Dippriya Mishra

Inspirational Others

4.0  

Dippriya Mishra

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बेरंग जिंदगी के रंग

बेरंग जिंदगी के रंग

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सामाजिक प्रथाओं की बलिवेदी, हमेशा स्त्रियों की ही , क्यों बलि लेती है? अशिक्षा, कुपोषण, व्रत- उपवास, बाल विवाह, सती प्रथा......... सब इनके हिस्से क्यों आता है? अपने ख़्यालों में उलझी अर्पणा मशीन सी अपने काम निपटा कर अपनी डायरी लिखना शुरू की.....

इन दिनों मन बहुत अशांत है ।जब भी सोने जाती हूं ,स्मृतियों के पलट पर, बचपन की कोई घटना उभरने लगती है.....।

एक धुंधली सी याद है, मेरी उम्र कोई चार वर्ष की रही होगी । नानी के भतीजे की शादी में मैं नानी के साथ उनके मायके गई थी। घर पर चूड़ीवाली आई थी, सारी महिलाएं अपने पसंद की, चूड़ियां पहन रही थी ‌। मैं भी चूड़ी के लिए कितना बेचैन हो गई थी ? हां, मुझे भी लाल चूड़ियां चाहिए..... लेकिन चूड़ी वाली के पास छोटी बच्चियों के लिए सिर्फ काली चूड़ियां थीं, मजबूरन वही पहनना पड़ा । मैंने नानी से कहा -"नानी आप भी रंग बिरंगी चूड़ियां पहन लो।"

नानी ने कहा-"मेरी किस्मत में चूड़ियां नहीं लिखी बिटिया।"

उनकी आंखों में नमी आ गई थी। मुझे कुछ समझ नहीं आया.... इतना एहसास हुआ कि शायद मैंने कुछ गलत कह दिया है। बात आई गई हो गई।

शादी से लौटने के बाद , एक दिन मुझे सुलाते वक्त , नानी थपकीयां देती हुई कहानी सुना रही थी। मैंने कहा -"आज तोते की कहानी नहीं।"

रोज तो यही सुनती है?

बोलो कौन सी कहानी सुनेगी?

आप रंग बिरंगी चूड़ियां क्यों नहीं पहनती वो कहानी सुनाइए।

मेरी बात सुनकर कुछ पल को वो हैरान हो गईं ,पर मेरी जिद्द मान लीं।

नानी कहानी सुनाने लगी...... मेरी उम्र कोई पांच साल की रही होगी , उस समय हमारी शादी हो गई। उस ज़माने में लड़की की विदाई शादी में नहीं ,गोवने में होती थी.... जब मैं सात साल की हुई तो एक दिन हमारे ससुराल से कोई अशुभ सूचना लेकर आया.... घर में कोहराम मच गया .....मां छाती पीट कर रो रही थी ,मुझे खींच कर सीने से लगा लिया, और विलाप करने लगी- "तोहर कर्म फूट गेलवा मईया... पाहुना न रहलथु...... मैं भी बिना कुछ समझे मां के साथ रो रही थी।

मैं पूछी-"फिर क्या हुआ नानी?"

फिर क्या बिटिया? बस इतना पता चला कि मुझे अब रंग बिरंगी चूड़ियां नहीं पहननी है न ही सिंदूर लगाना है।

मेरा बालपन द्रवित होने लगा... मैंने ऊट-पटांग सा सवाल किया- क्यों नानी उस समय चूड़ी वाली नहीं आती थी क्या?

आती थी......एक दिन मैं, घर के दरवाजे पर खेल रही थी, अभी चूड़ी वाली की आवाज कानों में पड़ी...... मैं दौड़ती हुई मां के पास गई और कही- "मईया चूड़ीहारिन आइल हउ, हमरा तो चूड़ी ना पहिरे ला हाउ तू चूड़ी पहिर ले‌।" इतना सुनते ही मां फिर छाती से चिपका लीं, और रोने लगी।

उसके बाद क्या हुआ नानी?

