प्रेम
प्रेम
प्रेम एक ऐसा सुखद अहसास है जो सीधा अंतर्मन को स्पर्श करता है।एक ऐसी सुकोमल भावना है ,जो समूचे संसार में व्याप्त है ।दो आत्माओ के एकाकार होने की एक अनूठी कला है ,जो मुक्त आकाश की तरह विशाल है, सुखद है और हमें रोमांचित करने वाली अनुभूतियों का अनुभव कराती है।
प्रेम शब्द ही अपने आप मे भले ढाई अक्षर का है लेकिन समझने के लिये विराट है बिल्कुल सागर की तरह ,जिसे सुनने मात्र से हमे एक अजीब सा मीठापन महसूस होता है, जो ह्रदय की गहराइयों तक मिठास घोल देता है,एक ऐसा सौंदर्य प्राप्त होता है जो इंसान को नख से सिख तक सुंदर बना देता हैं और मन का इस प्रकार श्रंगार करता है कि उसे समूचा संसार ही श्रंगरित लगने लगता है ।प्रेम हमें बऐसी शीतलता प्रदान करता है जो मन मस्तिष्क को तरोताजा कर देती है।
अगर प्रेम की बात वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से करे तो ये प्रकृति का एक नैसर्गिक नियम है ,जिसे हम आकर्षण का नियम कहते है ।जिसे हम व्रह्माण्ड उत्पत्ति का कारक मानते है।जिसे हर व्यक्ति ने अपने ढंग से परिभाषित किया। किसी ने इसे ढाई अक्षर का बता कर अत्यंत सहज और सरल बताया तो किसी ने इसे आग के दरिया की उपाधि दी है लेकिन सूक्ष्म विश्लेषण किया जाये तो प्रेम के हर भाव को अहसास को प्रकार को पारिभाषित नही किया जा सकता है क्योंकि मेरे अनुसार प्रेम इंसान या जानवरों तक सीमित नही वरन कण कण में व्याप्त ऊर्जा है ,समूची सृष्टि है हमारी दृष्टि है ,एक अदृश्य आकर्षण है ,सब कुछ त्याग देना की इच्छा है,एक स्वतंत्रता का अहसास है ,एक ऐसा बंधन है जो बंधनों से मुक्त है ।अगर मीरा की दृष्टि से देखे या सूरदास की दृष्टि से देखे तो कृष्ण है ,साकार ब्रह्म है लेकिन वही कबीरदास की दृष्टि से देखे तो निराकार व्रह्म है अर्थात ईश्वर है,अलग अलग स्थान पर अलग अलग नामों के रूप में प्रकट होती एक ऊर्जा है,किसी असहाय को देखकर ह्रदय में उत्पन्न दया है ,त्याग की मृदुल भावना है, ह्रदयों का जुड़ाव है ,मस्तिष्क का ज्ञान है जो कि प्रबल आकर्षण के सिद्धांत पर कार्य करता है।
ये एक जीवन उत्पत्ति का साधन है या हम कह सकते है कि समूचे व्रह्माण्ड का रचक है।
लोगो की दृष्टि में यदि दो व्यक्तियो की आत्मा के बीच आकर्षण होता तो इसे वो प्रेम कहते है,अगर यही आकर्षण देश पर जान न्यौछावर करने के लिए होता है तो इसे वो जज्बा कहते है तथा जब ये तन मन और समर्पण के साथ किसी अलौकिक सत्ता के प्रति होता है तो इसे संसार मे भक्ति कहते है
लेकिन वही ये आकर्षण दो शरीरो के बीच होता है या किसी के जिश्म को पाने के लिये होता है तो इसे वासना कहते है और किसी व्यक्ति को वस्तु को सिर्फ अपना बनाने की इच्छा से होता है तो इसे मोह कहते है, प्रेम या भक्ति अनंत काल तक एक दूसरे में बाँधे रखने वाला आकर्षण होता है जबकि मोह और वासना क्षणभंगुर होती है ये स्थान समय के साथ बदलती रहती है, वो व्यक्ति या शरीर मिल जाये तो ये समाप्त हो जाती है लेकिन प्रेम भगवान कृष्ण की तरह अनंत होता है ,प्रभु श्री राम की तरह मर्यादित होता है ,हनुमान जी की तरह अमर होता है,और भगवान शिव जी की तरह आसुतोष होता है स्वतंत्र का भाव होता है
