Padma Agrawal

Abstract

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राधा के बिना तो कृष्ण हैं ही नहीं-------

राधा के बिना तो कृष्ण हैं ही नहीं-------

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द्वापर युग में राजा वृषभानु और रानी कीर्ति के यहां भाद्रपद शुक्ला अष्टमी को राधा रानी का जन्म हुआ। कथा है कि गोपियों ने देखा कि शत सहस्त्र चंद्रों कीकांति के साथ कीर्ति मैया के समक्ष लेटी बालिका के चारों ओर दिव्य पुष्पों का ढेर लगा हुआ था। दिव्य बालिका के जन्म से चारों तरफ खुशियां छा गईं थीं।

      पद्मपुराण में कथा है कि श्री वृषभानु जी यज्ञ भूमि को साफ कर रहे थे तो उन्हें भूमि कन्या श्री राधा प्राप्त हुईं। बैकुण्ठ में स्थित लक्ष्मी जी ही राधा जी के रूप में अवतरित हुईं ......

राधा का उल्टा होता है धारा ..... धारा का अर्थ है करेंट, यानी जीवन शक्ति .... भागवत की जीवन शक्ति हैं राधा हैं ...कृष्ण देह हैं तो राधा आत्मा, कृष्ण शब्द हैं तो राधा अर्थ हैं, कृष्ण गीत है तो राधा संगीत है, कृष्ण वंशी हैं तो राधा स्वर ... भगवान ने अपनी समस्त संचारी शक्ति राधा जी में समाहित की है, इसी लिये कहा है ....

जहां कृष्ण, तहां राधा .. जहां राधा तहां कृष्ण

न्यारे निमिष न होत कबहु, समुझि करहु यह प्रश्न

क्षी कृष्ण स्वयं कहते हैं --------

राधा नाम की महिमा अपरंपार है ... जिस समय मैं किसी के मुंह से ‘रा’ सुनता हूं , उसे मैं अपना प्रेम और भक्ति प्रदान कर देता हूं और जब वह ‘धा’ शब्द के उच्चारण करने पर तो मैं राधा नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे ही चल देता हूं।

    कालांतर में राधा कृष्ण की भक्ति का निरंतर विस्तार हुआ। निम्बार्क, वल्लभाचार्य, राधा वल्लभ और सखी समुदाय ने इसे पुष्ट किया। कृष्ण के साथ राधा जी सर्वोच्च देवी के रूप में विराजमान हैं। कृष्ण इस जगत को मोहते हैं और राधा, कृष्ण को मोह लेती हैं।

  12वीं शताब्दी में जयदेव के ‘गीत गोविंद ‘ ग्रंथ ने संपूर्ण भारत में कृष्ण और राधा के आध्यात्मिक प्रेम संबंध का जन जन में प्रचार हुआ।

भागवत में प्रसंग आता है – तीनों लोकों के तारक कृष्ण को शरण देने वाला ये हृदय उसी आराधिका का है , जो पहले राधिका बनीं ....उसके बाद कृष्ण की आराध्या बन गईं। राधा जी को तो परिभाषित करने की सामर्थ्य ब्रह्म में नहीं है। कृष्ण राधा से पूछते हैं ... हे राधे – भागवत में तुम्हारी क्या भूमिका होगी ?

राधा जी कहती हैं – मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिये कान्हा, मैं तो तुम्हारी छाया बन कर रहूंगी .....

कृष्ण के प्रत्येक सृजन की पृष्ठभूमि यही छाया है ... चाहे कृष्ण की बांसुरी का राग हो या गोवर्धन को उठाने वाली तर्जिनी या लोकहित के लिये मथुरा से द्वारिका तक की यात्रा की आत्म शक्ति ...

आराधिका का वर्णन ---भागवत पुराण में श्री राधा का स्पष्ट रूप से उल्लेख न होने का कारण ये कथा है कि शुकदेव जी श्री राधा रानी को अपना गुरू मानते थे ---- वह राधा जी के पास शुक रूप में रह कर

राधा – राधा नाम का जाप करते रहते थे। एक दिन राधा जी ने उनसे कहा कि हे शुक ..तुम अब राधा के स्थान पर श्री कृष्ण ...श्री कृष्ण का जाप किया करो। उसी समय श्री कृष्ण आ गये .... राधा ने यह कह कर कि यह शुक बहुत ही मीठे स्वर में बोलता है , उसे कृष्ण के हाथ में सौंप दिया ...अर्थात् उन्हें ब्रह्म का साक्षात्कार करा दिया। इस प्रकार से श्री राधा शुकदेव जी की गुरू हैं और वह अपने गुरू का नाम भला कैसे ले सकते थे।

  राधा कृष्ण ये दो शब्द अटूट प्रेम का उदाहरण माने जाते हैं भले ही वह एक दूसरे के कभी न हो सके परंतु फिर भी उन दोनों का नाम साथ में ही लिया जाता है। कृष्ण की प्रेमिका, शक्ति के रूप में सर्वत्र चित्रित की जाती हैं। रास लीला में उन्हीं की शक्ति और रूप का बहुत सुंदर वर्णन है। जयदेव रचित गीतगोविंद में कृष्ण की रास लीला और राधा जी की व्याकुलता का अनुपम काव्य रचना है।



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