Savita Negi

Romance Others

4.4  

Savita Negi

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प्रेम बिना समर्पण कैसा?

प्रेम बिना समर्पण कैसा?

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बहुत गुस्सा थी अम्मा उस दिन। अपनी तीखी ज़ुबान से नुकीले शब्द रूपी बाणों का प्रहार कर रही थी। उनके सामने अच्छे खासों का पसीना छूट जाता था।

 अम्मा छोटी उम्र में विधवा हो गई थी,चार बच्चों की ज़िम्मेदारी उन पर आन पड़ी। अपने व्यवहार को सख्त कर ही,परिवार और समाज से लड़,हमें पालने में सक्षम हो सकी। तीनों बहनों का विवाह हो चुका था, अब मेरी बारी थी।

उस दिन उनके गुस्से का कारण मैं ही था। उन्होंने मेरे लिए एक लड़की ढूंढी परंतु मैंने विवाह के लिए फिर मना कर दिया, ये तीसरी बार था।

  अम्मा से कड़वे वचन सुन मैं अपने "कोप भवन" में आ गया। अपने कमरे को मैं कोप भवन ही बोलता था क्योंकि इसी कमरे में मैं बत्ती बुझाकर देवदास की तरह पूरी- पूरी रात प्रेम में विफल रहने का मातम मनाता था।

चार साल हो गए स्नेहलता से दूर हुए, न दिल से दूर हुई न दिमाग से। इसी कमरे में उसके लिए हजारों ख्वाब देखे थे मैंने। पांच साल का प्रेम था हमारा। हमारे प्रेम की गवाह थी वो झील जिसके किनारे ये प्रेम परवान चढ़ा था। उसी के किनारे हम दोनों ने जीने मरने की कसमें खाई थी। घंटों निकल जाते थे बस यूं ही बांहों में बाहें डालकर एक दूसरे को निहारने में। उसकी कजरारी आंखों में मेरी दुनिया बसती थी। मुझसे कहती थी वो मेरे बिना जी न पाएगी। अपने ख्वाबों से मुझे रूबरू कराती थी, बहुत ऊचें ख्वाब थे उसके। खुले आसमान में उड़ना चाहती थी वो और मैं ! मैं बस उसको पाना चाहता था।

     जल्दी ही एक विद्यालय में अध्यापक की नौकरी मिल गई। जिसकी  छ: महीने की ट्रेनिंग के लिए मुझे दूसरे शहर जाना था। "क्या! छ: महीने तुमसे दूर कैसे रहूँगी?" स्नेहलता का उदास चेहरा अपने हाथों में थाम मैंने कहा .." सिर्फ छ: महीने उसके बाद विवाह करके जिंदगी भर साथ रहना है।" मेरी बात सुनकर उसने अपना चेहरा शरमाते हुये मेरी हथेलियों में छुपा लिया।

     मैं चला गया। अब उससे कभी कभी फ़ोन पर बात होती थी। वो भी तब जब मैं पी.सी.ओ में उसे समय दे कर बुलाता था, मोबाइल फ़ोन नए आये थे। हर किसी के पास नहीं थे। धीरे -धीरे उसने पी.सी.ओ में आना कम कर दिया। ज़्यादा बात नहीं हो पाती थी उससे।

    छ: महीने बाद मैं घर लौट आया। बहुत बेताब था अपने प्यार से मिलने के लिए। अपनी तनख्वाह से उसके लिए एक फ़ोन लाया था ताकि हम हर वक़्त बात कर सकें।

  झील के किनारे बड़ी बेसब्री से उसका इंतजार करने लगा। वो तो नहीं आई उसकी सहेली आई थी।

"ये पत्र स्नेहलता ने तुम्हारे लिए दिया है वो नहीं आ सकती।" मेरे हाथ में लिफ़ाफ़ा थमाकर वो चली गई। मैंने जल्दी से पत्र पढ़ना शुरू किया।

