प्रतिशोध--भाग(४)
प्रतिशोध--भाग(४)
सत्यकाम ने जैसे ही प्राँगण में प्रवेश किया तो ___
ये कैसी अवहेलना हैं, सत्यकाम! जब तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर सकते तो तुम्हें उसका उत्तरदायित्व अपने हाथों में लेने का कोई अधिकार नहीं है, अब मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मेरा निर्णय उचित नहीं था, कदाचित तुम अभी इस योग्य नहीं हो कि इस गुरूकुल का कार्यभार तुम्हारे हाथों में सौंपा जाएं, आचार्य शिरोमणि क्रोधित होकर सत्यकाम से बोले।
आचार्य! मेरी भूल क्षमा योग्य नहीं हैं, आज मैंने बिलम्ब कर दिया, समय से पूजा अर्चना में नहीं पहुँच पाया, परन्तु इसका कारण जाने बिना आप मुझ पर इतने क्रोधित ना हो गुरुदेव! मुझ पर विश्वास रखें, किसी को मेरी सहायता की आवश्यकता थीं और मैं उसकी सहायता कर रहा था, सत्यकाम बोला।
अच्छा ठीक है, मुझे तुम पर विश्वास है, आज तक तुमने ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिससे मेरे आत्मसम्मान पर आँच आई हो और किसी ने मेरी योग्यता को आँका हो, तुम मेरे सबसे प्रिय छात्रों में से एक हो, तुम सबके योग्य होने पर मेरा आत्मबल बढ़ता हैं, तुम सबके उन्नत होने पर सबसे अधिक प्रसन्नता मुझको ही होती हैं और संसार में मैं गर्व से कह सकता हूँ कि ये मेरा शिष्य हैं, आचार्य शिरोमणि बोले।
जी, गुरुदेव मैं आपको ये वचन देता हूँ कि मेरे कारण कभी भी आपकी छवि धूमिल नहीं होगी, किन्तु कभी ऐसा हुआ तो मैं उसी समय अपने प्राण त्याग दूँगा, सत्यकाम बोला।
ऐसे बोल मुँख ना निकालो सत्यकाम, मेरे हृदय को पीड़ा होंगी, तुम मेरे सबसे तेजस्वी छात्र हो तभी तो मैंने ये कार्य तुम्हें सौंपा था, मुझे ज्ञात होता कि तुम किसी की सहायता कर रहें थे तो मैं कभी भी ऐसे कड़वे बोल तुम्हें ना बोलता और अब जाओ संध्या समय होने वाला है, संध्या की आरती तुम्हें ही करनी हैं, जाओ जाकर तैयारी करो, आचार्य शिरोमणि बोले।
अच्छा, आचार्य! अब मैं जाता हूँ और इतना कहकर सत्यकाम अपनी कुटिया में आ गया और अपने बिछावन पर लेटकर सोचने लगा कि कहीं मैं आचार्य के साथ विश्वासघात तो नहीं कर रहा, उन्होंने मुझे क्षमा तो कर दिया लेकिन मैंने उन्हें ये नहीं बताया कि मैं एक स्त्री के साथ था, परन्तु मैं तो केवल माया कि सहायता कर रहा था , वो भी मानवता के नाते, मेरा उससे कोई निजी सम्बन्ध तो है नहीं जो मेरे लिए लज्जा की बात हो, उसकी स्थिति अत्यधिक दयनीय थी, वो ज्वर से पीड़ित थीं और मैंने तो केवल उसका उपचार किया, मेरी दृष्टि मे ये कोई अपराध ही नहीं हैं, उसकी जगह अगर कोई पुरुष भी होता तो तब भी मैं वहीं करता, ये चिन्तनीय विषय नहीं हैं और मैं ऐसे ही चिंता कर रहा हूँ।
तभी किसी दूसरे शिष्य ने सत्यकाम को पुकारा कि संध्या आरती का समय हो गया है बाहर आओ और सत्यकाम चल पड़ा आरती हेतु।
संध्या समय सत्यकाम ने आरती की, इसके उपरांत सभी शिष्य भोजन बनाने में लगें, भोजन का कार्यभार भी सत्यकाम देख रहा था, सूरज डूब चुका था और रात्रि गहराने लगी तभी सत्यकाम को अपने वचन का ध्यान आया कि उसने माया से कहा था कि वो सायंकाल अवश्य आएगा, किन्तु जा नहीं पाया अपना दिया हुआ वचन नहीं निभा पाया, अब तो उसके मस्तिष्क में कौतूहल सा मच गया और उसका हृदय भी विचलित होने लगा क्योंकि माया का स्वास्थ्य भी तो ठीक नहीं था, ऐसा ना हुआ हो कि उसे पुनः ताप चढ़ गया हो और वो औषधि और भोजन के लिए मेरी प्रतीक्षा कर रही हों, हे ईश्वर! क्या करूँ? कैसे शांत करूँ अपने चित्त को, कब होगी रात्रि और कब सब सोएंगे, मैं तभी जा पाऊँगा माया के पास ।
