Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Classics

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Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Classics

साक्षात प्रेम पर्याय- सुकेती ....

साक्षात प्रेम पर्याय- सुकेती ....

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"मैं तो कब से खड़ी इस पार 

ये अँखियाँ थक गईं पंथ निहार" 

यह गीत उन दिनों सुकेतीके हृदय में बस गया था। वह बताये जा रही थी। मैं ग्लानि बोध में सुनते जा रहा था। मैं बिस्तर पर और मेरी पत्नी एवं सुकेती बेड के समीप कुर्सियों पर बैठी हुईं थीं। 

मुझे स्मरण आ रहा है। तब, सिनेमा के प्रति बढ़ते क्रेज़ ने मेरे किशोरवय मन को प्रभावित किया था। मैंने अपनी शिक्षा, सुकेती के प्रेम एवं घरवालों के दुःख की परवाह नहीं की थी। मैं घर से भाग आया था।ग्लैमरस दुनिया में आकर, मैंने उसके निर्मल प्रेम को भुला दिया था। 

मुंबई आकर फुटपाथ पे सोता था। चौपाटी पर भेल पूरी के स्टॉल पर बर्तन धोने का काम करता था। वहीं, उसी भेल पूरी से, पेट भरता था। और जब समय मिलता सिने स्टूडियो का चक्कर लगाया करता था। 

 मैं 1940 में, शिमला में जन्मा था। हमारे किशोरवय का शिमला, छोटा कस्बा था। मेरे एवं सुकेती के, स्कूल अलग अलग थे। मगर स्कूल आते जाते, हममें नैन मटक्का हो गया था। मेरे शिमला से भाग आने के बाद, सुकेती को मैंने जल्द ही विस्मृत कर दिया था। 

यद्यपि मेरी फिल्मों को मिली लोकप्रियता के बाद, अपने घरवालों से मिलने तथा अपनी फिल्मों की शूटिंग के सिलसिले में शिमला जाता रहा था। और तब जिस पर सुकेती और मेरी आँखे चार होतीं थी उस सड़क पर, मुझे सुकेती का ख्याल आ जाता था। 

साठ के दशक में किशोरवया लड़की का प्रेम अत्यंत पावन-निर्मल होता था। जिसमें शारीरिक स्पर्श नहीं होता था। नैनों के रास्ते प्रेम, हृदय में स्थान ले लेता था। 

शिमला की सड़कें ज्यादा चलती दिखतीं थीं मगर उन पर सुकेती नहीं होती थी। शायद उसकी शादी कर दी गई थी। 

ऐसे प्रेम को, वह 60 से अधिक वर्षों में भी, भुला नहीं सकी थी। इसका प्रमाण यह है कि उस निर्मल प्रेम के वशीभूत, वह आज, मेरे सामने बैठी थी। 

वह मेरे गंभीर रूप से बीमार होने के समाचार के बाद, इस जीवन में आमने सामने की पहली एवं अंतिम मुलाकात करने आई थी। वह, अपनी भावनाओं को, बेलौस व्यक्त करने के विचार से आई थी। मेरी भूलों को बताने आई थी। वह अपने लिए दुःखी नहीं थी। मेरे लिए दुःखी थी। बिस्तर पर लेटा, मैं सुन रहा था। 

वह कह रही थी - तुम अस्सी वर्ष के हो चुके हो तुम्हारे मरने के समय पर दुःख नहीं प्रकट करुँगी। इस उम्र में आकर कोई भी इंसान कभी भी मर सकता है। मेरे पति को मरे 4 वर्ष हो चुके हैं। मैं भी मर ही जाऊँगी। 

तुम्हारे बारे में, अपने हृदय की, तुमसे बतलाना है। देश ने तुम्हें महानायक की तरह माना। 20-25 वर्ष पूर्व तक मैं भी तुम्हें महानायक मानती रही। तुम बूढ़े होने लगे तुम्हारा स्थान नये लोग भरने लगे। अभिमानी तुम सहज जीवन क्रम को, मानने तैयार न हुए। तुम उन्हीं भूमिकाओं में चिपके रहना चाहते रहे। मैं होती तुम्हारी जगह तो, इन 25 वर्षों में दूसरी भूमिका ग्रहण करती। 

सिने महानायक बस रह जाने की अपेक्षा, यथार्थ महानायक होने की दिशा में बढ़ती। देश में अपने लिए मिली लोकप्रियता एवं लाभ का, ऋण, इस देश और समाज को चुकाती। मैं प्राप्त के बदले देश को, देश का अपेक्षित वापिस देती। 

इस का स्मरण रखती की मेरे प्रशंसक, मेरे कहने को मानेंगे। प्रौढ़ होते तक मैं, रेअलाइज कर लेती कि अपने यौवन काल में, स्वार्थ एवं कामुकता वशीभूत, मैंने अपने देशवासियों को गलत मार्ग पर भटकाया था। 

