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Saroj Verma

Horror

4  

Saroj Verma

Horror

नरपिशाच की प्रेमकहानी

नरपिशाच की प्रेमकहानी

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रात के लगभग बारह बज रहे थे, एकाएक रेलगाड़ी स्टेशन पर रूकी और मनोज अपना सामान और बिस्तरबंद लेकर नींचे उतरा, उसने देखा कि स्टेशन पर काफी सन्नाटा पसरा था और वहाँ उसे कोई कुली भी नज़र नहीं आ रहा था, ट्रेन से उतरने वाले यात्रियों में वो ही था जो अकेला ही ट्रेन से उतरा था, छोटा सा स्टेशन था और स्टेशन के किनारे पीपल के पेड़ लगें थे और दो चार बेंच पड़ीं थीं, मनोज अपना सामान लेकर एक बेंच पर बैठ गया और उसने अपने हाथ में जो ओवरकोट ले रखा था वो उसने पहन लिया क्योंकि बाहर उसे सर्दी का एहसास ज्यादा हो रहा था.....

     उसे लगा कि उसे सुबह तक शायद यहाँ इन्तज़ार करना पड़ेगा, तभी ठाकुर शिवप्रसाद सिंह जी की हवेली जाने के लिए उसे कोई साधन मिलेगा, लेकिन तभी एक बूढ़ा सा आदमी कम्बल ओढ़े हुए मनोज के पास आकर रूका और उससे पूछा.....

  आप ही मनोज अवस्थी बाबू हैं?

जी!हाँ!लेकिन आप कौन?मनोज ने पूछा।।

जी!मैं रंगीला!ठाकुर साहब का नौकर, उन्होंने मुझे बग्घी लेकर आपको लिवा लाने के लिए भेजा है, रंगीला बोला।।

अरे!तुम्हारा नाम तो बड़ा ही रंगीला है, मनोज बोला।।

वो हमार अम्मा हमार नाम रखी रहीं, हम होली वाले दिन पैदा हुए थे ना इसलिए, रंगीला बोला।।

तब तो अच्छा नाम चुना तुम्हारी अम्मा ने, मनोज बोला।।

फिर रंगीला ने मनोज का सूटकेस और बिस्तरबंद उठाया और बोला....

मनोज बाबू!हमारे पीछे पीछे चले आइएं....

और फिर दोनों आगें पीछे चलने लगें और कुछ ही देर में वें दोनों बग्घी के सामने थे, सामान रखकर दोनों बग्घी में चढ़ गए और रंगीला ने बग्घी चलानी शुरु कर दी, मनोज ने देखा कि स्टेशन की तरह रास्ता भी बहुत सुनसान था, ऊपर से अमावस की काली रात और काला अँधेरा, रास्ते के पेड़ भी भूतों की तरह ही नज़र आते थे, पेड़ो के ऊपर बैठे उल्लूओं की आँखें चमक रह़ी थी, यदा कदा पेड़ो पर चमगादड़ भी उड़ते हुए नज़र आ जाते....

   तभी मनोज ने रंगीला से पूछा....

अभी ठाकुर जी की हवेली बहुत दूर है क्या?

नहीं! बस यहाँ से लगभग पाँच कोस दूर होगी, रंगीला बोला।।

तुम इसे पास में कह रहे हो और मुझसे तो अब रहा नहीं जा रहा है, मनोज बोला।।

तो हम यहाँ बग्घी खड़ी किए देते हैं आप झाड़ियों के पीछे हल्के होकर आ जाइए, रंगीला बोला।।

रंगीला की इस बात पर मनोज हँस पड़ा, मनोज को हँसता देखकर रंगीला ने परेशान होकर पूछा....

आप हँसे काहें?

अरे, मुझे हलका नहीं होना, बहुत तेज़ भूख लगी है भाई! इसलिए नहीं रहा जा रहा और फिर इतनी रात को कोई बेवकूफ ही होगा जो इन झाड़ियों में हल्का होने जाएगा, मैं तो कभी ना जाऊँ, मनोज बोला।।

अच्छा! तो ऐसन कहिए ना! हमें लगा आपको नम्बर एक जाना है, रंगीला बोला।।

  वो लोग यूँ ही बातें करते हुए चलते चले जा रहे थे, तभी बीच में एक पुरानी सी खण्डहर हवेली मिली जिसमें बिल्कुल धीमी सी रौशनी जगमगा रही थी, तब रंगीला बोला....