कुछ समय उपरांत भोजन तैयार हो गया, सारे आचार्यों को भोजन कराने के उपरांत सभी शिष्यों ने भोजन ग्रहण किया, सत्यकाम का मन तो नहीं था किन्तु अपने मन को मारकर उसने सबके साथ भोजन कर लिया, भोजन करते करते ही ना जाने बिना आषाढ़ सावन के बरसात होने लगी, सभी छात्र भोजन करके अपनी अपनी कुटिया में विश्राम करने चले गए, सत्यकाम भी पहुँचा अपनी कुटिया में , कुछ भोजन लेकर और वो भोजन माया के लिए था क्योंकि उसे तो ज्वर था और वो अपने लिए भोजन तो बना नहीं पाईं होगी, जब उसके पास जाऊँगा तो ये भोजन भी ले जाऊँगा यही सोचकर वो भोजन लें आया था और भोजन रखकर वो अपने बिछावन पर लेट गया, किन्तु आँखों में निंद्रा कहाँ? चित्त तो माया में लगा था, सत्यकाम सोच रहा था कि ऐसा अनुभव तो उसे कभी भी किसी के लिए नहीं हुआ तो माया के लिए ही ऐसी भावना क्यों उत्पन्न हो रही है, क्या वो सबसे परे है या सबसे भिन्न हैं, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा, ये सोचते सोचते कहीं मेरा मस्तिष्क ना फट जाएं, बरसात भी अपनी तीव्र गति से हो रही थीं, बाहर बरसात थी और सत्यकाम के हृदय के भीतर अग्नि , जो उसे क्षण क्षण जला रही थी, यहीं सोचते सोचते सत्यकाम की आँख लग गई।
अर्द्ध रात्रि को सत्यकाम की आँख खुली और उसे स्वयं पर अत्यधिक क्रोध आया कि वो माया को संकट में छोड़कर सो कैसे सकता हैं, क्या ये मानवता हैं और उसने देखा कि बाहर अभी भी बरसात थी लेकिन केवल बौछार ही पड़ रहीं थीं, वो अपने बिछावन से उठा और भोजन को अच्छी तरह कई सारे पत्तलों में लपेटा कि भोजन भीगे नहीं और निकल पड़ा बरसात में माया से मिलने।
उसे जाते हुए गुरूकुल के दरबान ने पूछा ही लिया कि सत्यकाम अर्द्ध रात्रि में बरसात में कहां चलें?
बस, ऐसे ही मन नहीं लग रहा इसलिए थोड़ा बाहर जा रहा था, सत्यकाम बोला।
परन्तु, तुम कहीं नहीं जा सकते, ये आचार्य का आदेश है कि कोई भी छात्र अर्द्ध रात्रि को गुरुकुल से बाहर ना जा पाएं, जाओ जाकर अपनी कुटिया में विश्राम करो, दरबान बोला।
किन्तु, कुछ आवश्यक कार्य था, किसी को वचन दिया था, उसे ही निभाने जा रहा था किसी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और वो नेत्रहीन भी है, उसी के लिए भोजन लेकर जा रहा था और यदि आप जाने देंगे तो मेरा वचन अधूरा ना रहेगा और किसी भूखे को भोजन भी मिल जाएगा, सत्यकाम बोला।
दरबान ने सत्यकाम का मुख देखा और सोचा ये सबसे तेजस्वी छात्र है यहां का, ये झूठ कैसे बोल सकता है और दरबान ने सत्यकाम को जाने की अनुमति दे दी।
सत्यकाम रात्रि के गहरे अंधियारे में चल पड़ा भोजन लेकर माया से मिलने, उसके सिर पर जल की बौछार पड़ रही थी, परन्तु उसे कोई भी चिंता नहीं थी उसे तो बस अपना गंतव्य ही याद था और वो थी माया, ना उसे वन्यजीवों का भय था , ना कड़कती दामिनी का और ना ही आचार्य शिरोमणि का, उसे तो बस ये भय था कि कहीं माया को कुछ ना हो जाएं।
कुछ समय पश्चात सत्यकाम पहुंच गया माया की झोपड़ी तक और उसने द्वार से माया को पुकारा..