       प्रिय गिरीश,

                    मुझे माफ़ कर देना अब मैं तुमसे कभी नहीं मिल सकूंगी। शायद हमारे भाग्य में बिछड़ना ही लिखा था। मैं, माँ बाऊजी की ज़िद के आगे हार गई। उन्होंने मेरा रिश्ता कहीं और तय कर दिया है, मैं बहुत मजबूर थी। मुझे भूल जाना और तुम किसी अच्छी लड़की से विवाह कर लेना। जब तक तुम्हें ये पत्र मिलेगा मैं तुम्हारी जिंदगी से ही नहीं तुम्हारे शहर से भी दूर जा चुकी होऊँगी।

   मेरे कदमों तले ज़मीन खिसक गई...ये क्या हुआ? उसने पहले कुछ नहीं बताया। अचानक! कम से कम एक बार मिल तो लेती। परिवार को मनाने का मौका भी नहीं दिया, मेरा इंतजार भी नहीं किया। मैं घंटो झील के किनारे बैठा अपने भाग्य पर आँसू बहाता रहा और पिछले चार वर्षों से उसकी याद में आँसू ही बहा रहा हूँ। इन चार वर्षों में उसकी कोई खबर नहीं लगी क्योंकि उसका परिवार भी दूसरे शहर जा बसा।

  वो मुझे छोड़ कर चली जरूर गई परंतु मैं अपने दिल में उसकी जगह किसी और को नहीं दे सका।

   एक दिन विद्यालय से आकर देखा पूरी बैठक सजी थी। अम्मा, ताई, बड़े ताऊ, चाची सब विराजमान थे। मेरे आते ही मुझे घेर लिया "काहे सता रहे हो बुढ़ापे में अपनी अम्मा को, ब्याह काहे नहीं कर रहे हो?"

" का चाहते हो?  इकलौते लड़का हो अपनी अम्मा के, ऐसे नहीं चलेगा।"

इतने में शातिर अम्मा ने ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दिया। "हाय हमारी किस्मत ! पोते पोतियों का मुंह देखे बिना ही मर जायेंगे हम।"  इस बार अम्मा ने मेरे विवाह का पूरा चक्रव्यूह रचा था। जिससे मेरा बाहर निकलना नामुमकिन था। सबकी जोर जबरदस्ती ने दिमाग में इतने हथौड़े मारे की मैं विवाह के लिए राज़ी हो गया। ऐसा लगा मानो मैं अपने प्रेम के साथ धोखा कर रहा हूँ लेकिन अब मना नहीं कर सकता था।

   "उर्मिला!! प्यार से उर्मी बोलते हैं उसको।" अम्मा ने मेरे लिए ढूंढी हुई लड़की का नाम बताया। मुझे क्या! कुछ भी बोलते हो, मैंने मुँह बिचकाते हुए मन में कहा। अम्मा ही देख आयी थी लड़की और बात भी पक्की कर आई थी।

  कुछ दिनों बाद मैं बेमन से विवाह के बंधन में बंध गया। अम्मा की बहू का गृह प्रवेश हो गया, अम्मा तो जैसे सातवें आसमान में नाच रही थी।

  एक चिंता सताने लगी कि अब अम्मा की बहू मेरे कोप भवन में रहेगी, नहीं ....नहीं..... न ... ये कमरा तो सिर्फ स्नेहलता की यादों का है। इस कमरे में मैंने कितनी यादें साझा की है... वो आ कर रहेगी तो ?

   एक दो दिन तो बच गया लेकिन कितने दिन तक?" धीरे-धीरे सारे रिश्तेदार चले गए। अब घर में सिर्फ हम तीन प्राणी थे। मैं जल्दी से खाना खा कर ऊपर अपने कमरे में आ गया। थोड़ी देर बाद ही अम्मा अपनी बहू को गज भर घूंघट में अपने साथ मेरे कमरे में ले आयी।.." ये तेरा कमरा है बहु और ये मेरा लल्ला।" साथ ही मुझे हिदायत देते हुए बोली "बहु का ध्यान रखियो नई जगह है इसके लिए।" हंसते हुए अम्मा चली गई।

 मेरी तो सांस अटकी थी। क्या बोलूँ उसको क्या नहीं?   नई दुल्हन से ज्यादा घबराहट में मैं था क्योंकि ये रिश्ता मेरी मर्जी से नहीं हुआ था। ये भी समझ रहा था कि इसमें उर्मिला का क्या दोष?