मनोज बाबू!उस हवेली को ओर मत देखना , नहीं तो डाकिनी आपके पीछे पड़ जाएगी,

डाकिनी....ये डाकिनी कौन हैं? मनोज ने पूछा।।

जी! पिशाचिनी! जो लोगों का खून पीती है, जो भी उसके चक्कर में फँस जाता है तो जिन्दा नहीं बचता, रंगीला बोला।।

अरे!ये सब फालतू की बातें हैं, मनोज बोला।।

मत मानिए, लेकिन हम तो मानते हैं, एक बार हमारे बापू के पीछे पड़ गई थी, सफेद साड़ी में रोज रात को आती थी और बापू का खून पीकर जाती थी, बापू का शरीर दिनबदिन नीला पड़ने लगा तो फिर अम्मा ने एक अघोरी बाबा से इलाज करवाया तब जाके हमारे बापू ठीक हुए और अघोरी बाबा उस डाकिनी को एक लोटे में कैद करके एक पीपल के पेड़ के नीचें गाड़ आएं थे, रंगीला बोला।।

ओह...ये तो बहुत डरावनी कहानी सुनाई तुमने, मनोज बोला।।

जी! ऐसी बहुत सी कहानी हमें पता हैं फिर कभी सुनायेंगे आपको, वैसे आप यहाँ कितने दिन रूकने वाले हैं? रंगीला ने पूछा।।

अब ये तो ठाकुर साहब ही बतायेंगे, मनोज बोला।।

वैसे आप यहाँ आएं किस काम से हैं? रंगीला ने पूछा।।

ठाकुर साहब ने बुलवाया है, वे मेरे दादा जी के पुराने दोस्त थे, मेरे दादा जी ने उन्हें कोई काम सौंपा था, शायद वो पूरा हो गया इसलिए उन्होंने मुझे यहाँ बुलवाया है, मनोज बोला।।

अच्छा !तो ये बात है, रंगीला बोला।।

वैसें उनके परिवार में कौन कौन हैं?मनोज ने पूछा।।

जी!दो बेटे और दो बहुएं हैं, दो पोतें और तीन पोतियाँ हैं, ठकुराइन तो कब की चल बसी, लेकिन इतना बड़ा परिवार होने के बावजूद भी वें अकेले ही इतनी बड़ी हवेली में रहते हैं, सारे परिवार को विदेश भेज दिया है और ना जाने कौन सा राज है जिसे वें हरदम दूसरों से छुपाने की कोशिश करते रहते हैं, रंगीला बोला।।

क्या कह रहे हों?मनोज ने पूछा।।

सच कहते हैं मनोज बाबू!वें हमेशा खौफ़ के साए में रहते हैं, रंगीला बोला।।

ऐसा कौन सा राज है जिसे वो छुपा रहें हैं, मनोज ने कहा।।

वही तो मनोज बाबू!हम तो खुद ही सोच रहे थे, रंगीला बोला।।

अब तो भाई मुझे हवेली जाने से डर लग रहा है, ऊपर से हवेली इतनी सुनसान जगह है, वहाँ से रेलवें स्टेशन भी इतनी दूर है कि कभी भागना हो तो भाग भी ना पाऊँ, मनोज बोला।।

मनोज की बात सुनकर रंगीला ठहाका मारकर हँस पड़ा और उसकी तेज हँसी की आवाज़ पूरे इलाके में गूँज गई, जो काफी डरावना माहौल बना रही थी, कुछ ही देर में वें दोनों हवेली पहुँच गए और बग्घी हवेली के लोहे के गेट के पास रूकी, दरबान ने दौड़कर गेट खोला, फिर बग्घी भीतर के मैदान से होती हुई हवेली पहुँचकर उसके दरवाज़े के सामने खड़ी हो गई...

  हवेली का दरवाज़ा खुला और मनोज बग्घी से उतरकर हवेली के भीतर पहुँचा, पीछे पीछे रंगीला भी सामान लेकर पहुँचा, हवेली पहुँचकर वो ठाकुर शिवप्रसाद जी से मिला, ठाकुर साहब बोलें....

