Diwa Shanker Saraswat

Romance Others

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Diwa Shanker Saraswat

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प्रेम का मूल्य

प्रेम का मूल्य

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"शाम ढलने लगी थी।सूर्य देव अपनी रश्मियाँ समेटकर सोने की तैयारी कर चुके थे।पाकुड़, एक बहुत ही छोटा सा गाँव जिसके निवासी दीनू, बसिया,हरिया अपने पशुओं को चराकर वापस घर लौट रहे थे।बारह-पंद्रह साल के बच्चे.., पढ़ाई से कोई वास्ता नहीं।बस खाना ,खेत और काम।सब अपनी धुन में आपस मे ग्रामीण अंदाज में हंसी मजक करते चले जा रहे थे।आगे आगे पशु और पीछे सारे बाल गोपाल।चलते चलते अंधेरा घिर आया था।जिससे उबड़ खाबड़ रास्तो पर चलना मुश्किल हो रहा था, सबकुछ धूमिल सा हो चुका था।गहराती सांझ अपने साथ सन्नाटे को लेकर आ रही थी।जिसे उनकी बातें ही तोड़ रही थीं।बातें करते करते हरिया अचानक से चीखने लगा..

आ.....आ...!"


  हरिया को चीखता देख बाकी बच्चे रुक गये। डर की बजह से हरिया के मुंह से आवाज भी नहीं निकल रही थी। जानवर आगे बढ चुके थे। 


 वैसे दीनू और बसिया समझ गये कि कुछ तो परेशानी की बात है। गांवों में वैसे भी भूत प्रेतों की कहानियाॅ ज्यादा सुनी जाती थीं। अफवाह थी कि रात के समय गांव के बाहर पांच पीपल के पेड़ों के नीचे भूतों की बारात निकलती है। उस समय जो भी वहाॅ से गुजरता है, वह कभी वापस नहीं आता है। 


 पर वह तो रात की बात है। अभी रात तो नहीं आयी। भले ही अंधेरा छाने लगा हो। फिर पीपल के पेड़ भी अभी दूर थे। 


 ऐसा कोई जरूरी नहीं कि भूत और चुड़ैल रात होने का इंतजार देखें। ऐसी अनेकों कहानियाँ दोनों के जेहन में आ गयीं। डर के कारण हरिया के दांत कटकटा रहे थे। पर सत्य को देखे और जाने बिना भी दीनू और बसिया के दांतों में कंपन होने लगा।


 वैसे अप्रत्याशित स्थिति में जल्दी भाग लेना मुसीबत से बचने का उपाय होता है। पर दौड़ने के लिये भी साहस की आवश्यकता होती है। दीनू और बसिया की हिम्मत तो हरिया को देखकर ही जबाब दे गयी।

  

 जल्द ही एक और चीख की आवाज आयी। अरे यह तो संतो काकी की भतीजी लक्ष्मी की चीख है। वास्तव में संकट भूत और प्रेत के संकट से भी गहरा था। 


 पाकुड़ एक पहाड़ की तलहटी में बसा छोटा सा गांव कभी जंगल काट कर बसाया गया था। आज भी घने जंगल में अपना इलाका बनाने में नाकामयाब रहे जंगली जानवर गांव के पास तक आ जाते हैं। वैसे भेड़िया या लक्कड़बघ्घा का गांव के पास दिखना बहुत आम बात थी। ये बच्चे भी उनसे नहीं डरते थे। 


  झाड़ी के पास का दृश्य स्पष्ट था। लक्ष्मी किसी बड़े जानबर के कब्जे में थी। 


  दीनू नहीं जानता था कि वह बड़ा सा जानवर कौन है। वैसे उसे बचकर भाग लेना चाहिये था। पर हुआ कुछ अलग। शायद मन में लक्ष्मी के लिये उभरते आये जज्बात यथार्थ का रूप ले चुके थे। जिन बातों को पंद्रह साल का युवक अपनी हम उम्र कन्या से बोल नहीं पाया, उन्हें अपने आचरणों से बोलने लगा। लक्ष्मी तो छूट गयी पर अब दीनू संकट में था। पर दीनू के चेहरे पर तकलीफ के कोई निशान न थे। 


  शायद अभी दीनू के भाग्य में जीवन था। गांव बालों की आवाज सुन तैंदुआ भाग गया। वह दूसरी बात है कि अब दीनू को अनेकों दिन चारपाई पर गुजारने पड़े। 



 लक्ष्मी की वापसी के दिन नजदीक आ रहे थे। दीनू अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था। लगता है कि लक्ष्मी के मन पर भी कुछ असर हो रहा है। फिर भी दोनों शांत थे। कुछ गांव का माहौल और कुछ दोनों के तौर तरीकों में अंतर स्पष्ट था। कुछ दिन अपनी बूआ के घर घूम लेना अलग बात है। शहर का माहौल अलग ही होता है। जहाँ पला बढा कभी भी गांव में जीवन बिताने की कल्पना भी नहीं कर सकता है। 


 निश्चित ही १५ वर्ष की आयु वह आयु है जबकि एक बालक अपने बचपन से आगे सोचने लगता है। बचपन जैसी निश्छलता अब दूरी बनाने लगती है। वायदे भी सोच विचार कर किये जाते हैं। 


  लक्ष्मी जहाँ एक होनहार छात्रा थी वहीं दीनू का पढाई लिखाई से मामूली सा संबंध था। ऐसी बेसिरपैर की प्रेम कहानियाँ केवल फिल्मों का विषय हो सकती हैं। जिंदगी के फैसले ज्यादातर सोच समझ कर ही लेते हैं। 


