Savita Negi

Inspirational

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Savita Negi

Inspirational

छूट

छूट

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छोटा सा खूबसूरत कला सदन, मोहल्ले के ज्यादातर एकल परिवारों के बड़े -बड़े भवनों में पसरे सन्नाटे को अपनेअंदर होते शोर गुल से मुँह चिढ़ाता रहता 'कि देखो, तुम बड़े और भव्य जरूर हो लेकिन उदास और मायूस से खड़े दिखते हो। मुझे देखो, मैं छोटा हूँ परंतु भरा हुआ हूँ।' बड़े भवन अपनी शालीनता को बरकरार रखते हुए पूछते " वाकई क्या ? तुम्हारे अंदर बजते बर्तनों की कर्कश ध्वनियाँ क्या कहती हैं, तुम्हें सुनाई नहीं देती क्या?  उन ध्वनियों को नजरअंदाज कर तुम अपने ही दर्प में डूबे हो कि जो भी हो परिवार के सभी सदस्य साथ रह रहे हैं। लेकिन कभी बन्द दरवाजों के अंदर चलती उन अधूरी ख़्वाइशों के बजते ढोल को भी सुनने का प्रयत्न करना, साथ रहने की खुशी और मजबूरी का अंतर समझ आ जायेगा।

"साथ रहने में जो खुशी होती है उस खुशी की व्याख्या ही नहीं। कमी का आभास कभी नहीं होता, यूं कहो घर के सभी सदस्यों को साथ रहने की आदत पड़ चुकी है, अलग होने की सोच भी नहीं सकते।... शंकर जी ने अपने साले साहब को समझते हुए कहा।

" अगर ये आपका वहम नहीं तो खुश किस्मत हो जीजाजी जो इस कलजुग में ऐसे बेटे बहु मिले हैं। "

"अरे, ये सब मेरा अनुशाशन है ( मुछो पर ताव देते हुए) मैंने शुरू से ही बेटों की लगाम कस रखी है, मजाल चूं कर दें मेरे सामने। इस घर से अलग रहने की कोई सोच भी नहीं सकता। एक बार बड़े बेटे ने अगल रहने की बात सिर्फ सोची ही थी, मैंने वो कोहराम मचाया की सबकी बोलती बंद हो गयी...........हा हा हा।"

"अच्छा, तो बच्चों को भावनात्मक धमकी देकर डराते हो।"

" भई अपना सीधा सा वसूल है, अपना हुक्का मनवाने के लिए सब जायज है। मेरे जीते जी इस घर से कोई अलग नहीं होगा, बस।......चलो अब भोजन करते हैं।"

बेटों ने बैठक में लगे सोफे और टेबल को दीवार की तरफ सरका कर सबके लिए बैठने की जगह बनाई। बहुओं ने सभी को खाना परोसा। इस बीच रसोई से आती आवाजों से ऐसा लग रहा था मानो नई दिल्ली रेलव स्टेशन में कोई यात्री ट्रेन रुकी और सवारियाँ खाने की तलाश में आलू पूरी के ठेले पर टूट पड़े हों। अब तीन बेटे बहु और उनके दो दो बच्चे, तकरीबन दो से पंद्रह वर्ष की आयु के बीच, दादा दादी उस पर मेहमान तो ऐसा माहौल बनना जायज हुआ न।

रात्रि भोजन के बाद साले साहब जी बैठक में लगे दीवान में पसर गए, वहीं कोने में बड़े बेटे का पंद्रह वर्षीय सुपुत्र का भी ज़मीन में बिस्तर लग गया और वह टेबल लैंप की रौशनी में पढ़ने लगा। 

साले साहेब को इस घर में आते जाते वर्षों हो चुके थे। जानते से अच्छे से कि पूरे घर में इस बैठक का क्या महत्व है। सिर्फ नाम का बैठक है वरना तो भोजन कक्ष, शयन कक्ष, विचार- विमर्श कक्ष, अतिथि कक्ष आदि के किरदारों को निभाता आया है। बस, इसमें ठुसे तीनों बहुओं के दहेज से आये सोफे टेबल को, इधर- उधर सरकाकर जगह बनानी पड़ती है। अचानक से साले साहेब ने पलटी मारी और पाया कि एक सोफा गायब है, फिर पता चला कि उसके स्प्रिंग की उम्र हो चली थी जिससे वो ढीले हो चुके थे उनमें ताकत न थी इंसानों के बोझ को उठाने की इसलिए उन्हें छत में रखवा दिया गया था। मन ही मन बुदबुदाये की मानना तो पड़ेगा जीजाजी को, उनके सम्मान में या कहूँ तो डर से इतना बड़ा परिवार इतने छोटे से घर में यूँ समा जाता है जैसे छोटा सा इनो का पैकेट पानी मे घुल जाता है।

परंतु बहुत बार इन्होंने बेटे बहुओ के चेहरे में उन अधूरी इच्छाओं को दम तोड़ते देखा है जिन्हें वो पूरा करने में सक्षम तो हैं परंतु कर नहीं पाते। 

शंकर जी जिस पारिवारिक एकता, प्रेम की बात करते हैं वो सिर्फ़ उनका वहम मात्र दिखता है। संयुक्त परिवार के दर्प में सबकी इच्छाओं का दमन करते आ रहे थे।

साले साहेब से रहा नहीं गया, अगले दिन जीजाजी से कह ही डाला....