   आपका कमरा ऊपर है, आप जाकर हाथ मुँह धोकर कुछ खा लीजिए, सबकुछ आपको अपने कमरे में ही मिल जाएगा, खाना भी टेबल पर लगा हुआ है, यहाँ मैं अकेले रहता हूँ इसलिए मैंने ज्यादा नौकर नहीं रखें हैं बग्घी चलाने के लिए रंगीला है, खाना बनाने के लिए गंगाराम है और हवेली की साफ सफाई का काम मैंने धन्नो को सौंप रखा है, ये मेरे बहुत पुराने और विश्वसनीय नौकर हैं, मेरे साथ साथ ये तीनों भी बूढ़े हो चुके हैं लेकिन इन सबकी वफादारी अभी भी बरकरार है, आप जब खा पी लें तो यहीं बैठक में आ जाइएगा, मैं तब तक यहाँ बैठकर आपका इन्तजार करता हूँ, हाँ! कोई जल्दबाज़ी मत कीजिएगा आराम से आइए, रंगीला आपको आपके सामान के साथ आपके कमरे तक छोड़ आएगा,

      जी! बहुत अच्छा और इतना कहकर मनोज अवस्थी दिमाग में हजारों सवाल लिए हुए अपने कमरें पहुँचा, वो मन ही मन सोच रहा था कि आखिर ठाकुर साहब मुझसे चाहते क्या हैं? फिर मनोज ने फालतू की बात ना सोचते हुए अपनी भूख पर ध्यान केन्द्रित किया, रंगीला भी सामान रखकर जा चुका था, फिर वो सबसे पहले बाथरूम गया, वहाँ जाकर अपने हाथ मुँह धोकर वह लौटा, बिना कपड़े बदले ही तौलिए से चेहरा और हाथ पोंछकर खाने की टेबल पर बैठ गया, खाना बहुत ही लज़ीज़ था औ वो भूखा तो बस चुपचाप पहले उसने खाना खतम किया और फिर डकार मारकर दो घड़ी वहाँ पड़े बिस्तर पर लेटा गया, फिर कुछ सोचकर उसने अपना सूटकेस खोलकर रोजमर्रा के कपड़े निकाले और उसने अपना कोट उतारकर एक ओर रखा फिर अपने कपड़े बदलकर रोजमर्रा के कपड़े पहन लिए, कमरा काफी गरम था क्योंकि उस कमरे में आग का भी इन्तजाम था इसलिए उसे ज्यादा गरम कपड़े पहनने की जरूरत महसूस नहीं हुई, उसने एक गरम शाल आपने चारों ओर लपेटा और ठाकुर साहब के पास चल पड़ा,

     वो सीढ़ियाँ उतरकर नीचें बैठक में पहुँचा, उसने देखा कि ठाकुर साहब आरामकुर्सी पर बैठकर कोई किताब पढ़ रहे हैं, वो ठाकुर साहब के पास पड़ी हुई कुर्सी पर जा बैठा और उनसे बोला...

 जी!अब कहें कि क्या बात है?

 आ गए आप!ठाकुर साहब ने अपना चश्मा उतारकर वहीं रखें स्टूल पर रख दिया और हाथ में ली हुई किताब भी बंद कर दी, फिर मनोज से बोलें....

 चलिए मेरे साथ मैं आपको कुछ दिखाना चाहता हूँ,

और फिर मनोज उनके साथ चल पड़ा, ठाकुर साहब पहले उसे अपने स्टडीरूम में ले गए, जहाँ अलमारियों में बहुत सी किताबें भरी पड़ी थीं, फिर उन्होंने अपने टेबल की दराज में से एक चाबी निकाली और स्टडीरूम के बीच वाली अलमारी को खिसकाने लगें, अलमारी भारी थी और उसमें किताबें रखी होने के कारण और भी भारी हो गई थी, ऊपर से बूढ़ा शरीर, उनसे अलमारी नहीं खिसकी तो मनोज बोला....

       मैं भी आपकी मदद करता हूँ और इतना कहकर मनोज अलमारी खिसकाने में उनकी मदद करने लगा, अलमारी खिसक गई तो मनोज ने देखा कि वहाँ एक खुफिया दरवाजा है और उसमें बड़ा सा ताला लगा हुआ है, उस खुफिया दरवाज़े के ताले को ठाकुर साहब ने दराज से निकाली हुई चाबी से खोला, भीतर बहुत अँधेरा था तो ठाकुर साहब वोलें, मैनें बैठक में एक लालटेन जलाकर रखी थी, जाओ उठा लाओ, मनोज ठाकुर साहब के कहें अनुसार लालटेन उठाकर लाया और दोनों उस अँधेरी सी गैलरी में चल पड़े,

     जैसे जैसे दोनों भीतर घुसते जा रहे थे तो उन्हें ठंड का और अधिक आभास होता जा रहा था, मनोज को डर भी लग रहा था और वो यही सोच रहा था कि आखिर ठाकुर साहब उन्हें लेकर कहाँ जा रहे हैं? कुछ ही देर में ठाकुर साहब रूके और मनोज से कहा अब यहीं रूकिए, उनके कहने पर मनोज वहीं रूक गया, तब ठाकुर साहब ने अपने हाथ में ली हुई लालटेन ऊपर की और उसकी रोशनी से दीवार पर देखा तो वहाँ एक दरवाजा और था, पर उस दरवाजे पर कोई ताला नहीं था, ठाकुर साहब ने उस दरवाजे की कुण्डी खोली तो एक सुनहरी सी रोशनी उस दरवाज़े से बाहर आने लगी, ये देखकर मनोज थोड़े आश्चर्य में पड़ गया, पर तभी ठाकुर साहब मनोज से बोले....