माया भीतर से बोली__
आप और इस समय, ऐसी क्या आवश्यकता थी इस समय आने की।
सब बताता हूं, पहले भीतर तो आने दो, सत्यकाम बोला।
आ जाइए, किवाड़ केवल अटके हैं, माया भीतर से बोली।
सत्यकाम ने किवाड़ खोले और भीतर पहुंचा उसने शीघ्र यही प्रश्न किया माया से कि__
आप स्वस्थ तो है ना।
हां, स्वस्थ हूं, माया बोली।
मैं आपके लिए भोजन लाया हूं, आप भोजन कर लीजिए, आपके भोजन करते ही मैं चला जाऊंगा, सत्यकाम बोला।
मैं भोजन कर लूंगी, परन्तु आप अभी इसी समय यहां से प्रस्थान ले जाइए, मैं नहीं चाहती की मुझ नेत्रहीन के चरित्र पर कोई उंगली उठाएं, कोई भी पराया पुरुष मेरी झोपड़ी में अर्द्ध रात्रि को प्रवेश करेगा और मैं करने दूंगी, क्या कहेगा ये संसार कि मैं कैसी स्त्री हूं, सब यही कहेंगे कि ये तो चरित्र से गिरी हुई है, आपको ना होगी अपने आत्मसम्मान की चिंता किन्तु मुझे तो है, मैं ताप से मर ही क्यों ना जाऊं पर किसी भी पराए पुरुष को अपनी झोपड़ी में नहीं आने दूंगी और अब भी आपके भीतर तनिक भी लज्जा बची है तो चले जाइए यहां से, माया बोली।
माया के इतने कटु वचन सुनकर सत्यकाम का हृदय फट गया, मस्तिष्क असंतुलित हो गया और नेत्र भर आए, अपना सा मुंह लेकर वो माया की झोपड़ी से चला आया, इतना अपमान वो सहन ना कर सका और मार्ग में उसकी आंखों के अश्रु बह बहकर गिरने लगे किन्तु बरसात के कारण ये जान ना पड़ा कि वो सत्यकाम के अश्रु थे या कि बरसात का जल।
सत्यकाम को लगा कि वो तो भलाई करने गया था लेकिन अपमान लेकर वापस लौटा, इसलिए आचार्य शिरोमणि सत्य ही कहते हैं कि हमें इस सांसारिक मोहमाया से दूरी बनाकर रखनी चाहिए, सब मिथ्या है, संसार में कोई किसी का नहीं होता, अगर होता तो माया मुझसे ऐसा व्यवहार कतई ना करती, मैं तो दया लेकर गया था और घृणा लेकर वापस लौटा, माया इतनी कठोर इतनी निष्ठुर हो सकती है, मैंने कभी भी ये नहीं सोचा था, अब माया से मैं कभी भी नहीं मिलूंगा, ना ही कभी उसका मुख देखूंगा, ऐसा स्वयं से सत्यकाम ने प्रण किया।
नेत्रों में अश्रु लिए सत्यकाम गुरुकुल पहुंचा,
दरबान ने पूछा___
मिल आए आप अपने परिचित से और आपकी आंखें इतनी लालिमा लिए हुए क्यो हैं, रक्त सी लाल प्रतीत हो रही हैं।
हां, वो बरसात के जल से हो गई होंगी, सत्यकाम ने झूठ बोल दिया।
सत्यकाम अपनी कुटिया में पहुंचा, गीले कपड़े बदले और बिछावन पर लेटकर जी भर के रोया, उसे स्वयं पर भी क्रोध आया कि वो गया ही क्यो माया के पास, परन्तु ये उसे भी कहां ज्ञात था कि माया इतनी पाषाण हृदय भी हो सकती है और यही सोचते सोचते उसे निंद्रा ने आ घेरा।
क्रमशः__

