रति विलाप
रति विलाप
महादेव का तीसरा नेत्र खुला और.... कामदेव भस्म हो गए। उनकी सुंदर काया की जगह अब बचा था कबूतर के रंगो जैसा राख का ढ़ेर। रति अवाक खड़ी थी। क्या हुआ उसके समझ में कुछ नहीं आ रहा था वह कामदेव को पुकारें जा रही थी विलाप करती हुई .....कह रही थी... तुमने तो देवताओं के कहे अनुसार कार्य किए, फिर यह दंड कैसा ?मेरे पैरों का महावर देखिए स्वामी यह ठीक से सूखा भी नहीं.....मेरी वेणी में लगे पुष्प भी नहीं कुम्हलाएं .....कहां गए तुम? तुम्हारे साथ तो तुम्हारा हृदय भी जल गया होगा....जिसमें मैं रहती थी, अगर यह सच है, तो मैं कैसे जिंदा हूं मुझे तो स्वत: ही अब तक मृत्यु को प्राप्त हो जाना था। वह विलाप करती भूमि पर गिर गई बाल बिखर गए, कपड़े अस्त-व्यस्त हो गए। हाय विधाता तूने क्या कर डाला?
तभी आकाशवाणी हुई .... 'कामदेव कुछ समय के लिए तुमसे दूर में है वह तुम्हें पुनः प्राप्त होंगे ' के साथ ही इंवर्सिटी के संस्कृत विभाग का नाटक समाप्त हो गया।
रति की पीड़ा हर व्यक्ति के हृदय और आंखों में उतर आयी। हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज
रहा था। रति बनी सुरभि अभी भी हिचकियां ले रही थी। वह रति के पात्र से बाहर नहीं आ पाई थी। आज सुरभि और तथागत के एक्टिंग का सबसे लोहा मान लिया था।
गौर वर्ण, लंबा कद, छरहरा शरीर तरकीब से सजी जुल्फ़ें, क्लीन शेव के बाद गालों पर हरापन, नीली आंखें, घनी पलकें, मृदुभाषी, कुशाग्र बुद्धि, व्यावहारिक पर जरा सा संकोची तथागत फॉर्मल पोशाक में भी सचमुच कामदेव सा आकर्षक था। इसलिए जब कामदेव के पात्र के लिए, जब लड़कों के चयन की बारी आई, तो सबने एक सुर में तथागत का ही नाम लिया। वह किसी लड़की के साथ नाटक में भाग नहीं लेना चाहता था। बड़ी मुश्किल से उसे कामदेव के पात्र के लिए राजी किया गया था।
सुरभि को भी रति की भूमिका निभाने के लिए राजी करने में संस्कृत विभाग की लड़कियों के साथ साथ अध्यापिकाओं को भी पापड़ बेलने पड़े थे। मातृहिना सुरभि बहुत भावुक, बहुत शांत और बला की खूबसूरत थी। अगर आपकी कानों में कभी 'सरस्वतीचंद' फिल्म का गाना-
'तन भी सुंदर मन भी सुंदर तू सुंदरता की मूरत है....
साया भी जो तेरा पड़ जाए आबाद हो दिल का वीराना...'
