रहस्यमय साया
रहस्यमय साया
बैंक मैनेजर सुधांशु धवन का स्थांतरण अमृतसर में हुए दो चार दिन ही हुए थे और एक पहचान वाले के बदौलत गुलबाग कॉलोनी में को मनचाहे ढंग का फ्लैट किराए पर मिल गया। उन्होंने इसकी सूचना पत्नी को दी -"मुबारक हो दीप्ति"।
किस बात की?
तुम जैसा घर चाहती थी बिल्कुल वैसा ही घर मिल गया है।
किराया कितना है?
12 हजार पर मंथ और 75 हजार पगड़ी देना है।
सुनो , मैं अगले सप्ताह आता हूं ट्रांसपोर्ट वाले से भी बात हो गई है...कहा है- " सामान की पैकिंग के लिए भी वही आदमी दे देगा।"
"तब तो ठीक ही है।" आपकी नौकरी भी अजीब है हर पांच साल पर ये तनाव झेलना पड़ता है।
क्या करोगी तुम्हारे भाग्य में ऐसा ही पति लिखा था।
दोनों बातें करते हुए हंस पड़े।
नये घर में शिफ्ट हुए छः महीने गुजर गए थे। मकान मालकिन जसविंदर कौर से उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी। सुबह पति और बच्चों को भेजने के बाद दोपहर दोनों का साथ ही गुजरता। दिसंबर की कंपकंपाती ठंड पड़ रही थी ।जसविंदर कौर के ससुर दिनभर आंगन में आराम- कुर्सी पर अधलेटे से पड़े बीच-बीच में कुर्सी पर झुलते हुए गुनगुनी धूप का आनंद लेते रहते थे। उनका चाय नाश्ता भी जसविंदर वहीं पर दे दिया करती थी। दीप्ति अपने बालकॉनी से यह सब देखा करती थी।उस रोज सुबह आठ बजे से ही वो आंगन में थे। अपनी सात वर्षीय पोती के साथ लूडो खेल रहे थे। जरा प्यास सी महसूस हुई तो उन्होंने कहा -" मुन्नी एक ग्लास पानी ले आ।
मुन्नी किचन की ओर चली गई।
पानी लेकर लौटी तो उनका सिर कुर्सी की एक और लटका हुआ था।वह जोर से बाबा बाबा चिल्लाई तो बेटा बहू सब आ गए।आन फानन में फैमिली डॉक्टर महिन्द्र सिंह को बुलाया गया । उन्होंने नब्ज , आंखें , हार्टबीट चेक करने के पश्चात कहा- "आइ एम सॉरी" यह अब नही रहे। जसविंदर के रोने की आवाज सुनकर दीप्ति उनके घर के तरफ भागी।
यह अचानक कैसे हो गया जसविंदर जी?
कुछ पता न चला जी...वाहे गुरु की इच्छा के आगे किसकी चलती है?
कुछ देर में मुहल्ले वाले और परिवारजनों की भीड़ लग गई।
दीप्ति कुछ देर के पश्चात लौट आई। काम वाली बाई सारा काम निबटा कर पोछा लगा रही थी।वह बालकनी से नीचे देख रही थी ।आंगन में जसविंदर के मृत ससुर को आखरी स्नान कराया जा रहा था, वह घबराकर पिछे हट गई तो बाई ने पूछा- क्या हुआ दीप्ति मेमसाब?
उनको नहलाया जा रहा है...
आप इत्ता घबरा रहे हो? सुनो मेमसाब.. बड़े साहब का उमर हो गया था। वो सब सुख देख कर गये हैं और मौत भी कितनी अच्छी कोई कष्ट नहीं।
हां ये बात तो है। दीप्ति ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
किसी का जाना बहुत दुःखदाई तो है पर एक न एक दिन तो सबको जाना ही मेमसाब।अब मैं जाती हूं। बड़े साहब के अंतिम यात्रा में भी जाना है...कहती हुई बाई दरवाजे से बाहर निकल गई।
रीति के अनुरूप शव यात्रा में महिलाएं भी सम्मिलित हुईं मगर दीप्ति न गई। सब के जाने के बाद दीप्ति अपनी बालकनी से उनका आंगन देख रही थी ,आराम कुर्सी अभी वैसे ही पड़ा था। जिस साबुन से स्नान कराया गया था वो साबुन ,रैपर, बाल्टी, सिरहाने जले अगरबत्ती के राख, घी की कटोरी, चंदन की कटोरी, और अर्थी से गिरे कुछ फूल यथावत पड़े थे। आंगन का सूनापन भयावह लग रहा था।वह घबराकर कर अपने कमरे में चली आई।3 बजे जब बच्चें स्कूल से लौटे तो उसने राहत महसूस की। तीसरे दिन जसविंदर ने दीप्ति से कहा-" आज गुरुद्वारे में पप्पा जी के नाम पूजा रखी गई है और उसके बाद लंगर....