    आइए भीतर चले आइए....

 मनोज उनके पीछे पीछे भीतर जाने लगा, वें उसे एक काँच के गोल पारदर्शी खोल के पास ले गए और बोलें....

इसे ध्यान से देखों....

मनोज ने वहाँ जो देखा तो उसे देखकर वो अचम्भित रह गया, उस काँच के खोल के भीतर एक भयानक सा छोटा जीव था, जो मटमैलें रंग का था, उसकी लम्बी पूँछ थी, दो सींग और बड़े बड़े नुकीले भयानक दाँत थे, उसकी आँखें खून जैसी लाल थी और सबसे बड़ी आश्चर्यजनक बात ये थी कि वो जीवित था, जब मनोज उसे देख रहा था तो वो भी मनोज को उदास भरी निगाहों से देख रहा था, उस जीव के चेहरे पर खुशी और ग़म के मिले जुले भाव थे, मनोज के लिए ये बहुत ही अद्भुत नजारा था, उसने ऐसा जीव अपने जीवन में पहली बार देखा था और उसे उसके बारे में जानने की बहुत उत्सुकता हो रही थी, चूँकि वो प्रोफेसर होने के साथ साथ एक लेखक भी था इसलिए उसके बारे में जानने की उसकी जिज्ञासा और भी बढ़ गई थी तब उसने ठाकुर साहब से पूछा.....

    ठाकुर साहब! ये कौन सी बला है? मैंने ऐसा जीव अपनी जिन्दगी में पहली बार देखा है,

 चलो मैं तुम्हें इसकी कहानी सुनाता हूँ, ठाकुर साहब बोले....

 इसकी कहानी भी है, मनोज ने पूछा.....

   हाँ!ये एक वैम्पायर है, जो तुमने केवल कहानियों में ही पढ़े होगें, ये रक्तचूषक होतें हैं, ठाकुर साहब बोले।।

जी!मुझे पता है कि ये रक्त चूषक होते हैं, इन्हें पिशाच भी कहते हैं लेकिन ये सच में होते है मुझे ये आज पता चला, मैनें पहली बार किसी पिशाच को देखा है, मनोज बोला।।

        तो फिर इसकी कहानी सुनो और इतना कहकर ठाकुर साहब ने कहानी सुनानी शुरू कर दी....

  ये बहुत पुरानी बात है यही कोई लगभग सत्तर साल पहले की, एक बहुत ही प्यारी बच्ची किसी गाँव में अपने माता पिता के साथ रहा करती थी, उसका नाम कालिन्दी था, उसकी उम्र लगभग दस साल थी, वो बहुत ही प्यारी और सुन्दर थी, उसकी मीठी मीठी बातें सबका मन मोह लेतीं थीं, उन सबका जीवन हँसी खुशी गुजर रहा था और तभी उस गाँव में सूखा पड़ गया, कुछ गाँव वाले अन्न और काम की तलाश में इधर उधर जाने लगें लेकिन कालिन्दी के माँ बाप के साथ साथ उस गाँव के और लोग भी अपना जन्मस्थान छोड़ने को तैयार ना थें, तभी उनके गाँव में एक बाबा आएं और एक पीपल के पेड़ के नीचें अपना डेरा डाल लिया, गाँव के लोंग उनके पास अपनी समस्या का समाधान पाने गए तो वें बोलें.....

     ये काम तो कोई अघोरी ही कर सकता है, वो ही कुछ ऐसा करें तो ही बरखा हो सकती है,

लेकिन हम अब अघोरी बाबा को कहाँ ढूढ़े?कालिन्दी के पिता जगजीवन त्रिपाठी जी ने पूछा,

      मैं जानता हूँ एक अघोरी को, बाबा बोलें।।

कहाँ मिलेगें वेँ, कालिन्दी के पिता जगजीवन त्रिपाठी ने पूछा।।

  वो अघोरी तुम्हारे ही गाँव के शमशान में रहता है लेकिन वो केवल अमावस की काली रात को ही अपनी तंत्र विद्या का प्रयोग करके दूसरों की मदद करता है, इसके लिए उसे अपने प्राण भी जोखिम में डालने पड़ते हैं, क्योंकि ये पता नहीं रहता कि जिस आत्मा को उन्होंने बुलाया है वो कितनी शक्तिशाली है, कभी कभी तो ऐसे पिशाच और पिशाचिनी प्रकट हो जाते हैं कि फिर उन पर काबू पाना मुश्किल होता है, बाबा बोलें....