इस गाने की पंक्तियां उस पर पूर्णतः सटीक बैठती है।
नाटक के दौरान ही तथागत और सुरभि एक दूसरे से परिचित हुए। परिचय दोस्ती में और दोस्ती प्रेम में कब परिवर्तित हुआ दोनों समझ ना पाए। न ही कभी एक दूसरे पर प्रेम को जाहिर किया। खुशी उमंग के वक्त बीतने देर नहीं लगती। देखते देखते एम. ए. के दो वर्ष समाप्त हो गए। परीक्षाएं भी समाप्त हो गई थी। अब परीक्षा के परिणाम आने के बाद मुलाकातें भी बंद हो गई। तथागत बेचैन था, वह एक बार सुरभि से मिलकर अपने दिल की बात बता देना चाहता था। ईश्वर ने जल्द ही वह मौका दिया। अगले सप्ताह दीक्षांत समारोह था। राज्यपाल के हाथों डिग्री लेने की बात थी, यह मौका भला कौन छोड़ता? तथागत दीक्षांत समारोह का इंतजार करने लगा। वह अपने प्यार के इजहार करने की तरकीबें सोचता रहा। गिफ्ट खरीदा। अपने लिए सुरभि की पसंद के अनुसार बेबी पिंक कलर के शर्ट और डार्क ब्लू कलर के पैंट सिलवाया। दीक्षांत समारोह पश्चात तथागत ने सुरभि से कॉलेज की कैंटीन में साथ चाय पीने की इच्छा जाहिर की। चाय की चुस्कियों के बीच उसने कहा-'मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। क्या तुम भी मुझे चाहती हो?
सुरभि ने हां में सिर हिला दिया।
मुझसे शादी करोगी?
नहीं तथागत!
क्यों? कोई कमी है मुझमें?
बात वो नहीं....
तो क्या बात है?
शायद किसी ने सच ही कहा है कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता....
मतलब?
तुमने यह प्रश्न पूछने में देर कर दी तथागत.... मेरी शादी तय हो चुके हैं 7 दिन बाद ही मेरी शादी है। तुम ही कहो, मैं घर वालों को क्या कहूंगी? हो सके तो मुझे माफ करना।
अरे! माफी की बात नहीं।
सचमुच गलती तो मेरी है-मुझे बताना चाहिए था कि मैं तुम्हें मोहब्बत करता हूं, लेकिन संकोची स्वभाव होने के कारण कभी कह ना सका।
दोनों थोड़े गमगीन हो गए। तथागत ने एक छोटे से गिफ्ट का पैकेट सुरभि को थमा दिया तुम्हारी शादी पर एक छोटा सा तोहफा।
घर के सारे काम निपटाने के बाद सुरभि अपने कमरे में आई मन अशांत था। दरवाजा बंद करके उसने गिफ्ट का रेपर खोला।
सोने की चैन में, एक खूबसूरत सा लॉकेट था। लॉकेट सीप पर, सोने से राधा कृष्ण बने थे। उसने चेन को गले में ऐसे डाला, तथागत को गले लगा रही हो। आंखें भर आईं। जेहन में ख्याल आया, लड़कियां आज भी अपनी मर्जी से नहीं जी सकती। सारे रीति - रिवाज, बंधन उन्हीं के हिस्से में है। तथागत अगर इससे पूर्व भी प्रेम जाहिर करता, तो क्या शादी हो सकती थी? शायद नहीं। उसके पिता जो बात - बात में कहते हैं, समधी बराबर वाला होना चाहिए, और लड़का, लड़की से कम से कम दो कदम आगे हो। वो साथ पढ़ने वाले लड़के से उसकी शादी कतई न करते। सुरभि परेशान थी... काश! आज भी यह प्रेम शब्दों में बयां ना हुआ होता तो मन को सुकून रहता। कहते हैं प्रेम छुपता नहीं। प्रेम मरता भी नहीं। प्रेम विकट परिस्थितियों में भी, दिल के जिंदा ताबूत में, दफन ताउम्र रहता है।