आज क्यों?
हमारे यहां 3 दिन में ही सब कुछ पूर्ण हो जाता है। और शुद्धता हो जाती है।
अच्छा।
ऐसा करो साथ ही चलना , 8:00 बजे तक तैयार हो जाना।
नहीं , जसविंदर जी मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही मैं नहीं आ पाऊंगी ,मुझे माफ करिएगा।
कोई बात नहीं।
दीप्ति ने बीमारी का बहाना बनाकर गुरुद्वारे जाने को मना कर दिया । शाम को गुरुद्वारे से लौटने के बाद जसविंदर ने लंगर में खिलाए गए भोजन का एक थाल प्रसाद दीप्ति को दे आई।
वह प्रसाद तो ले ली परंतु उसे न तो खाई , न अपने परिवार वाले को खाने दी। एक बार उसका मन हुआ कि प्रसाद अपने काम वाली बाई को दे दे, परंतु दूसरे ही क्षण मन में आया कहीं यह जसविंदर को ना बता दे। इसलिए वह प्रसाद का पैकेट डस्टबिन में डाल कर बाहर फेंक आई।
रात्रि के 2:00 बजे थे अचानक दीप्ति की नींद टूट गई। उसे लगा कि खिड़की के पर्दे हट रहे हैं और कोई सफेद सा साया खिड़की के सामने से गुजर रहा है। वह दोबारा देखने की कोशिश की.... अभी भी पर्दा हिल रहा था और कोई सफेद का साया गुजर रहा था। वह डर से पसीने- पसीने हो गई।
उसने झकझोर कर पति को जगाया... सुधांशु देखिए खिड़की के पास कोई है?
कहां?
उधर...
वह दरवाजे खोल कर बाहर निकले ,चारों तरफ देखा, कहीं भी कोई नहीं था।
अंदर आ कर उसने कहा- " तुम कोई सपना देख ली हो या अद्धनिंद्रित अवस्था कोई वहम हो गया है तुम्हें...
नहीं सुधांशु! मैं जागृत अवस्था मैं देखी हूं।
लो पानी पियो, और आओ सो जाओ।
सुबह दीप्ति भी उसे सपना ही समझ कर भुला दी और अपने दैनिक कार्यों को निबटाती रही।
आज फिर ठीक रात के 2:00 बजे ही नींद खुल गई। खिड़की के पर्दे हिल रहे थे और कोई खिड़की के बाहर चहलकदमी कर रहा था। थोड़ी हिम्मत कर के वह बिस्तर से उतरी और खिड़की की ओर बढ़ गई, उसने गौर से देखने की कोशिश की.... वो जसविंदर के ससुर श्रीराम सिंह थे। वह डर कर जोर से चीखी और बेहोश हो गई। होश आया तो उसने देखा, पति और दोनों बच्चें उसे घेरे खड़े हैं। वह बच्चों को जोर से पकड़ ली।
नींद पूरी ना होने के कारण सुबह उसका सिर भारी लग रहा था। आज उसने दोनों बच्चों को स्कूल भी नहीं जाने दिया। अब उसे हर क्षण लगता किस श्रीराम का साया उसके इर्द-गिर्द घूम रहा है। वह रोटी बनाते समय भी पीछे मुड़ मुड़कर देखती ,कहीं कोई पीछे तो नहीं? डर का आलम यह था कि स्नान के समय भी वह बाथरूम के दरवाजे पर बच्चें को खड़ी रखती , दरवाजे की चिटकिनी बंद नहीं करती। रात होते ही पागलों सी हरकत करने लगती। घर के सभी लोग परेशान थे। कोई उसकी हालत समझ नहीं पा रहा था। सुधांशु उसे दिखाने अस्पताल ले गया। कुछ दवाओं के साथ डॉक्टर ने नींद की गोलियां भी दी थीं। सप्ताह भर तो गोलियां असर की ,लेकिन दूसरे सप्ताह से वही प्रॉब्लम पुनः शुरू हो गया। वह सुधांशु से घर बदलने की जिद कर रही थी। सुधांशु घर देख रहे थे परंतु बड़े शहरों में मन के मुताबिक घर मिला सहज कहां है? 15 दिन होते होते वह काफी बीमार व कमजोर गई।