   तो फिर मैं आज रात ही उनसे इस कार्य के लिए बात करता हूँ क्योंकि मैं इस गाँव का मुखिया भी हूँ, मेरे गाँव की जनता भुखमरी से मर रही है इस लिए मेरा कर्तव्य बनता है कि मैं अपने गाँव की जनता की समस्याओं का समाधान कर सकूँ, जगजीवन त्रिपाठी बोले।।

   फिर क्या था जगजीवन जी ने अघोरी बाबा से बात की और वें मान गए और सबसे अच्छा ये था कि एक दिन बाद ही अमावस की रात थी, तो ये कार्य जल्द ही पूर्ण होने वाला था, अघोरी बाबा मान भी गए इस कार्य के लिए और उन्होंने शमशान घाट पर अपना अनुष्ठान करना प्रारम्भ कर दिया, काला घेरा बनाकर उस पर खोपड़ियाँ और हड्डियांँ सजाकर वें मंत्रों का जाप करने लगें, उन्होंने गाँव वालों से वहाँ ना आने के लिए मना किया और बोलें कि देखना मेरा अनुष्ठान पूर्ण होते ही बरखा होगी.....

    और ऐसा ही हुआ उस रात आधी रात के बाद से ऐसी बारिश शुरु हुई कि दूसरे दिन दोपहर तक होती रही, जब बादल खुले तो जगजीवन जी के साथ साथ और गाँव के लोग अघोरी बाबा का शुक्रिया अदा करने पहुँचे लेकिन वहाँ का नज़ारा देखकर वे सब भयभीत हो उठे क्योंकि वहाँ अघोरी बाबा की एक पेड़ के नीचे लाश पड़ी थी जो कि एकदम नीली पड़ चुकी थी, ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी ने बाबा का खून चूस लिया हो, गाँववालों ने फौरन ही बीमारी फैलने के डर से बाबा का अन्तिम संस्कार कर दिया...

        लेकिन गाँववाले मन ही मन डर भी रहे थे कि ऐसा तो नहीं कि कोई बुरी आत्मा हमारे गाँव में आ गई हो और फिर धीरे धीरे हम सबका खात्मा करने लगें, लेकिन उस दिन के बाद बारिश ठीक से होने लगी और सब जगह हरियाली छा गई इसलिए गाँववालें इस बात को भूल गए, सब अपने काम काज में लग गए, लेकिन जब अमावास की रात दोबारा आई तो जगजीवन राम जी घर के पास वाले बरगद के पेड़ के नीचे एक औरत की लाश मिली, जिसका किसी ने खून चूस लिया था और वो भी अघोरी बाबा की तरह बिल्कुल नीली पड़ी थी, अब गाँववालों का शक़ यकीन में बदल गया कि हो ना हो यहाँ कोई ऐसा पिशाच आ गया है जो अमावस की रात लोगों का खून चूसकर लोगों को मार डालता है, गाँव में अब बहुत ज्यादा दहशत फैल चुकी थी लेकिन इस समस्या का उपाय किसी के पास ना था क्योंकि पिशाच को कभी किसी ने देखा ही नहीं था, पता नहीं वो पिशाच किस रूप में उन सबके बीच रहता था,

       इसी तरह एक दिन दस साल की कालिन्दी उस पेड़ के नींचे अपनी सहेलियों के साथ खेलने गई, जो कि वो वहाँ अक्सर जाती थी, उसकी मीठी मीठी सीं बातें और खिलखिलाहट वैसे भी राहगीर की राह रोक लेती थी, वो उस दिन भी खेल रही थी लेकिन किसी बात पर उसकी अपनी सहेलियों से बहस हो गई और बात छीना झपटी से मार कुटाई तक पहुँच गई, वो सब तमाशा उस पेड़ पर रह रहा पिशाच देख रहा था, उसे कालिन्दी बहुत प्यारी थी इसलिए वो उसे देखने वहाँ आ जाता था और छोटे चमगादड़ का रूप धर पेड़ की किसी खोखली जगह में छुपकर उसे देखता रहता था, लेकिन जब कालिन्दी की सहेलियाँ उसे जोर जोर से मारने लगी और उसके बाल खींचने लगी तो ये उस पिशाच से ना देखा गया और वो एक दस साल के लड़के का वेष धरकर आया और उसने कालिन्दी को उसकी सहेलियों से बचा लिया, उसने उन लड़कियों को दो दो थप्पड़ मारकर भगा दिया, वें लड़कियांँ रोतीं हुई अपने घर को भाग गई....