घबराहट में मैंने उसको आराम करने को कहा ...पलंग से चादर खींचकर खुद भी सोफे पर पसर गया।

     वो भी बिना कुछ कहे चुप चाप सो गई। मेरी आंखों से नींद गायब थी। ऊपर से अम्मा की बहू की चूड़ियों की खनखनाहट और पायल की झुनझुनी आवाज़ ने मेरे कोप भवन का वातावरण संगीतमय कर दिया था। जिससे मैं अपने प्यार में ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था।

    सुबह तैयार हो कर विद्यालय जाने लगा तो उसने नाश्ता परोस दिया। उसके चेहरे को देखने की हिम्मत न थी। उसके मेहंदी ओर चूड़ियों से भरे हाथ न चाहते हुए भी दिख जाते थे। किसी अपराधी की तरह महसूस कर रहा था। ऐसे ही कुछ दिन बीत गए। मुझे डर भी लगता कहीं मेरे बर्ताव के बारे में अम्मा को न बोल दे। अम्मा के गुस्से की तलवार हमेशा मेरे सर पर टंगी रहती थी।

    कुछ दिन और बीत गए। अपनी घुटन कम करने के लिए मैंने एक दिन उसे अपने प्यार और शादी तक कि सारी बातें बता दी। मैंने उसको बोला "अब फैसला तुम्हारे हाथों में है।" साथ ही बहुत घबराया हुआ भी था कि न जाने ये उर्मिला अब कितना हंगामा करेगी?  आखिरकार मैंने उसकी जिंदगी बर्बाद की थी।

  आज इतने दिनों बाद उसने अपना घूंघट हटाया ओर मेरी तरफ देखा । उसकी बड़ी -बड़ कलसाई आंखें, गोरा मुखड़ा,सुर्ख गुलाबी ओंठ,कानों के झुमके गालों को चूमते हुए, माथे पे बड़ी सी लाल बिंदी, नागिन की तरह बलखाती कमर तक लंबी चोटी .....किसी कवि की कल्पना से कम न थी। अम्मा सच में अपने लल्ला के लिए खोज कर दुल्हन लाई थी लेकिन मेरा दिल!! उसमे तो कोई और था न।

 उर्मिला धीरे से मेरी तरफ बड़ी " अच्छा तो प्यार करते थे किसी से इसीलिए मुझसे दूर दूर रहते हो। लेकिन..वो.. मैं ये घर और तुमको छोड़ कर नहीं जा सकती, न ही तुमसे झगड़ा करूँगी। माँ -बाऊजी नहीं हैं, चाची ने विवाह कराया है और उनका व्यवहार अच्छा नहीं है। मैं आपका, अपने प्यार से वापस आने तक का इंतजार करूँगी। तब तक एक छत के नीचे दो दोस्त की तरह तो रह सकते हैं।"

   मुझसे पांच साल छोटी होने के बाद भी उसमें इतनी परिपक्वता थी। उसने अम्मा को तनिक भी भनक न लगने दी हमारे रिश्ते की।

 दिन बीतते गए। पूरे घर में ऊपर नीचे आते -जाते उसकी चूड़ियों की खन खन और पायल की छन्न छन्न की आवाज़ से घर में सकारात्मकता बनी रहती।

    अब वो खुल कर घर में चहकती थी। दिन बीतने के साथ उसकी झेंप भी खत्म होने लगी। आस पास,रिश्तेदारी सभी के दिल जीत लिए थे उसने। यहाँ तक कि अम्मा भी उसके कब्जे में थीं पूरी तरह से लेकिन हम अभी भी एक ही छत के नीचे दो अजनबियों की तरह ही रहते थे।

एक दिन विद्यालय से वापस आया तो देखा पूरे कमरे में नया रंग पोथ दिया गया था। नया पलँग सजा था, पर्दे भी नए थे। मेरे कोप भवन को ताजमहल बना डाला था उसने। अब उर्मिला मुझसे कभी कभी मेरी स्नेहलता के बारे में बात करती थी और मैं बहुत गर्व महसूस करता था। अपने को अव्वल दर्जे का प्रेमी साबित करता हुआ उसे सब कुछ बताता था।