शादी धूमधाम से संपन्न हो गई। नया घर, नया परिवेश और नए रिश्तों के बीच सुरभि ने तथागत की स्मृतियों को कभी हावी नहीं होने दिया। अपने मृदुल व्यवहार से सुरभि ने सब को अपना बना लिया। पर सबकी लाडली और दुलारी हो गई थी। पति को तो वो प्राणों से भी प्यारी थी। देखने वाले कहते, दोनों की जोड़ी जैसे सिया-राम की जोड़ी है। प्रातः नाश्ते में क्या बनेगा से लेकर, रात्रि भोजन में क्या पकेगा सारी प्रबंधिका सुरभि ने स्वयं संभाल ली थी। वह घर की तीसरी, और घर सबसे छोटी बहू थी।
वक्त का चक्र तेजी से घूम रहा था। खुशी और उमंग के 12 महीने 12 दिनों की तरह गुजर गए। शादी की पहली सालगिरह का आमंत्रण परिजनों, इष्ट मित्रों को पन्द्रह दिन पूर्व ही भेजा जा चुका था। तपेंद्र इस साल के रखो यादगार बनाना चाहते थे। दो दिन पूर्व से ही घर के डेकोरेशन का काम चल रहा था। सालगिरह वाले दिन हाॅल भी सज गया था। सुरभि के मायके से उसके पिता, चाचा और दो चचेरी बहन ने आ गई थी। तपेंद्र के परिजन भी लगभग आ गए थे। बहन शाम तक आने वाली थी। ब्यूटीशियन सुबह ही घर पर आ गई थी सुरभि के हाथ पैरों में तपेंद्र की पसंद की मेहंदी लगी थी। शाम होने से पूर्व ही लाल और गोल्डन कलर की बनारसी लहंगा में, जब दुल्हन मेकअप में वह कमरे से बाहर आई तो लगा... आसमान से कोई अप्सरा उतर आई है। तपेंद्र बादामी शर्ट और रॉयल ब्लू सूट पर मैच करती टाई में, बेहद आकर्षक लग रहे थे। दोनों एक दूसरे को देखें, एक दूसरे के आकर्षण में डूबे, पल भर को शरमाए, और मुस्कुरा दिए। दोनों भाभियों तपेंद्र को छेड़ने लगीं, अभी दुल्हन दर्शन नहीं तपेंद्र बाबू पार्टी के बाद... और सभी हंस पड़े। तभी तपेंद्र की बहन शालू ने को कॉल किया...
हेलो,
प्रणाम दी।
एयरपोर्ट पहुंच गए आप?
हां, तपेंद्र! तुम ड्राइवर को भेज दो। तब तक में सामान चेकआउट करती हूं।
ड्राइवर क्यों दी? मैं खुद आता हूं आपको लेने।
ना रे, तू घर पर ही रह, आज तेरा दिन है, हम लोग तुम ही दोनों को तो मिलने आ रहे हैं।
10 मिनट लगेंगे दी आता हूं, कहते हुए तपेंद्र घर से बाहर निकल गए।
शालू का इंतजार बढ़ता जा रहा था, वह परेशान होकर पुन: कॉल लगाई, पर तपेंद्र ने रिसीव नहीं किया। तब वह मां को कॉल लगाई, कहा- "मां मुझे कोई लेने आ रहा है या मैं कब लेकर घर आ जाऊं? "
तपेंद्र तुम्हें लेने कब का निकल चुका है शालू, अभी तक नहीं पहुंचा?
नहीं मां।
हो सकता है जाम में फंस गया हो..
हो सकता है मां!
इसी बीच शालू की मोबाइल पर तपेंद्र का कॉल आ रहा था, शालू ने कॉल कांफ्रेंस पर ही ले लिया,... पहुंच गए तपेंद्र?
मैं तपेंद्र नहीं इंस्पेक्टर अर्जुन बोल रहा हूं। शालू और मां दोनों का हृदय घबरा उठा... शालू ने कहा- "पर नंबर दो तपेंद्र का है?
जी.. बात ऐसी है की तपेंद्र का एक्सीडेंट हो गया है।
मां बिलख उठी.... इंस्पेक्टर साहब कैसा है मेरा तपेंद्र?