समाज के चलन बिगाड़ने का जो पाप मुझसे, अनायास हुआ था। उसकी भरपाई समाज और नई पीढ़ी के हित में क्या है, वैसे विचार, वैसे अपने कर्मों के उदाहरण पेश कर, उन्हें सच्चे मार्ग पर चलने को प्रेरित करने के, पुण्य कर्म के माध्यम से करती। 

बुजुर्गियत के वर्षों में तुम जैसे, तेल, मसाले और टॉयलेट क्लीनर आदि के विज्ञापन में और धन बनाने में, मैं समय नहीं गँवाती।   

कहते हुए वह चुप हुई थी। मेरी पत्नी उसकी स्पष्ट और कटु बात से चिढ़ती प्रतीत हो रही थी। सुकेती ने, यह बात समझी थी। अतः जल्दी विदा माँगी थी। 

सुकेती का मैंने आभार माना कि, इतने वर्षों उसने, अपने हृदय में मेरे लिए स्थान दिए रखा था एवं मेरे अंत समय में मुझसे मिलने आ पहुँची थी। 

फिर वह जा रही थी। मेरी पत्नी के, उसको विदा करने के अंदाज से, लग रहा था जैसे कि कोई भूत से उसका पीछा छूट रहा था। वह, सुकेती को बँगले के बाहर तक छोड़ने गई थी। 

सुकेती चली गई थी। वह क्या कह कर गई थी, मैं इतने में सब समझ गया था। सुकेती, मेरे मरते तक के समय के लिए विचार करने की प्रेरणा दे गई थी। कदाचित यह प्रेम के प्रति, सुकेती का कर्तव्य निर्वाह किया जाना था। 

एक गीत मुझे ख्याल आ रहा था- 

"हम इंतज़ार करेंगे, क़यामत तक

खुदा करे कि क़यामत हो, और तू आए"

सुकेती के कहे गए शब्द शिकायत नहीं, अपितु मुझे सुकून प्रदान कर रहे थे। 

सुकेती को विदा कर लौटने पर, पत्नी तमतमाई हुई थी। मुझसे कहा, मूर्ख औरत है। यह शिष्टाचार भी नहीं कि मैं भी साथ बैठी हूँ, दो शब्द मुझसे भी कहती। यह भी अक्ल नहीं कि किसी रोगी से, किस तरह की बात की जाती है। आई अपने ज्ञान का पुलंदा खोल सुना गई है।  

मैं, सोचने लगा पत्नी तो अन्य प्रशंसिकाओं तथा साथी नायिकाओं से मेरे संबंध को सहन करते आई थी। क्या, कारण है कि इतना चिढ़ी हुई है? मुझे लगा कि मेरी पत्नी सुकेती के निःस्वार्थ - निर्मल प्रेम की शीर्ष ऊंचाई का अनुमान नहीं करना चाहती है। 

उससे भी पहले, सुकेती मेरा प्रेम होने का ख्याल, पत्नी पर हावी है तथा जलन दे रहा है।  

प्रकट में मेरे होंठों से एक ही शब्द प्रस्फुटित हुआ था - उफ़्फ़ ....

                                                                    --x--

मैं इतना लोकप्रिय सिने नायक हुआ था। अतः बुध्दिमानी तो मुझमें स्वतः सिध्द होती थी। मैं, सुकेती की कहि बातों को समझ सका था। जबकि किसी और समय, कोई और ऐसा कहता तो, अपने अहं (ईगो) में, इसे समझना नहीं चाहता। 

लेकिन पिछले तीन महीनों में बिस्तर पर लगने से, मैं ऐसे टूटा था कि मेरे दंभ, अहं एवं अपनी प्रसिध्दि की, जो अकड़ मुझमें थी, वह सब निकल गई थी। 

आसन्न मौत की निराशा मेरे मन में, स्थाई रूप से समा चुकी लगती थी। शुक्र कि तब सुकेती आई थी। उसकी निःसंकोच एवं अधिकार बोध से, कही गईं कड़वी सी बातों ने, मृत्यु शैय्या पर, मुझ पर छा गई, निराशा को दूर कर दिया था। 

अगर फिर मिलती सुकेती, तो मैं शिकायत में कहता 'हुजूर आते आते बहुत देर कर दी'।

कहता - काश, सुकेती तुम 25 वर्ष पूर्व आतीं एवं ऐसी प्रेरणा तब देतीं। मैं अपनी पूर्व की भूलों को सुधार करता। जैसा तुमने परिभाषित किया, वैसा यथार्थ महानायक बनता। 

उफ़ मगर, अब कुछ करना संभव नहीं। जैसे कि सिने पर्दे पर, मैंने आदर्श किरदार निभाये थे। अपने प्रशंसक समूह के सामने मैं, अब वैसे वास्तविक आदर्श पेश कर सकने की हालत में नहीं रहा हूँ। मैं समझ पा रहा हूँ कि मेरे पर्दे के पीछे के यथार्थ किरदार में, आदर्शों का अभाव रहा है।