   तब कालिन्दी ने उस नर पिशाच से पूछा....

कौन हो तुम? यहाँ कब आएं? कालिन्दी ने पूछा।।

अरे!मैं तो हवा से भी तेज हूँ कहीं भी पहुँच जाता हूँ, नरपिशाच बोला।।

अच्छा!तुमने मुझे बचाया मुझे अच्छा लगा लेकिन तुमने उन्हें मारा वो मुझे अच्छा नहीं लगा, कालिन्दी बोली।।

तो वें भी तो तुम्हें मार रहीं थीं, नरपिशाच बोला।।

वो भी सही बात है लेकिन तुम्हारा नाम क्या है?वो तो तुमने अब तक नहीं बताया, कालिन्दी ने पूछा।।

  मेरा नाम....मेरा नाम...वो तो मुझे पता नहीं, नरपिशाच बोला।।

ये सुनकर कालिन्दी हँसने लगी और बोली....

तुम्हारे माँ बाप तुम्हें क्या कहकर पुकारते हैं,

मेरे तो माँ बाप ही नहीं हैं, नरपिशाच बोला।।

ओह...ये तो बड़े दुख की बात है, कोई बात नहीं आज से मैं तुम्हारी दोस्त हूँ और तुम हवा से भी तेज हो इसलिए आज से तुम्हारा नाम पवन है, कालिन्दी बोली।।

पवन....ये तो अच्छा नाम है, नर पिशाच खुश होकर बोला...

तुम रहते कहाँ हो?कालिन्दी ने पूछा।।

मैं इस पेड़ पर रहता हूँ, पवन बोला।।

ये सुनकर कालिन्दी फिर हँसी और बोली....

भला पेड़ पर भी कोई रह सकता है, पेड़ पर तो बन्दर रहते हैं।।

तो मैं अब कहाँ रहूँ?पवन ने पूछा।।

वो उधर उस खेत के पास जो एक टूटा फूटा पुराना महल है, अब उसमें कोई नहीं रहता, तुम वहीं जाकर रहो और मैं तुम्हारे लिए रोज वहीं खाना ले आया करूँगीं, कालिन्दी बोली।।

ठीक है, पवन बोला।।

आज से मैं और तुम सच्चे दोस्त हैं, कालिन्दी इतना कहकर चली गई....

 अब रोज कालिन्दी पवन से मिलती , उसके लिए खाना लाती और खिलखिला कर हँसती रहती, ये देखकर पवन मन ही मन कालिन्दी को देखकर खुश होता रहता, ये बात कालिन्दी ने अपने माँ बाप से कही तो वें बोलें....

किसी अन्जान लड़के से मिलना जुलना ठीक नहीं , इसलिए तुम उससे मत मिला करो,

माँ बाप की हिदायत के बाद फिर कभी कालिन्दी ने पवन का जिक्र किसी से नहीं किया , अपने माँ बाप से भी नहीं, लेकिन उसने पवन से मिलना भी नहीं छोड़ा और उसके लिए खाना ले जाना भी नहीं छोड़ा और अब ये अच्छा रहा कि अब की बार अमावस की रात में किसी का खून नहीं हुआ किसी की लाश नहीं मिली गाँव में और उसके बाद भी किसी अमावस में ना तो किसी की लाश मिली और ना ही किसी का खून हुआ, गाँव वाले निश्चिन्त हो गए कि और उन्होंने सोचा कि शायद नरपिशाच उनके गाँव को छोड़कर कहीं चला गया है,

        ये बदलाव पवन में कालिन्दी की दोस्ती के कारण आया था, जो वो अब किसी को मारता नहीं था, ऐसे ही पाँच साल बीत गए, कालिन्दी और पवन की दोस्ती बरकरार रही, जैसे जैसे कालिन्दी बड़ी होती गई तो पवन भी अपनी शक्तियों द्वारा बड़ा होने का रूप बदलता गया, वो भी अब पन्द्रह साल का ही दिखता था, लेकिन अब धीरे धीरे उस नरपिशाच की संवेदनाओं में बदलाव आ रहा था और उसकी भावनाएं कालिन्दी के साथ रहकर इन्सानों की तरह ही होती जा रहीं थीं,

