Saroj Verma

Romance

4  

Saroj Verma

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गोपाल की राधा

गोपाल की राधा

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"दादाजी कहाँ हैं? उनसे कहो कि दिवाली की पूजा का समय हो गया है,यहाँ सबके साथ बैठकर लक्ष्मी-गणेश पूजन में सम्मिलित हो जाएं" विजय भटनागर जी ने अपने बेटे शोभित से कहा...

"पापा! अभी मैं कुछ देर पहले उन्हें ही बुलाने गया था,लेकिन वें तो दादी जी के अस्थिकलश के पास बैठे,उनसे बाते कर रहे थे",शोभित ने अपने पिता विजय भटनागर से कहा....

तभी विजय भटनागर की पत्नी प्रतिमा उनसे बोलीं....

"क्या हो गया है बाबूजी को? आखिर वो कब तक माँ जी की अस्थियों का विसर्जन नहीं करेगें,माँ जी को स्वर्ग सिधारे लगभग बत्तीस साल से ऊपर हो गया है लेकिन उन्होंने अब तक उनकी अस्थियों का विसर्जन नहीं किया,सारे रिश्तेदार कह कहकर हार चुके हैं लेकिन वें किसी की बात सुनते ही नहीं"

"प्रतिमा! कम से कम तुम तो ऐसा मत बोलो",विजय भटनागर जी बोलें....

"क्यों ना बोलूँ जी! जब भी कोई त्योहार आता है तो वें उसे हम लोगों के साथ मनाने के वजाय माँ जी के अस्थिकलश के साथ अपने कमरें में बंद हो जाते हैं,मुझे ये सब देखकर बिलकुल अच्छा नहीं लगता", प्रतिमा बोली...

"मम्मी! रहने दीजिए ना! उन्हें दादी जी के साथ अकेला छोड़ दीजिए,हम सभी करते हैं ना दीवाली की पूजा", शोभित बोला...

"तू भी अपने दादा जी की ही तरफदारी करना",प्रतिमा शोभित से बोली....

"रहने दीजिए ना मम्मी जी! दादा जी का मन नहीं करता तो क्यों उनके साथ जबर्दस्ती करतीं हैं आप", शोभित की पत्नी अपराजिता बोली....

"तू कहती है तो ठीक है,चलो अब सभी पूजा की तैयारी शुरू कर दो",प्रतिमा अनमने मन से बोली.....

       और फिर सभी पूजा करने लगे, पूजा के बाद अपराजिता दादा जी के कमरे में पूजा का प्रसाद लेकर पहुँची और उसने दादाजी के पैर छूकर उन्हें प्रसाद दिया तब दादा जी बोले....

"जीती रहो बेटा!हमेशा यूँ ही खुश रहो",

  और फिर जब अपराजिता प्रसाद देकर उनके कमरें से आने लगी तो दादाजी दादी के अस्थिकलश की ओर इशारा करते हुए बोलें....

"अपनी दादी का आशीर्वाद भी तो लेकर जाओ",

     और फिर अपराजिता दादी के अस्थिकलश को भी अपने हाथ से स्पर्श करके उसे अपने माथे से लगाते हुए दादाजी से बोली....

"दादा जी! मुझे इस घर में आए छः महीने हो चुके हैं लेकिन मुझे ये किसी ने नहीं बताया कि दादी के स्वर्ग सिधारने के इतने साल बाद भी आपने उनकी अस्थियों का विसर्जन क्यों नहीं किया"?

"तो तुम इस बात का कारण जानना चाहती हो कि मैनें राधा की अस्थियों का विसर्जन क्यों नहीं किया"?, दादाजी बोलें...

तब अपराजिता बोली....

"अच्छा! तो दादी का नाम राधा था और आपका गोपाल,ये तो बड़ा ही अजीब इत्तेफाक हो गया"

"हाँ! और हम मिले भी इत्तेफाकन ही थे",गोपाल दास जी बोलें....

"वो भला कैसें"?,अपराजिता ने पूछा....

तब गोपाल दास जी बोलें.....

"वो अनाथ थी और दस की उम्र में वो अपनी मौसी के घर रहने चली आई थी,उसकी मौसी हमारे ही मुहल्ले में रहती थी,वो उस समय दस बरस की थी और मैं बारह बरस का",

"अब तो मैं आप दोनों की पूरी कहानी सुनकर ही यहाँ से जाऊँगीं",अपराजिता बोली...

"तो सुनो मैं तुम्हें आज पूरी कहानी सुनाता हूँ",

और ऐसा कहकर गोपालदास जी ने कहानी सुनानी शुरू की....

         तो जब राधा हमारे पड़ोस में रहने आई तो हम दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई,मैं कभी बगीचे से फूल चुराने में उसकी मदद करता तो कभी अमरुद चुराने में,मैं घर से चुराकर कुछ लाता तो फौरन उसके आँचल के किनारे पर बाँध देता और वो भी मेरे लिए अपने घर से कुछ ना कुछ चुराकर लाती और बँधी बधाई पोटली फौरन मेरे हाथ में थमा देती,जब कभी मैं बीमार पड़ता तो वो मेरे स्वस्थ होने के लिए निर्जला व्रत रखती,मेरे लिए रात रात भर भगवान से प्रार्थना करती, मैं स्कूल जाता तो वो मेरे घर वापस आने की बाट जोहती, ऐसा लगता था मानो मुझसे ही उसकी हर खुशी जुड़ गई थी......

