रोज़ी
रोज़ी
"पिया तोसे नैना लागे रे…" पता नहीं क्यों जब जब यह गाना रेडियो में सुनती है तब तब वह कही खो जाती है... उन पुराने ख़यालों में... आँखों के सामने गाइड की रोज़ी नज़र आती है...प्यार की चाह में भटकने वाली रोज़ी...
सारी औरतें तो रोज़ी नहीं होती है न? और जो रोज़ी बनना चाहती भी है तो क्या उसे इतनी आसानी से बनने दिया जाता है? उसका तो चरित्र हरण किया जाता है... प्रेम ही सत्य है... प्रेम ही शिव है...प्रेम ही सुंदर है...यह सारी बातें केवल किताबों में ही अच्छी लगती है..अपने प्रेम के लिए प्रेमी संग भागने वाली औरतें घरों में एक्सेप्ट नहीं होती है...बल्कि उनको तो प्रेमी संग ही मार दिया जाता है..फिर प्रेम करना क्या जायज़ हुआ?
वैसे अमूमन सारी औरतें उसे रोज़ी जैसे ही लगती थी...अपनी चाहत को भूलकर गृहस्थी में रमने वाली...
बड़ीयाँ, पापड़ सुखाने वाली...
तरह तरह के अचार बनाने वाली...
अचार के मर्तबान को धूप दिखाने वाली...
घर में ही मिर्च मसालें कूटने वाली...
हर साल गर्मियों के कपड़े सहेज सर्दियों के कपड़े निकालने वाली...
वह भी तो रोज़ी ही है...क्या नहीं है????
कल ही रात पति से बात हो रही थी कुछ ऐसे ही...कुछ बात करनी है....आधी अधूरी बातों के बीच पति महोदय कहने लगे, "क्या हुआ है?तुम्हें टाइम दो...टाइम दो...इतना टाइम देता ही तो हूँ और क्या करूँ? घर में ही रहूँ? बिज़नेस कौन सँभालेगा? सब कुछ तो मैं तुम्हारे लिए ही तो करता हूँ.... लगता है बहुत दिनों से शॉपिंग पर नहीं गयी हो...कल मेरा एटीएम् कार्ड ले जाकर अपने लिए कुछ ज्वेलरी खरीद लो.."
ज्वेलरी? सोना चांदी? क्या करूँ मैं उसका? पहन कर किसे दिखाऊँ? कोई हो तो देखने वाला? शायद रोज़ी को भी तो यही उलझन थी...फिर राजू में उसे वह मिल गया जिसकी उसे तलाश थी... वह तलाश कुछ खास नहीं थी...एक टाइम और साथ की ही तो दरकार थी... मर्द कहाँ इस बात को समझते है?
हर कोई कहेगा क्या कमी है इसके पास? कोई दो कदम और आगे बढ़कर कहेगा सुख इसको काटता है...वह रोज़ी कैसे बने? अब वह रोज़ी नहीं बन सकती...
अचानक उसकी निगाहें आँगन में गयी... बाहर अच्छी धुप थी... वह मन में कहने लगी, "चलो, आज धुप अच्छी आयी है... कुछ बड़ियाँ और पापड़ बनाने होंगे...दालों को भी धुप दिखानी होगी... और सिल्क की साड़ियों को भी उलट पलट करना होगा..."