सॉरी ...... वो अब इस दुनिया में नहीं रहे।
उत्साह का वातावरण मातम में तबदील हो गया। पोस्टमार्टम के बाद तपेंद्र का शव घर आया। चारों तरफ चीख-पुकार मच गई। सुरभि को यकीन नहीं आ रहा था की उसका सौभाग्य पर मैं दुर्भाग्य में बदल चुका है। वह तपेंद्र के शव को झकझोर रही थी, यह क्या हो गया तुम्हें ? इतनी चोट कैसे लगी है? कोई हॉस्पिटल ले चलो। सब लोग समझा रहे थे, वह अब कभी नहीं उठेगा, तुम्हारा साथ इतना ही था। अपने को संभालो। अंत्येष्टि के दूसरे दिन है ससुराल वालों ने उसके पिता से कहा- "आपकी बेटी को आए हुए बस एक ही वर्ष हुआ, और मेरे घर का चिराग बुझ गया... इस मनहूस का, अब मैं चेहरा नहीं देखना चाहती आप अपने साथ ही ले जाइए।"
सुरभि के सपनों का महल ताश के पत्तों की तरह ढेर हो गया। उसे लगा एक बार फिर के कामदेव भस्म हो गए हैं.... और इस बार रति के विलाप पर विधाता ने कोई आकाशवाणी भी नहीं की। पति के खोने का दर्द और ससुराल के लोगों द्वारा अपमानित होने की पीड़ा लिए पिता के घर आ गई।
इस घटना को 7 वर्ष हो चुके थे। पिता ने बहुत समझा बुझा कर उससे आगे पढ़ाई करने पर राजी कर लिया था, ताकि उसका मन लगा रहे दुःख कुछ कम हो।
बेटी के दुख से पिता का दुख भी दुना हो गया था। पिता ने कई बार दूसरी शादी के लिए लड़का ढूंढा लेकिन सुरभि हर बार इनकार करती रही। भाग्य में जो था वह हो गया अब मैं शादी नहीं करूंगी।
पिता उससे खुश और उसका घर बसता हुआ देखना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपनी कोशिश नहीं छोड़ी।
रात के खाने के वक्त डाइनिंग टेबल पर पिता ने सुरभि से कहा-"आज मेरे मित्र दिवाकर जी मिले थे। तुम्हारे बारे में पूछ रहे थे। मैंने जब बताया तुम्हारे बारे में तो उन्होंने कहा उनका एक लड़का है किसकी उम्र तुम्हारे जितना ही है और वह बिजनेस करता है ...वो चाहते हैं की तुम उनके घर की बहू बनो।
सुरभि फिर इनकार करना चाहती थी पर इस बार उन्होंने सुरभि की एक न सुनी... उन्होंने कहा -"मेरी जिंदगी अब कितनी है? मेरे पास तुम्हारा क्या होगा ? मैं सोच सोच कर परेशान रहता हूं? समाज बेसहारा को कभी सही नजर से नहीं देखता बेटी... कितना भी जमाना आधुनिक हो, एक स्त्री को, एक पुरुष का, सहयोग सदैव चाहिए। कभी पिता कभी पति और कभी बेटे के रूप में... मैं तुम्हारी खुशी चाहता हूं।"
पिता की इस दलील के आगे सुरभि को नतमस्तक होना पड़ा।
दूसरे दिन दिवाकर जी सब परिवार सुरभि से मिलने आए। सुरभि पिता के निर्णय से दुखी थी वह अपने कमरे से बाहर नहीं आ रही थी। वह परेशान हो रहे थे, असमंजस में थे कि मित्र दिवाकर जी को क्या कहें?
दिवाकर जी उनकी मन: स्थिति को समझ रहे थे उन्होंने अपने बेटे से कहा- "तथागत जा बेटा तुम ही जाकर मिल लो लड़की से....।
तथागत थोड़ा सकुचाते हुए कमरे में गया। सामने सुरभि को देखकर वह चौंक गया। वह उसके करीब गया फिर भी सुरभि उसे नहीं देख रही थी। उसने कहा-"तुमने अकेले इतना कष्ट सहा है... अब और नहीं रति... तुम्हारा कामदेव लौट आया है उसे नहीं अपनाओगी?
आवाज पूर्व परिचित लगी, तो उसने नजरें उठाई, सामने तथागत को देखकर उसकी आंखें छलक आईं।
