सारी जिम्मेदारी बहू की ही क्यों?
सारी जिम्मेदारी बहू की ही क्यों?
हमारे पड़ोस में रहने वाली स्नेहा आंटी बाथरूम में फिसलकर गिर गयी थीं। डॉक्टर ने आंटी को दो महीने कम्पलीट बेड रेस्ट करने के लिए कहा। आंटी की दो बेटियां और एक बेटा है। आंटी के तीनों बच्चों की शादी हो चुकी है। आंटी के बेटा-बहू दोनों ही सरकारी नौकरी करते हैं और दोनों की दूसरे शहर में पोस्टिंग है। आंटी की बेटियाँ भी अलग-अलग शहरों में रहती हैं।
यहाँ आंटी और अंकल दोनों रहते हैं। आंटी की बहू भी काफी समझदार और सुलझी हुई है। आंटी के मुँह से कभी उनकी बहू की बुराई भी नहीं सुनी है। मैं आंटी से मिलने और किसी भी प्रकार की मदद की ज़रुरत हो ऐसा पूछने के लिए गयी थी।
आंटी की बेटी नंदिता ने दरवाज़ा खोला। आंटी की ननद भी आयी हुई थी। आंटी की ननद ने आंटी से कहा, "भाभी, आप तो अपनी बहू की तारीफ करते नहीं थकती थी। देखो, वह महारानी तो यह भी नहीं कि दो महीने आपके पास रह जाती। दो महीने की छुट्टी ले लेती तो क्या हो जाता? कम से कम नंदिता बेटी को तो अपनी घर-गृहस्थी छोड़कर नहीं आना पड़ता। लेकिन आजकल की लड़कियों से सम्मान और सेवा की उम्मीद करना व्यर्थ ही है।"
वैसे भी ज्यादातर रिश्तेदारों को कई बार यह खलने लग जाता है कि सास बहू में इतनी बनती क्यों है? इस घर के बर्तनों के खनकने की आवाज़ बाहर क्यों नहीं सुनाई देती। कुछ फूट डालो और राज करो की अंग्रेजों की नीति के समर्थक भी होते हैं।
आंटी ने कहा, "नंदिता और नेहा की तो मैं माँ हूँ। इन पर तो मेरा पूरा अधिकार है, इनको पाला और पोसा है। जब हम बेटे और बेटी में फर्क न करने की बात करते हैं, बेटे और बेटी को समान अधिकार देने की बात करते हैं तो कर्तव्य भी समान होने चाहिए।"
मैं आंटी की बात ध्यान से सुन रही थी। उनकी ननद ने कहा "भाभी फिर भी!"
"दीदी, इसलिए ही तो मैंने तीनों बच्चों को ही बीस दिन मेरे साथ आकर रहने के लिए कहा है। कौन कब आ सकता है? यह तीनों ने अपने-अपने कार्यों के हिसाब से तय कर लिया है। जब मेरे तीन बच्चे हैं तो तीनों ही अपनी जिम्मेदारी निभाएं। इससे मुझे तीनों का साथ मिल जाएगा और तीनों के कामकाज भी ज्यादा प्रभावित नहीं होंगे।" आंटी कहते-कहते पानी पीने के लिए रुक गयी थीं।
"बेटा-बहू दोनों ही बीस दिनों के लिए आ जाएंगे। दीदी, जब मम्मीजी-पापाजी बीमार होते थे तब आपके भैया और मैं ही उन्हें सँभालते थे। जानती हो दीदी, कितना मुश्किल हो जाता था घर का काम करना? बच्चों को संभालना और बीमार की तीमारदारी और ऊपर से आने-जाने वाले लोग। मैं घुट के रह जाती थी, अपनी क्षमता से ज्यादा कर रही थी। कड़वाहट आने लगी थी मेरे मन में सबके लिए। कभी-कभी गुस्सा भी आता था। लेकिन चुपचाप करती जाती थी। मैं चाहती हूँ कि मेरी बहू मेरे लिए जो भी करे दिल से करे। उसे कुछ भी करना न पड़े। वह उतना ही करे जितनी उसकी क्षमता है।" आंटी फिर चुप हो गयी थीं और अपनी ननद की तरफ देखा।
"दीदी, मैं आपको सुना नहीं रही हूँ। सिर्फ अपनी भावनाएं बता रही हूँ। उस समय हम ऐसा सोचते ही नहीं थे। हम तो बहू को सेविका से ज्यादा मानते ही नहीं थे, उसका तो काम ही सेवा करना था। आपने भी वही सब सहा है और किया है जो मैंने सहा और किया। हर महिला की पीड़ा तो सदैव ही समान रही है। और ज्यादा तो हम नहीं कर सकते, लेकिन हमारी बहुओं और बेटियों को उस पीड़ा से न गुजरना पड़े इतना प्रयास तो कर ही सकते हैं। जो बदलाव हम समाज में देखना चाहते हैं, उसकी शुरुआत पहले खुद से ही करनी पड़ेगी।"
"हाँ भाभी, आप शायद सही कह रही हो। सारी जिम्मेदारी बहू की ही क्यों? सब अगर मिलजुलकर निभाएंगे तो खुशी-ख़ुशी निभाएंगे।"
मैं आंटी की सोच और समझदारी के सामने नतमस्तक थी।
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