....... उस जमाने में लड़की की दूसरी शादी नहीं होती थी, नौ साल की हुई तो ससुराल वाले मेरी विदाई कराकर ससुराल ले आए। सासु मां ने घर की चाबी मेरे कमर में खोंस दी । नौ बरस की उम्र में ही मैं प्रौढ़ हो गई.... और गृहस्थी की प्रबंधिका संभालने लगी। देवरों ने मुझे मां सा मान दिया, कमाई का पाई-पाई पैसा मेरे हाथ में दे देते , और खर्च के लिए मुझसे ही मांगते, कभी कोई हिसाब भी नहीं मांगते, मैंने भी यह जिम्मेवारी भगवान की कृपा से बखूबी निभाया कभी कोई ऊंच-नीच नहीं होने दी। देवरानियां भी प्रेम पूर्वक रहीं। कुछ बुरा भी लगा तो मौन रही, कभी मुंह नहीं खोला। उनके बच्चों को मैंने मां की तरह ही पाला है। नेह लगाया है, यही मेरी जीने की उम्मीद हैं।

नानी तो क्या आप मेरी मां, की मां नहीं हो?

मां से बढ़कर हूं, मैं तेरी मां की बड़ी मां हूं। उसे मैंने ही पाला है।

मैंने अगला सवाल किया-"आप हमेशा सफेद साड़ी पहनती हैं, कभी है रंगीन साड़ी क्यों नहीं पहनती?

रंगीन साड़ी तो कोई सौभाग्यशाली ही पहनती है, लेकिन मैं बदनसीब हूं ..... वैसे सफेद रंग में ही सातों रंग है ... सफ़ेद साड़ी पहनना ,और उसे दाग- रहित रखना ,आसान काम नहीं बिटिया एक तपस्या है, इसीलिए मैं सफेद ही पहनती हूं।

मैं शायद आठवीं क्लास में थी ,एक दिन स्कूल से आई ,तो देखी , मां रो रही है ,पूछने पर उन्होंने ,कोना कटा एक पोस्टकार्ड मुझे थमा दिया..... .

पढ़कर यकीन नहीं आ रहा था.... नानी... अब नहीं रही...। उनके अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाए .... यह भी हमारे लिए काफी दुखदाई था।

उनके अंतिम क्षणों के फोटोग्राफ देखी.... श्वेत केशराशी, बर्फ से सफेद पड़े चेहरे पर असीम शांति थी, माथे पर चंदन का टीका, नाक में वही चिर-परिचित सोने की गोल लौंग, बगुले के पंखों सा सफेद साड़ी में लिपटा उनका शरीर... वो मुझे अभिशप्त देवी सी लगीं। जिसे शाप वश भीष्म पितामह की भांति मानव जीवन दुःख- दर्द भोगना पड़ा.... उनके उजले दामन पर कभी कोई दाग ना आया ,नानी की तपस्या पूर्ण हो गई थी।

उनका अपना तो कोई नहीं था पर उन्होंने अपने व्यवहार से घर ही नहीं आज पड़ोस के लोगों को भी अपना बना लिया था उनके पीछे रोने वालों का हुजूम था। उनके ना रहने से घर ही नहीं ,जैसे पूरा मोहल्ला अनाथ हो गया था।

         अब नानी नहीं है ना ही मां रहीं, लेकिन कई प्रश्न नाग से फन उठाए ... मेरे पास आ जाते हैं, मैं खुद को बचाने की कोशिश करती हूं पर ...... सोचती दोषी कौन है? जातिगत परंपराएं? सामाजिक दबाव? उनके अभिभावकगण? ससुराल वाले? या नानी की नासमझी और अशिक्षा (वैसे वो धार्मिक पुस्तकें अक्सर पढ़ती थीं)? आखिर किसी ने अन्याय के विरुद्ध आवाज क्यों नहीं उठाईं? जवाब मिल भी जाए तो ...अब क्या?

मन कहता जवाब जरूरी है....नारी के उत्थान के लिए.....!



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