वो में दिन में भी अकेली होती तो साया उसे दिखाई देने लगता.... पति और बच्चे जब सुबह निकल जाते तो वह भी घर ढूंढने निकल पड़ती।उस रोज उसे किराए का मकान मिल गया। सुधांशु दूसरे दिन सामान भेजना शुरू कर दिए। आज इस घर में आखिरी दिन था। वह दोनों बच्चों के बीच में सोई थी। रात के 2 बजे ऐसा लगा जैसे कोई कमरे में घुस आया हो। पलंग के ठीक सामने खड़ा हो गया। उसने दीप्ति की ओर अपना हाथ बढ़ाया। हथेली उसके चेहरे पर रखकर जोर से दबा दिया। उसके कानों के पास होंठ लाकर कहा-"क्या सोचती हो यहां से जाने के बाद मुझ से मुक्त हो जाओगी? "याद रखना... तुम कहीं भी रहो मैं आता रहूंगा।"
चेहरे पर हथेलियों का ऐसा दबाव था कि वह चीख भी नहीं सकती थी। अपने दोनों पैरों को जोर-जोर से पटकने लगी। पति की नींद खुल गई तो साया गायब हो गया। दीप्ति की जान में जान आई। वह अब भी डर से थर-थर कांप रही थी। सुधांशु उसे पानी पिलाते हुए बड़े प्यार से पूछे क्या हुआ?
सारी घटना वह हु-ब-हू बता दी। सुधांशु ने चेहरा गौर से देखा... सचमुच चेहरे पर पांचों उंगलियों के लाल निशान हो उभर आए थे। नींद उनकी भी गायब हो गई दोनों जागते रहे। दूसरे दिन नए घर में शिफ्ट कर गये। मगर यहां भी सुकून नहीं था। वह छाया वहां भी वैसे ही दिखाई दे रहा था। उसकी तबीयत ज्यादा खराब हो गई थी। परेशान सुधांशु ने अपने बैंक के कर्मचारी से अपनी परेशानी बताई तो उसने एक मंदिर का पता दिया कि आज ही जाकर वहां के पंडित से मिलिए। आपकी समस्या का निदान जरूर हो जाएगा। सुधांशु शाम को ही दीप्ति को लेकर मंदिर गये। पंडित जी को सारा हाल सुनाया। पंडित जी ने कुछ पल को ध्यान लगाया। नेत्र खोलते ही उन्होंने कहा-"आपकी पत्नी से एक पाप हो गया है।"
कैसा सा पाप?
इन्होंने श्राद्ध के अन्न का अनादर किया है। इसी कारण इन्हें यह परेशानी हुई है।
तब दीप्ति ने कहा-" हां ऐसा हुआ है उसने लंगर के प्रसाद को कूड़े में फेंक दिया था।"
दीप्ति पंडित जी के आगे गिड़गिड़ा रही थी। मुझे किसी तरह इस मुसीबत से उबार लीजिए।
सुनो ऐसा करो, रात को सोते समय एक गिलास पानी अपने ऊपर से उतार कर सिरहाने रख देना। सुबह उठकर बिना किसी से बात किए घर से थोड़ी दूर जाकर किसी पेड़ में डाल देना। आकर स्नान कर लेना और मंदिर जाकर 11 भिखारियों को खाना खिला देना ,उस आत्मा के नाम से ,और मन ही मन उस आत्मा से क्षमा याचना कर लेना। तुम्हारा कल्याण होगा।
अगली सुबह दीप्ति ने ठीक वैसा ही किया। आज वह हल्की महसूस कर रही थी। रात नींद भी अच्छी आई। अगली सुबह वह बिल्कुल सामान्य थी।