मैंने, अपने फ़िल्मी सफर के आरंभ, से पहले, कठोर एवं आदर विहीन फुटपाथ का जीवन देखा था। जब मुझे फ़िल्में मिलने लगीं और मेरी फ़िल्में चलने लगीं। तब मुझे मिलने वाले सम्मान, प्रसिध्दि एवं धन ने मेरे अस्तित्व पर अहंकार की मोटी परत चढ़ा दी।

मेरे आँखों पर, मेरी सफलता बोध की, पट्टी चढ़ गई थी। मैं देख न सका था कि मेरे सिने किरदार एवं यथार्थ जीवन शैली में कोई मेल था ही नहीं।

मैं बुध्दिमान रहा मगर मैंने अत्यंत मूर्खतापूर्ण कार्यों में, अपना जीवन व्यर्थ कर लिया था।

मैं समझ नहीं सका था कि मेरे भोले प्रशंसक मेरे व्यसनों में लिप्तता देख-सुन गलत निष्कर्ष निकाल सकते थे कि 

"आदर्श परदे पर दिखाने एवं अभिनीत किये जाने वाली बात है जबकि जीवन सार्थकता धन वैभव, अति विलासिता और कामुकता पूर्ण जीवन शैली में है। 

सुकेती अपने निर्मल प्रेम के (मेरे ) पीढ़ियों को दिग्भ्रमित किये जाने वाले उदाहरण बन जाने से आहत हुई थी। उसे लगा था कि मैंने अपने में, महान संभावनाओं और समाज अपेक्षा, के साथ न्याय नहीं किया था। 

कितनों को इतनी लोकप्रियता और इतने प्रशंसक मिलते हैं, भला? अनेक जीवन मुझे पहले मिले होंगे, अनेक आगे मिलेंगे मगर निश्चित ही इतनी लोकप्रियता नहीं रही होगी/रहेगी। मैंने अपनी आत्मा की यात्रा में मिला, यह बिरला एवं अनुपम अवसर दुर्भाग्यपूर्ण रूप से निरर्थक जाने दिया था।

अब मैं ही, स्वयं को धिक्कार रहा हूँ। मुझे लगा रोग, मुझे कुछ दिनों का ही अवसर दे रहा है। मौत मुझसे बहुत दूर नहीं है।

मैं अब चाहूँ भी तो अच्छी शिक्षा देने वाला, (साक्षात) किरदार, स्वयं नहीं बन सकता हूँ। ऐसे कार्यों को अंजाम नहीं दे सकता हूँ, जिससे एक उदाहरण बन कर अपने प्रशंसकों को, उनके हित एवं समाज हित के मार्ग पर चलने को प्रेरित कर सकता। 

अब क्या, किया जा सकता है? यह सोचना मैंने आरंभ किया। ज्यादा समय नहीं है, देख शीघ्र तय किया। अपने परिवार को एकत्रित होने कहा था।

मैंने पूर्व में ही अपने बेटे-बेटियों के बँगले और अच्छे व्यवसाय/कारोबार लगवा दिए थे।

मैंने अपने नाम की संपत्ति में से 50-50 करोड़ और, पत्नी तथा प्रत्येक बच्चों को, अतिरिक्त देने की इक्छा जताई।

मेरी शेष संपत्ति, जो लगभग 2500 करोड़ थी, को, कोरोना संदिग्धों के परीक्षण के लिए, प्रधानमंत्री केयर फंड में देने के लिए कहा। 

सभी पहले ही खुशहाल थे, भाग्य से वे चरित्रवान थे। सबने इसमें कोई आपत्ति नहीं की ।       

मुझे मालूम है कि अच्छा कार्य होते हुए भी, इस 2500 करोड़ के दान का, वह अच्छा प्रभाव (Impact) तो नहीं पड़ सकेगा, जो मेरे 25 वर्ष के निरंतर सद्कर्मों से पड़ता।

मरणासन्न अवस्था में होने पर मुझे, इससे अच्छे अन्य कोई, विकल्प रहे ही नहीं हैं। 

सुकेती के आने के चौथे दिन, आज मैं अंतिम श्वाँस ले रहा हूँ। ऐसे प्रण (संकल्प) के साथ कि अगले जन्म में, मैं सिने महानायक नहीं यथार्थ महानायक होकर दिखाऊँगा। अपनी पीढ़ियों को वह मार्ग दिखाऊँगा, जिस पर चलकर, कोई जीवन का अधिकतम आनंद उठा पाता है। जिस मार्ग पर चलना जीवन सार्थक करना होता है। 

यह होता है या नहीं, आगे देखने वाली बात रहेगी, अब अलविदा।


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