पत्र
पत्र
पत्र जो आया था,उसमें प्रेषक का नाम नहीं था-जब पत्र लिखने वाले ने अपना नाम ही नहीं लिखा तो पता होने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। पत्र मेरे हाथ में था-और मैं उसे उलट पुलट कर देख रहा था।सोच रहा था आखिर ये पत्र किसका हो सकता है? इतनी सुंदर और ऐसी लिखावट तो मेरे किसी मित्र की नहीं है।बहरहाल मैंने पढ़ना शुरू किया-लिखा था-बहुत भले और सीधे आदमी हो तुम,तुम्हारे बारे में सुना बहुत था,फिर अपरचित सा तुम्हारे करीब आया,बातें की,जाना समझा तुम्हारे बारे में।हफ्तों मैं तुमसे मिलता रहा, बात करता रहा।कभी तुमने मेरे बारे में जानने की कोशिश नहीं की।मैं तो तुम्हारे बारे में जानने के लिये ही तुम्हारे पास गया था।तुमसे बात करना बहुत अच्छा लगता था।तुम्हारे बारे में जो सुना था,तुम तो ठीक उसके विपरीत निकले।मैं उन बातों का मंतब्य ढूंढने लगा जो तुम्हारे बारे में मेरी जानकारी में आयी थी।अब मुझे लगने लगा है कि तुम दया के पात्र हो।मुझे नहीं लगता दयावानों की कमी हो गयी है इस दुनिया में।लेकिन कोई दयावान अब तक तुमसे मिला नहीं है।किसी ने तुम पर दया नहीं की है, ये तो सच है।कभी कभी मुझको लगता है तुम किसी की दया लेना ही नहीं चाहते।सच क्या है मैं तो सिर्फ कल्पना ही कर सकता हूँ लेकिन तुम इसे बेहतर तरीके से जानते हो। फिर भी खुदा हाफिज।भगवान तुम्हारा भला करे।
