजय और उसकी नवविवाहित पत्नी थे। दूर से ही मेरी और अजय की नज़रें मिली पर हम दोनो ने एक दूसरे को अनदेखा कर दिया पर ये क्या मेरे साथ वाले लड़के ने कहा अरे अजय! कैसे हो, बड़े दिनो के बाद मिले यार। शादी भी कर ली और खबर भी नहीं किया। पता चला ये दोनो बचपन में एक ही स्कूल में पढ़ते थे। दोनो दोस्त आपस में बातें करने लगे तो मैं थोड़ा आगे निकल आई। जल्दी ही दोनो की बातें खत्म हो गयी।

अजय अंदर चला गया और उसका दोस्त मेरे पास आ गया। वह आते ही पूछता है तुम अजय को जानती हो बताया नहीं तुमने, आगे निकल आई। अजय बता रहा था की तुम दोनो वहाँ एक साथ एक ही फ़्लैट में रहते थे। क्या हुआ जो उसने किसी और से शादी कर ली। जब हम दोनो के बीच बातें आगे बढ़ी तो पता चला अजय ने उसे मुझसे दूर ही रहने को कहा है क्योंकि मैं सही नहीं हूँ। ये बातें सुन कर मेरे सारे शरीर में आग सी लग गई थी पर अपने ग़ुस्से को ना उजागर करते हुए मैंने कहा, हाँ हमदोनो वहाँ साथ ही रहते थे पर जब अजय शादी के लिए यहाँ आया तो उसने मुझे कुछ ना बताया।

छोटे शहर से हो कर रहन-सहन तो अजय ने ऊँची कर ली परंतु शायद सोंच का दायरा ऊँचा नहीं कर सका। अगर उसने मुझमें दोष बताया है तो बराबर का दोष तो उसपर भी है। चाहूँ तो उसकी पत्नी को मैं भी वही सब कह दूँ जो उसने आपको कहा है तो वह कहीं का नहीं रहेगा। शायद आप समझ सकें कि मैं क्या कहना चाहती हूँ। आप चाहे तो इस रिश्ते के लिए मना कर दें । इंसान को पहचानने में की गई अपनी गलती का भुगतान तो मुझे करना ही होगा। फिर मैंने मज़बूती से कहा अब मैंने पूरानी सारी बातें भूल कर ज़िंदगी में आगे बढ़ने की ठान ली है और अपनी पिछली ग़लतियों की आँच अपने आने वाली ज़िंदगी पर कभी नहीं पड़ने दूँगी।

थोड़ी देर में हम वापस परिवार के लोगों के पास आ गए। सभी में हमारी प्रतिक्रिया जानने की जिज्ञासा थी। लेकिन हमने कुछ भी नहीं बोला। बाक़ी बातें अगली मुलाक़ात में होगी कह कर दोनो पक्ष अपने घरों को चले गए। मुझे आशंका नहीं पूरा यक़ीन था की उधर से ना ही आएगा। 

मैं वापस आ गई थी और नए अफिस को भी ज़्वाइन कर लिया था । कुछ दिनों बाद माँ का फ़ोन आया ये बताने के लिए की उधर से जबाव आ गया है। जबाव मेरी आशा के विपरीत किंतु मेरी माँ की आशा के अनुरूप हाँ में आया था । जवाब ना में आता तो शायद मैं इतना परेशान नहीं होती पर हाँ में आया जबाव मुझे बेचैन किए जा रहा था। मुझे समझ ही नहीं आ रहा था की सारी बातें जानते हुए भी क़्यों हाँ किया उसने।

कोई लड़का इतना सज्जन कैसे हो सकता है, उसकी सोंच इतनी परिपक्व कैसे हो सकती है कि सब कुछ जान कर भी हाँ कहा। जबकि मैंने अभी तक जितने भी लड़के देखे थे सभी एक जैसे ही थे, अजय के जैसे। अजय ने तो मेरी पिछली और अगली दोनो ही ज़िंदगी ख़राब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

हाँ करने की वजह जानने के लिए कई बार मैं उनसे बात करने की कोशिश की पर हिम्मत ही नहीं जुटा पाई। उधर से भी कोई फ़ोन नहीं आया। मैंने उनसे मिलने की सोंची पर मेरे अंतर्मन ने साथ नहीं दिया। ये बेचैन इतनी बढ़ती जा रही थी कि मैं पागल होने की कागार पर पहुँच गई थी। जो भी उपाय समझ आता, इस व्याकुलता को कम करने का, वह सब आज़मा रही थी, पर सब बेकार जा रहा था।

मैं अपने ताने-बाने में उलझी थी तभी फ़ोन के बजने की आवाज़ सुनाई दी। मेरी तंद्रा भाग हुई। मैंने देखा नीबु पानी अब भी गिलास में ही भरा था। मैं अपनी सोंच के घने बादल में ऐसी फँसी थी कि इसे पीना ही भूल गई थी। फ़ोन देखा, माँ का फ़ोन था, यह बताने के लिए कि माँ के होने वाले जमाई मुझ से मिलने, मेरे पास आना चाहते है। मैंने हाँ कर दी।

आध्यतम सेंटर का आख़िरी दिन, मेरे सुकून का पहला दिन और साथ ही वह संदेश जिसका मुझे इंतज़ार था, सारी बातें मिल कर, आज से मेरे जीवन की होने वाली नयी शुरुआत को बहुत ही सुखद बना रही हैं। किसी ने सही ही कहा है, जीवन सकारात्मक सोंच के साथ निरंतर बढ़ते रहने का नाम है और इससे ही सारी सुखद बातें आप तक स्वयं ही खिंची चली आती हैं।  


Rate this content
Log in

More hindi story from Mukta Sahay

Similar hindi story from Abstract