 अब यह प्रेम था या आकर्षण। दोनों के मन में कुछ तो था। जो उन्होंने कभी भी एक दूसरे से नहीं कहा। शायद परिणाम का पता दोनों को था। 


कई साल गुजर गये। बसिया और हरिया दोनों का विवाह हो चुका था। पर दीनू ने अपनी अलग ही राह तलाश ली। दिन हो या रात, वह दूसरों की सेवा में लगा रहता। किसी पड़ोसी गांव में एक बैद्य जी से कुछ जड़ी बूटियों की जानकारी कर ली। विद्यालय शिक्षा में हीन दीनू अनुभव से एक कुशल आयुर्वेदिक चिकित्सक बन चुका था। ऐसा चिकित्सक, जिसके ज्ञान पर गांव बाले विश्वास करते थे। निस्वार्थ सेवा का प्रभाव था कि उसकी दवाओं से सभी मरीज सही होते रहे।


  लक्ष्मी एक प्रतिष्ठित कंपनी में नियुक्त थी। शहर और गांव में विवाह की आयु में कुछ अंतर तो होता है। लक्ष्मी को आज दीनू के विषय में कुछ याद न था। अथवा वह उसे भुला देने की कोशिश कर रही थी। पहला प्रेम कब भूलता है।


  यदि विवाह बराबरी में करना चाहिये तो राजीव में किसी भी तरह की कोई कमी न थी। पढाई में अब्बल, एक प्रतिष्ठित परिवार का युवक उसी कंपनी में लक्ष्मी के साथ कार्यरत था। लक्ष्मी के मन से पुरानी बातें कुछ धुंधली हो चुकी थीं। उसने अपना जीवन साथी चुन लिया था। परिवार में किसी को भी इसमें आपत्ति न थी।


  आखिर वह दिन आ गया जबकि लक्ष्मी विधिवत विवाह कर राजीव की अर्धांगिनी बन गयी। उसे उम्मीद भी न थी कि दीनू आज भी उसकी राह देख रहा हो। उम्मीद यह भी नहीं थी कि वह कभी भविष्य में दीनू से मिल भी पायेगी।


 उम्मीद के प्रतिकूल वह दिन आ गया। दुर्घटनाग्रस्त राजीव को अनेकों अस्पतालों में लेकर लक्ष्मी भागती रही। सारी जमा पूंजी भी खर्च हो गयी। पर मन में उम्मीद न छूटी। जिसने जहाँ भी बताया, वह राजीव को वहां दिखाने ले गयी। लक्ष्मी एक सच्ची अर्धांगिनी सिद्ध हो रही थी।


  यदि आरंभ में कोई कहे कि किसी गाँव में कोई आयुर्वेद के तरीके से असाध्य को भी साध्य कर देता है तो कोई भी विश्वास नहीं करता है। पर बड़े बड़े अस्पतालों से निराश वह सब कुछ करता है जिनका वह उपहास करता रहा है। भगवान के दर पर आराधना, पीरों पर चादर चढाने के साथ साथ इन देशी डाक्टरों को आजमाने में भला क्या दिक्कत है। फिर बूआ इतना तारीफ कर रही हैं। कुछ नहीं तो बूआ से मिलना ही हो जायेगा। दुख बांटने से कम होता है।


 दीनू के उपचार से राजीव में सुधार आना शुरू हुआ। हालांकि महीनों लग गये। राजीव धीरे धीरे खुद आत्मनिर्भर बनने लगा। यद्यपि इलाज तो वर्षों चलेगा। फिर भी इतना निश्चित है कि अब समस्या नहीं है। राजीव पूरी तरह सही हो जायेगा।


 " दीनू। आपको क्या मूल्य दूं।"


 " मूल्य। क्या हर बात का मूल्य दे पाना संभव है। कुछ बातें अमूल्य होती हैं। उनका मूल्य चुकाना भला कैसे संभव है।"


 दीनू की बात सत्य थी। भला निस्वार्थ प्रेम का क्या मूल्य चुकाया जा सकता है। पूरे विश्व की दौलत भी प्रेम का मूल्य नहीं चुका सकती है।


  पर क्या लक्ष्मी वह मूल्य अदा नहीं कर सकती। शायद कभी उसके मन में भी वही भाव उठे थे जो दीनू के मन में उठे थे।प्रेम का एक अंश भी कुछ भी बड़ा बदलाव कर सकता है।


 " दीनू। जिंदगी आगे बढ जाये, उस समय भी किसी की प्रतीक्षा रहती है। जरूरी नहीं कि हमें क्या चाहिये। जरूरी यह भी है कि हम क्या कर सकते हैं। किसी के मन में प्रेम का सागर है पर वह उसका प्रयोग नहीं कर सकता। पर कोई है जो प्रेम के लिये तो छोड़िये, सम्मान के लिये भी तरस रहा हो। क्या किसी की चाह में जीवन रोक देना ही प्रेम है। प्रेम तो वह सरिता है जो लगातार प्रवाहित होती है। यदि प्रवाह रुक जाये तो कैसा प्रेम। "


 दीनू को उसका मूल्य मिल गया। अब वह धन्नो ताई के घर जा रहा है। जिनकी पुत्रवधू विवाह के दूसरे दिन ही विधवा हो गयी। आज भी वह विभिन्न तानों को झेल रही है। चाहे कोई भी उसका विरोध करे। अब दीनू उसको सम्मान दिलाएगा। उसे अपनी अर्धांगिनी बनायेगा। खुद के मन में समाये प्रेम के धन धान्य को उसी पर लुटायेगा। खुद उसका जीवन बनेगा।


 सत्य है कि प्रेम रुक नहीं सकता है। बहती हुई दरिया हमेशा अपना मार्ग बना लेती है।




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