   एक दिन उसने मेरी आलमारी में अपना सामान सजा डाला और स्नेहलता के प्यार की निशानी कार्ड्स, पत्र, डायरी जो इस कोप भवन में मेरे दुख के साथी थे उनको बाहर कर दिया। मेरा गुस्सा देख, उसने मेरी और मेरे प्यार का बड़ी ही शालीनता से अपमान किया " उसके प्यार भरे शब्दों का दम निकाल दिया तुमने इतने सालों से इनको आलमारी में बन्द करके। तुम्हारी प्रेमिका को खुले में उडना पसंद था , इनको भी आज़ाद कर दो। वो तो शायद किसी मोटी कमाई वाले शख्स से विवाह करके अपनी ऊंची- ऊंची ख्वाहिशों को पूरा कर कहीं उड़ रही होगी और अपने को देखो !! पर कटा प्रेमी .... जो उसकी लिखी झूठी बातों में ही कैद है।.....हा हा हा हा।"  

उसकी तंज हंसी मेरे कलेजे को काट कर बाहर निकल रही थी। पहली बार मुझे स्नेहलता पर गुस्सा आ रहा था कि हाँ सच में सब झूठ लिखा था उसने। मैने गुस्से में सब उठाया और छत में ले जाकर अपने प्यार की एक खेप की तिलांजलि दे डाली।

 लेकिन पता नहीं क्यों? मन हल्का सा लग रहा था।

कुछ दिन बाद अपनी चोटी को हिलाते हुए मुझे तैयार होते हुए देख, उर्मिला ने पूछा "तुम अक्सर ये नीले रंग की ही कमीज पहनते हो, जरूर तुम्हारी प्रेमिका ने कभी दिया होगा? ....तोहफा......है न" 

 "तो!! मैंने बोला हाँ उसी ने दी थी .. कोई तकलीफ ?"

"नहीं, बहुत दया आती है तुम पर। तुमने पिछले चार सालों से उसके तोहफे को प्रेम समझकर अपने बदन पर चिपकाए, इस कमीज़ को बुरी तरह से घिस डाला, देखो !!... धागे निकल रहे है।" एक धागा उसने मेरे हाथ में रख कर बोला। 

" लेकिन वो अपने प्रेमी के दीवाने पन से अनजान किसी और को प्यार से कमीज पहनाती होगी।"   

मुझे गुस्सा दिला कर फिर से मेरा मजाक उड़ा कर अपनी लंबी चोटी को बलखाती हुई उर्मिला जल्दी से नीचे भाग गई। मैंने गुस्से में कमीज़ उतारी, जमीन में फेंक दी। बाद में उसे उठाकर नुक्कड़ में बैठे एक भिखारी को दे दी।

    उस दिन देर रात से घर आया,देखा तो वो चतुर चपला नार बेफिक्री से पूरी पलँग पर पसर कर गहरी नींद में सो रही थी। कितनी मासूम लग रही थी। उस दिन सोफे में सोने की हिम्मत नहीं थी, मेरी कमर अकड़ गई थी। इतने दिनों से जो सो रहा था। इसलिए होले से पलँग के बिल्कुल कोने में सोने की कोशिश कर ही रहा था कि उस चतुर नार की नींद खुल गई।

" ये क्या! भूल गए? मैं तुम्हारी प्रेमिका नहीं हूं, जाओ यहां से।"

"नहीं .... नहीं.... तुम कुछ गलत समझ रही हो। मैं तो बस ..वो.. कमर दुख रही थी .. बस इसलिए।"  अपमानित महसूस कर वापस सोफे पर आ गया। गलती मेरी थी,अपने प्रेम का शोक मैं ही मना रहा था। भुगतना भी मुझे ही पड़ता।

  कुछ दिनों से महसूस कर रहा था कि मैं अब स्नेहलता को कम याद करने लगा था। उसके बारे में कम सोचता था क्योंकि मेरी नजरें अब उस चतुर नार की अठखेलियों की आदि होती जा रही थीं। अब मुझे वो अपने आसपास मंडराती अच्छी लगती थी।