प्रेम वास्तव में वासना और मोह के मध्य का वो भाग होता है जो हमें दिखता तो सहज सरल है लेकिन समझने के लिये बहुत विशिष्ट होता है क्योंकि जरा भी इधर उधर होने पर ये अमर प्रेम अमर प्रेम न होकर कुछ के पल का आकर्षण मात्र रह जाता है। अर्थात मोह हो जाता है या वासना में परिवर्तित हो जाता है।
जब प्रेम अपने शुद्धतम रूप में होता है तो समस्त इच्छाये समाप्त होकर के एक स्थान पर केंद्रित हो जाती है,अपना पराये का भेद मिट जाता है,व्यक्ति स्वयं नही रहता अपितु अपने प्रेमी में परिवर्तित हो जाता है अर्थात दो जिश्म एक जान वाली पंक्ति सत्यर्थ हो जाती है।उनके बीच किसी भी प्रकार का प्रश्न नही रहता है ।अगर हम कहे कि एक व्यक्ति के प्रतिबिंब में दूसरे व्यक्ति को देखा जा सकता है तो ये उक्ति अतिश्योक्ति न होगी ।भगवान बुध्द की तरह ही प्रेम की भावना को आधुनिक कवि चंदन राय जी मे अपनी पंक्तियों के माध्यम से परिभाषित करने का प्रयास किया वो पंक्ति है-
चाहता हूँ कि तुम मुस्कुराती रहो
सिर्फ तुमको ही पाना नही चाहता
इसी तरह ---
जिस तरह H+O2 मिलकर जल का निर्माण करते है उसी तरह प्रेम भी जीवन का निर्माण करता है,ऊर्जा का निर्माण करता है लेकिन प्रेम और वासना से प्राप्त उर्जायें अलग अलग होती है जो ऊर्जा जल निर्माण की तरह सहज रूप में प्राप्त होती है वे सभी मानव सभ्यता के लिए जीव जंतुओं के लिये लाभकारी होती है लेकिन वही ये ऊर्जा उतेजित होकर प्राप्त होती है तो वो विनाश कारी होती है अगर उसे नियंत्रित करके उपयोग में लाया जाये तो वो उपयोग में आ सकती है लेकिन भयंकर विनाश भी कर सकती है जैसे जल वायू अन्न आदि के निर्माण में प्राप्त उर्जा लाभकारी होती है ।
अर्थात जिसमें जीवन की उत्पत्ति सहज रूप में प्रेम के कारण होती है वे लोग समाजसेवी बुध्दिमान और सरल स्वभाव के होता है लेकिन वही वासना से प्राप्त इंसान दुर्बुद्ध और दुराचारी होता है ।वासना उतेजक होती है जबकि प्रेम शीतल औऱ शालीन है।
प्रेम कोई युध्द प्रतियोगिता या व्यापार नही है क्योंकि ,इसमें न तो कोई हार होती है और न ही जीत । न ही कोई प्रथम होता है और न ही द्वतीय,न कोई लाभ होता है न कोई हानि इससे तो बस प्राप्त होता है मन को संतोष आत्मा को मोक्ष ,ह्रदय को शीतलता ,आँखों को एक अलौकिक दृष्टि ,और शरीर को एक अनोखा श्रंगार ।
अगर व्यक्ति अपने प्रेम को पा लेता है तो उसका जीवन सार्थक हो जाता है कृतार्थ हो जाता है धन्यता में परिणित हो जाता है अगर व्यक्ति प्रेम को प्राप्त नही कर पाता तो वो अमर हो जाता है राधा कृष्ण की तरह ,मीरा गोपाल की तरह ,हीर रांझा की तरह ,लैला मजनूं की तरह,रूमियों जूली की तरह।
अर्थात प्रेम व्यक्ति को व्यक्तित्व की ओर ले जाता है समूचे संसार को नई राह ही नही दिखता बल्कि उसे बनाये रखे हुये है क्योंकि अगर प्रेम न हो तो कोई भी माँ असहाय पीड़ा सह अपने पुत्र को जन्म नही देगी बल्कि उसे किसी तरह से पहले ही समाप्त करवा देगी।अगर प्रेम को जीवन दाता ईश्वर या समूचा व्रह्माण्ड कहे तो ये युक्ति अतिश्योक्ति न होगी