     वो अब कालिन्दी को बहुत पसंद करने लगा था, उसकी पसंद अब प्रेम का रूप लेने लगी थी, उसका हृदय भी कालिन्दी को देखकर धड़कता था, उसकी आँखों की शुष्कता अब आँसू नामक पानी से द्रवित हो जाती थीं, जब कालिन्दी कभी कभी उसका हाथ पकड़ लेती तो वो स्पर्श उसे भीतर तक गुदगुदा जाता, दोनों साथ खेलते और साथ खाते थे, कालिन्दी को पवन अच्छा लगता था लेकिन वो उसे प्रेमिका की दृष्टि से नहीं देखती थी हमेशा एक दोस्त की हैसियत से देखती थी, ऐसे ही दोनों की दोस्ती को कुछ वक्त और बीता लेकिन पवन ने कभी भी कालिन्दी से ये नहीं कहा कि वो उसे पसंद करता है क्योंकि उसे पता ही नहीं था कि इस भावना को प्रेम कहते है, वो तो भूतों की दुनिया से आया था और प्रेम का अर्थ नहीं समझता था, बस वो कालिन्दी को सदा अपने पास रखना चाहता था,

     अब कालिन्दी सोलह पार करके सत्रहवीं में लग चुकी थी तो घरवालों ने उसके रिश्ते की बात चलाई और उसे लड़के वाले देखने आएं, उन सबको कालिन्दी पसंद आई और ब्याह पक्का हो गया, ये बात खुश होकर जब कालिन्दी ने पवन को बताई तो उसे बहुत बुरा लगा और उसने कालिन्दी से पूछा....

क्या तुम मुझे छोड़कर चली जाओगी?

हाँ!ब्याह के बाद मुझे तुम्हें छोड़कर जाना ही होगा, कालिन्दी बोली....

लेकिन मैं तुमसे दूर नहीं रह सकता, तुम मुझे अच्छी लगती हो, पवन रोते हुए बोला।।

क्या तुम मुझे चाहने लगे हो?कालिन्दी ने पूछा।।

मुझे नहीं मालूम कि प्यार क्या होता है?बस मुझे तुम अच्छी लगती हो और मैं तुमसे दूर नहीं रह सकता, कालिन्दी!पवन बोला।।

ये प्यार ही तो है, तुम्हारी चाहत ही तो है जो तुम नहीं चाहते कि मैं तुमसे दूर जाऊँ, लेकिन मुझे जाना होगा पवन!कालिन्दी बोली।

नहीं!मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा....अगर तुम गई तो मैं किसी को जिन्दा नहीं छोड़ूगा, पवन बोला।।

क्या करोगे तुम? सबका खून करोगे? कालिन्दी चीखी।।

हाँ....और इतना कहकर पवन अपने असली रूप में आ गया, ये देखकर कालिन्दी डर गई और बोली.....

 तो तुम पवन नहीं कोई और हो....

हाँ!ये नाम तो तुमने मुझे दिया था, मुझे एक अघोरी बाबा ने यहाँ उस दुनिया से बुलाया था, उस रात मैनें उसे मार डाला फिर एक औरत का खून चूसकर भी उसे मार डाला, लेकिन जब तुम मुझे मिली तो मैं एक नरपिशाच से अच्छा इन्सान बन गया, तुम्हारे कारण ही मैं अच्छा बना, अगर तुम मेरी जिन्दगी में नहीं रहोगी तो मैं फिर से रक्तचूषक बन जाऊँगा, बोलो तुम्हें मंजूर है, पवन बोला।।

तुम ऐसा कुछ नहीं करोगें, तुम मेरे दोस्त पवन हो, जब तुम मेरे प्यार के खातिर अच्छे बन गए तो फिर अच्छे ही बने रहो ना!कालिन्दी बोली।।

  मैं तुम्हारे साथ कुछ भी बनकर रह सकता हूँ लेकिन तुम्हारे बिना मैं मर जाऊँगा कालिन्दी! नरपिशाच बोला।।

 नहीं! मैं एक नरपिशाच से कैसे ब्याह कर सकती हूँ? कालिन्दी बोली।।

क्यों नहीं कर सकती? पवन ने पूछा।।

तुम्हें अगर मेरा शरीर चाहिए तो मैं तुमसे ब्याह करने को तैयार हूँ लेकिन फिर तुम मेरे दिल से उतर जाओगे, तुम्हें मेरे दिल में कभी कोई स्थान नहीं मिलेगा, तो बोलो तुम्हें मेरे दिल पर अधिकार चाहिए या शरीर पर, कालिन्दी ने पूछा।।