    सावन का महीना बारिश, मिट्टी की सौंधी -सौंधी खुशबू चारों ओर हरियाली। पहले ये ही मौसम मुझे सबसे ज्यादा दुःखी करता था परंतु उस बार फिर से इतने सालों बाद दिल में कुछ तरंगे उठ रही थी। अचानक वो चतुर नार बाहर की तरफ भागी, मेरी नज़रें भी उसके पीछे भागी।

सूखे कपड़ों को जल्दी से निकालकर उसने मेरी तरफ बढ़ाये अंदर रखने के लिए क्योंकि बारिश शुरू हो गई थी और वो खुद बारिश में भीगने लगी। कभी हथेलियों में पानी की बूंदों को लेती, उड़ाती उनसे खेलती। मद मस्त बाला की तरह अठखेलियाँ करती।

मैं अपनी उत्सुकता को रोक न पाया। उस चंचल चपला नार को चुपके से देखने लग गया। उसकी खूबसूरती को उस दिन महसूस किया, बारिश में भीग कर और भी निखर रही थी। साड़ी भीग कर उसके बदन से चिपक गई थी,चेहरे पर गीले बालों की लटाओं को बार- बार झटका रही थी। उसको देख मेरे अंदर का पुरुष कब तक शांत रहता? मेरा संयम डोल गया था, मेरे मन मस्तिष्क ने सोचना छोड़ दिया, मेरे कदम अनायास ही उसकी तरफ बढ़ने लगे। मुझे अपने इतने करीब देख वो थोड़ा सकुचाई, मैंने उसे जैसे ही अपनी बांहों में भरना चाहा उस चतुर नार ने जोर का धक्का देकर मुझे पीछे हटाते हुए गुस्से में घूरा " क्यों ? मुझे क्यों छुआ तुमने ? तुम मुझसे प्रेम नहीं करते, न ही मैं तुम्हारे दिल में हूँ, जो इतने सालों से तुम्हारे दिल में है उसको बुलाओ, अपनी प्रेमिका स्नेहलता !! बिना प्रेम समर्पण कैसा ?"

      बहुत शर्मिंदा था अपनी हरकत पर। इतना अपमान कभी नही सहा। अपनी ही नजरों में गिर गया था मैं। एक भूखा अय्याश आदमी बन गया था थोड़ी देर पहले। उर्मिला से नज़रें चुरा के मैं सीधा बारिश में ही झील किनारे चला गया। मुझे लगा उसने मेरा अपमान किया लेकिन सच ये था की मैने उसका अपमान किया था। अगर मैं अपनी पत्नी को ये कहूँगा कि मैं किसी और से प्यार करता हूँ और उसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सकता तो अपमान तो उसका हुआ न!!

बारिश में मेरी आँखों में पड़ी स्नेहलता के प्यार की धूल भी धुल चुकी थी। समझ गया था मैं, जो मजबूरी का नाम देकर आपके प्यार को बीच रास्ते छोड़ दे वो कभी प्यार हो ही नहीं सकता।

स्नेहलता की बची खुची यादों को वहीं झील में बहा कर भीग भाग के वापस घर आ गया। दरवाज़े में उर्मिला तौलिया लिए खड़ी थी। मैं कपड़े बदल कर आया तो सामने चतुर नार हाथ में दूध का गिलास लिए खड़ी थी। कुछ देर शांत रहने के बाद मैं उर्मिला के पास गया ओर जेब से अंगूठी निकाली ( जो घर आते समय ली थी)  उसकी तरफ बढ़ा कर बोला "क्या मुझे माफ़ करके मुझे अपना पति स्वीकार करोगी ? तुमने मेरे दिल की सफाई कर के उस पर अपना कब्जा कर लिया है।"

मुझसे अपने लिए प्रेम प्रस्ताव सुनकर वो चतुर नार सजल नेत्रों के साथ झट से मेरे गले लग मुझसे लिपट गई, मानो महीनों से इसी दिन का इंतजार कर रही थी।

"और तुम्हारी प्रेमिका !! और उसके प्यार का क्या होगा ? "

"हा हा हा हा ..उसे अपने पति के साथ उड़ने दो, हमारे बीच अब उसका कोई काम नहीं।"

चतुर नार की आंखों में मेरे लिए बेशुमार प्यार था । आज हमारे बीच प्रेम भी था और समर्पण भी।


 धन्यवाद।



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