साईकल एक लघुकथा
साईकल एक लघुकथा
सब कुछ दुरुस्त था उस सायकिल में, आपस मे मजबूती से बंधी चेन,और चेन के ऊपर कवर।इतराती सायकिल की चेन, अपने और दूसरे भागों की एकता पर।सुंदर सी गद्दी, हैंडल और सबसे सुंदर, सुंदर विचारों वाले उसका मालिक-----सीधा, सतर स्वस्थ, जब पैडल पर पांव चलाता, साईकल का हर अंग झूम जाता।
चेन घूमती, झूमती, सायकिल चल देती , गुनगुनाते, मालिक के केशों को हवा में उड़ाते, गंतव्य की ओर।एक दिन मालिक की बढ़ती लालसाओं ने लोभ में परिवर्तित हो, उसके निरंतर पैडल पर घूमते पांवों पर ब्रेक लगाया। जी हां! अब वो स्कूटर पर आया। एक किक लगाया और हवा में खुद को उड़ते पाया।
इतने पर ही बस कहाँ? कुछ दिनों में ही था मालिक के हाथों में स्टेयरिंग, और तेजी से बढ़ता धन---- और बढ़ती हुई तोंद।ऊंचे और ऊंचे, अब मालिक था पायलट की सीट पर और प्लेन के ऑटो पायलट मोड में पहुंचते ही खुद को सिर्फ चौकन्ना पाया।और साईकल की जुड़ी चेन को और साईकल को हिकारत से देखते खुद को पाया।
अकूत धन के बूते, चेन की हर कड़ी को तोड़ पाया, और टूटी हुई हर कड़ी को अपने स्वार्थ में इस्तेमाल कर पाया।लेकिन क्या वो साईकल युग को भूल पाया?