प्रेम
प्रेम
प्रेम लिखने में, देखने में बहुत छोटा शब्द है,अगर इसे बोले और सुने तो चंद पल लगते है, लेकिन अगर इसकी व्याख्या करें तो शायद सात जन्म भी कम पड़ जायेंगे।
क्योंकि जिस तरह ईश्वर सर्वव्यापी होता है, निराकार होता है इतना विस्तृत होता कि कण कण में पाया जाता है, उसी तरह से प्रेम भी अपने आप में विस्तृत होता है असीमित होता है। जिसका न तो कोई आदि होता है और न ही अंत। बस ये तो होता है,और अपने आप मे पूर्ण होता है।
सजीव क्या निर्जीव क्या, ये तो दो परमाणु के बीच होता है, जो कि सम्पूर्ण श्रृष्टि के रचक होते है।
तभी तो आदिकवि वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक, कालिदास से लेकर रसखान तक और सूरदास से लेकर आज तक के करोड़ो कवियों ने इसे परिभाषित करना चाहा लेकिन वो इसका इंच मात्र भी परिभाषित न कर सके।
लेकिन उन्होंने ये ज़रूर स्प्ष्ट कर दिया कि, भले ही प्रेम निराकार है लेकिन उससे सुंदर कोई आकर नहीं है। भले ही प्रेम की व्याख्या करना कठिन है लेकिन इसे करने जितना कुछ भी सरल नहीं है। इसे किसी ने ढाई आखर का बताया है तो किसी ने सागर से गहरा आकाश से ऊँचा और ब्रम्हांड से विशाल लेकिन मैं कहूँ तो ये एक ऐसा मनोभाव है जो कि मन को जोड़ देता है, भावों को जोड़ देता है, असत्य को समाप्त कर देता है। हिंसा को अहिंसा में परिवर्तित कर देता है। और जीवन के लिये जो सबसे आवश्यक है शांति उसका प्रसार करता है।
अर्थात
दो आत्माओं के परस्पर मेल होने से जो एक क्रिया होती है, वो क्रिया प्रेम कहलाती है।
या इसे सामान्य बोल चाल में इस तरह स्पष्ट करने का प्रयास भी किया जा सकता है कि, प्रेम एक ऐसा अहसास होता जो कि हमारी आत्मा का संबंध सीधे परमात्मा से कराता है। ये दो रूह को एक बना देता है। और अर्धांगिनी की भाँति ही हमारे सुख दुःख को बांट लेता है। और सम्पूर्ण जीवन को हर्षोउल्लास से भर देता है। तथा मन को ईश्वरीय आनंद की अनुभूति कराता है।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिये प्रेम (आकर्षण) उस प्रकार ज़रूर है जिस प्रकार जीवन के लिये अनिल, प्रकाश के लिये ऊर्जा, निर्माण के लिए पंचतत्व, मछली के लिये जल और परमात्मा के लिये आत्मा।
वैसे तो प्रेम एक ही होता है किंतु इसके रूप अनेक होते है,अगर हम प्रारंभ से बात करें तो माँ के रूप में, जो कि हमें गर्भ से लेकर अपने जीवनोपरांत तक अनवरत मिलता रहता है, और पिता के रूप में सुरक्षा करता है, भाई बहन के रूप में कभी मिठास तो कभी नोकझोक का रूप ले लेता है।और भाभी, माई बनकर शरारत का रूप ले लेता है। कभी गुरू शिष्य तो कभी मित्रों के रूप में दृष्टि गोचर होता है। हर त्यौहार, हर उत्सव में, ये अलग अलग रूप में आकर हमें आनंदित करता है। ये होली पर रंग हो जाता है तो वही दीवाली पर दीप। रक्षाबन्धन पर राखी दसहरा में उत्साह हो जाता है। फागुन में होली तो संक्रांति में लोहणी हो जाता है। रमज़ान में सेमाई तो ईद में आकर हमारे गले लग जाता है। वही क्रिसमस में तोहफ़ा बनकर हमे खुशी प्रदान करता है। कभी चकवा चकवी बनकर सुबह किलोल करता है तो कभी चकोर की तरह चाँद का इंतजार,और शिखी के अंतर से निकलती करुणा। कभी रति का काम के लिये क्रंदन तो कभी कालिदास के मेघदूत की तरह शकुंतला की तड़प, उर्मिला का त्याग तो लक्ष्मण का अपने भाई के प्रति समर्पण तो वही हनुमान की सेवा,और राधा और कृष्ण का बलिदान तो मीरा का हलाहल को मात देता अनोखा विश्वास बन जाता है। अर्थात हर जगह हर स्थान पर ये प्रथक -प्रथक रूप में दृष्टि गोचर होता है।
हालांकि प्रेम भी ईश्वर के मांनिद अजर अमर है लेकिन वर्तमान समय में मानवता की शिक्षा -दीक्षा देने वाला प्रेम कुछ क्षीण हो गया है अर्थात मानवों के बीच ये लुप्त होता जा रहा है इसलिये मानवता भी लुप्त होने की कगार पर जाकर टिकी है।क्योंकि आज लोग प्रेम की आड़ में झूठ -फ़रेब ,धोखा- धरी,विश्वासघात का व्यापार चला रहे है।वे प्रेम की आड़ में मौत का व्यापार भी करने में नही हिचकिचा रहे है।इसलिए प्रेम को लोग अब एक छलावा समझने लगे है।
लेकिन फिर भी करोड़ लोग ऐसे है जो प्रेम के अनुयायी है।और सदैव प्रेम के मार्ग पर चलने की बात करते है।क्योंकि प्रेम तो शाश्वत है।
हर जीव में सन्निहित है।
हर आत्मा में परमात्मा के रूप में विराजमान है। बस जरूरत है तो ऐसे पहचानने की। ये ढाई आखर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने आप मे समाहित किये हुये है। अंततः प्रत्येक व्यक्ति को अपने अंदर विराजमान अदम्य शक्ति ईश्वर तुल्य प्रेम को जानने की जरूरत है, और परस्पर इसे बटाते हुये सम्पूर्ण श्रष्टि को एक नई राह पर ले जाकर अपने आप को पूर्ण बनाना है।