       वो लड़की थी इसलिए उसके मन में मेरे लिए अथाह ममता थी और मैं लड़का था इसलिए उसके इस प्रेम से अन्जान फक्कड़ सा बना घूमता फिरता रहता था, मैं उसे प्रेम नहीं केवल दोस्ती ही समझता था,उसका प्रेम जितना गहरा था मेरे लिए ,उतना ही मैं लापरवाह था उसके लिए,बालमन का प्रेम ना जाने कब मुझे उसके मन का मीत बना बैठा और मैं नासमझ उसका प्रेम कभी समझ ना सका,अब वो पन्द्रह की थी और मैं सत्रह का हो चुका था.....

      एक बार उसने अपनी हथेली पर मेंहदी से मेरा नाम लिखा और जब उसकी मौसी को ये खबर लगी तो उसने अपनी कुलबोरन भान्जी को पीट पीट कर बेरचुन( सूखें बेरो को कूट कर बनाया गया व्यंजन) बना डाला,तीन दिनों तक उसे घर में बंद रखा गया और राधा का रो रोकर बुरा हाल हो गया था क्योंकि उसके मौसा जी अफरातफरी में उसके लिए लड़का ढूढ़ने लगे थे और एक दिन मौका पाकर वो मेरे पास रोते हुए आई और अपने मन की बात मुझसे कहकर बहुत रोई,इसके पहले तो मेरे मन में उसके प्रति कोई भाव नहीं थे लेकिन जब उसने मुझसे अपने प्रेम का इजहार किया तो मेरा दिल पिघल गया और मैने ये बात अपनी माँ से बता दी.....

        फिर मेरी माँ ने मेरे पिताजी से कहकर राधा के घर मेरा रिश्ता भेजा और फिर बहुत अड़चनों के दो साल बाद हमारी शादी हो पाई,क्योंकि मेरे दोनों बड़े भाई इस रिश्ते के लिए कतई तैयार नहीं थे,हमारी शादी हुई तो बड़ी भाभियों ने घर का बँटवारा कर दिया और मुझे ना अभी खेती करना था और ना ही परिवार चलाना,लेकिन फिर भी मैं और राधा खेतों में काम करके जैसे तैसे अपना घर चलाने लगें,कहते हैं कि मेहनत का फल मीठा होता है तो हमारी भी मेहनत रंग लाई और हमारी फसल अच्छी हुई,धीरे धीरे हमारी जिन्दगी की गाड़ी भी पटरी आ गई और हमारे जीवन में खुशियों का आगमन हुआ,अब हम खुशहाल थे और हमारा घर भी धन्य धान्य से भरा था....

      बहुत संघर्षों के बाद आखिरकार हमने जीवन जीना सीख लिया था,फिर हमारे घर विजय का जन्म हुआ और इसके तीन सालों बाद हमारी बेटी शर्मिला हमारी जिन्दगी में आई,जिन्दगी यूँ ही चल रही थे,बच्चे पढ़कर अपनी अपनी जगह लग चुके थे,बहू घर आ चुकी थी और बेटी भी ब्याह चुकी थी,तभी तेरी दादी को कैंसर हुआ,बहुत इलाज करवाने के बाद भी वो ठीक ना हो सकी और फिर भगवान ने उसे अपने पास बुला लिया और राधा को मरे हुए बत्तीस साल से ऊपर हो चुके हैं लेकिन मैनें उसकी अस्थियों का अभी तक विसर्जन नहीं किया....

      ये कहते कहते गोपालदास जी रुक गए तो अपराजिता ने पूछा....

"आपने उनकी अस्थियों का विसर्जन क्यों नहीं किया अब तक"?

तब गोपालदास जी बोले....

"मैं चाहता हूँ कि राधा और मेरी अस्थियों का विसर्जन साथ साथ हो,ताकि हम एकदूसरे से कभी अलग ना हों",

"ओह....तो ये बात है",अपराजिता बोली....

"मेरी ये इच्छा पूरी करोगी ना! गोपाल की राधा को उससे कभी अलग नहीं होने दोगी ना!",गोपालदास जी ने राधा से पूछा...

"हाँ! दादाजी! लेकिन आज त्योहार के दिन आप ऐसी मरने जैसी अशुभ बातें मत कीजिए",अपराजिता बोली....

      और फिर कुछ देर तक अपराजिता गोपालदास जी से बातें करती रही फिर अपनी सास प्रतिमा के बुलाने पर वो वहाँ से चली गई.....

      करीब दो साल के बाद गोपालदास जी की भी मृत्यु हो गई और अपराजिता ने दादाजी की बात याद रखी और अपने पति शोभित को दादाजी की इच्छा बताई और फिर शोभित ने अपने दादा और दादी की अस्थियों का विसर्जन साथ साथ किया जिससे गोपाल की राधा अपने गोपाल से कभी अलग ना हो सके....

समाप्त....



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