कालिन्दी मुझे तुम्हारा शरीर चाहिए होता तो इतने साल से तुम अकेली मेरे पास आ रही हो तो मैनें वो पा लिया होता लेकिन मुझे ये सब कुछ पता ही नहीं है ना प्यार और ना कुछ, बस मैं चाहता हूँ कि तुम हमेशा खिलखिलाती रहो, पवन बोला।।

जब मैं खुश रहूँगीं तभी तो खिलखालाऊँगीं और तुमसे ब्याह करके मैं कभी भी नहीं खिलखिला सकती क्योंकि मैं तुम्हें केवल दोस्त मानती हूँ, तुमसे ब्याह करने का विचार तो कभी भी मेरे मन में आया ही नहीं, कालिन्दी बोली।।

 ठीक है कालिन्दी तुम अगर किसी और से ब्याह करके खुश रहोगी तो यही सही और फिर नरपिशाच पवन के रूप में पुनः आकर कालिन्दी के गले लगकर फूट फूटकर रोने लगा, कालिन्दी भी रोती रही, जब दोनों का रोना बंद हुआ तो पवन बोला.....

    मेरी अभी इस दुनिया में साठ साल उम्र और रह गई है, इसलिए मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे कैद करके अपने पास रखों, मैं छोटा होकर एक काँच के गोले में कैद हो जाता हूँ और तुम मुझे अपने साथ किसी बक्से में बंद करके ले जाना, साठ साल बाद जब तुम्हारी तीसरी पीढ़ी का सबसे छोटा सदस्य मतलब कि तुम्हारे खानदान का सबसे छोटा पोता जब मेरे ऊपर पवित्र गंगाजल छिड़केगा, तब मैं मुक्त हो जाऊँगा, याद रहें जब थोड़ी रात हो और थोड़ी सुबह तब ही मेरे ऊपर गंगाजल छिड़का जाएं.....

     फिर पवन अपना रूप बदलकर एक छोटा नरपिशाच बन गया और स्वयं को काँच के गोले में कैद कर दिया, कालिन्दी उसे अपने दुपट्टे में समेटकर घर ले आई और बक्से में छुपाकर ताला लगा दिया, फिर जब कालिन्दी का ब्याह हो गया तो उसने ये बात अपने पति से बताई, उसके पति ने भी उसकी बात पर भरोसा कर लिया और अपने सबसे अच्छे मित्र से ये बात बताई, उसने उससे कहा कि वो उस नरपिशाच को अपने यहाँ छुपाकर नहीं रख सकता क्योंकि उसका घर बहुत छोटा है और उसका पूरा परिवार भी उसके साथ रहता है, कालिन्दी के पति का दोस्त अपने दोस्त की मदद के लिए तैयार हो गया और उस नरपिशाच को अपने साथ छुपाकर ले गया, कालिन्दी और उसके पति तो इस दुनिया से कब के चले गए और अपने दोस्त के पास उस पिशाच और उसके राज को छोड़ गए.....

    ठाकुर शिवप्रसाद ये कहते कहते चुप हो गए.....

तो क्या आपने ये कहानी मेरी दादी कालिन्दी की सुनाई है? मनोज ने पूछा।।

हाँ!मैं ही कालिन्दी के पति का दोस्त हूँ, ठाकुर साहब बोले।।

तो क्या इस पिशाच की मुक्ति मेरे हाथों लिखी है, मनोज ने पूछा।।

हाँ!तुम ही उनकी तीसरी पीढी़ की सबसे छोटी सन्तान हो, ठाकुर साहब बोलें,

ओह....इसलिए आपने मुझे यहाँ बुलाया है, मनोज ने पूछा।।

हाँ!तो अब देर किस बात की, ना सुबह है और ना अब दिन, इस काँच के गोले को खोलकर इस पर गंगाजल छिड़ककर इस रक्तचूषक को मुक्त करो, ठाकुर साहब ने अपने कुर्ते की जेब से गंगाजल की छोटी सी शीशी निकालते हुए कहा,

फिर मनोज ने गंगाजल की शीशी खोली और काँच के खोल को निकालकर उस पर छिड़क दी, गंगाजल पड़ते ही नरपिशाच राख में बदल गया और उसे मुक्ति मिल गई....

  तो ये थी नरपिशाच प्रेमकहानी....

ये कहानी अंधविश्वास को बढ़ावा देने के लिए नहीं लिखी गई है, केवल मनोरंजन के उद्देश्य से लिखी गई है और पूरी तरह से काल्पनिक है।।

समाप्त.....

सरोज वर्मा....



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