" जीजाजी परिवार बड़ा हो गया ....मुश्किल से मैनेज हो पाता है, सब दिखता है। आपको नहीं लगता, जगह की बहुत दिक्कत है। बच्चे भी पढ़ने के लिए अपनी किताब लिए कभी यहाँ तो कभी कहाँ घूमते है। अब बच्चे बड़े हो रहे हैं, उनकी निजता का भी ख्याल रखना जरूरी है।" 

"अरे, इसमें मैनेज क्या करना? एक एक निजी कमरा सब बेटों का है और क्या चाहिए। हमारे जमाने में तो इतना भी नहीं था फिर भी जिंदगी अच्छे से निकली है न।"

" परिवार को संयुक्त रखने का अर्थ ये कदापि नहीं कि बच्चों के मन को मार कर उन्हें छोटी छोटी खुशियों से वंचित कर दिया जाए। कभी अपने बेटे बहुओं के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करना, अभावहींन लगते हैं। उनके हाव- भाव में खीज, दबा हुआ क्रोध और अपने मन का न करने की मायूसी स्प्ष्ट दिखती है। समय के साथ चलना बुरा नहीं है जीजाजी। बेटे बहुओं की भी अपनी निजी जिंदगी होती है। एक कमरे में बड़े होते बच्चो के साथ रहना सिर्फ़ दिन काटने के समान है जीने के नहीं। "

"तो क्या स्वयं अपने संयुक्त परिवार को तोड़ दूं। बोल दूं उनको सब अलग -अलग हो जाओ। ऐसा बोल दिया तो सब अपना बोरिया -बिस्तर लिए हम बूढ़े -माँ बाप को अकेला असहाय छोड़ भाग खड़े होंगे। ऐसा करने की छूट मैं नहीं दे सकता उनको। "

"जीजाजी, रिश्तों की गांठ में थोड़ी सी ढील जरूर रखनी चाहिए ताकि वो ठीक से सांस ले सके। अभी उन्हें उनकी जिंदगी उनके हिसाब से जीने की छूट दे देंगे तो जो आपके प्रति डर है वो प्रेम में बदल जायेगा और आपका ये संयुक्त परिवार किसी अलगाव या मन मुटाव के चलते टूटने से बच जाएगा। बेटों को जबरदस्ती अपने साथ रखने की बजाय आप उनके साथ रहो, आप सक्षम हो, स्वस्थ हो। उनके मन का भी हो जाएगा और आपका सम्मान भी बढ़ जाएगा।

सम्मान और प्रेम वो होता है जो दिल से मिले डर से नहीं। घर के बड़े बुजुर्गों को सबकी जरूरतों के हिसाब से सही समय पर सही कदम उठाते हुए बच्चों को उनकी ख्वाईशो को पूरा करने की छूट दे देनी चाहिए इससे पहले की घर के बर्तन आपस मे टकराने लगे और कटुता के साथ अलग अलग रसोई में सजने लगे। सोचो, उस दिन आपका ये संयुक्त परिवार का दर्प यथार्थ के धरातल पर एक टूटे, चकनाचूर हुए दर्पण की तरह बिखर जाएगा।

आज के इस दौर में थोड़ी सी दूरी रिश्तों को और मजबूत बनाती है वहीं नजदीकियां कभी- कभी कड़वाहट से भर जाती हैं। अगर बहुत सारे पौधों को एक साथ एक गमले में रोप देंगे तो कोई भी पौधा सही तरह से नहीं पनपेगा। पौधों की तरह ही नाजुक रिश्ते होते हैं, इन्हें भी थोड़ी दूरी पर जमाने से ये अच्छे पनपते हैं। फैसला आपको करना है।

साले साहेब की बातें शंकर जी के दिल को छू गई। उन बातों की गहराई को वो भली भांति न सिर्फ समझ गए बल्कि उन पर अमल करने की तैयारी में भी लग गए "अपनो बच्चों को जबरदस्ती साथ रहने की बेड़ियों से मुक्त करके उन्हें उनकी तरह रहने की छूट देकर ताकि उनके जाने के बाद भी बच्चों में आपसी प्यार व्यवहार बना रहे और अपने पिता के लिए उनके मन में प्रेम, सम्मान बना रहे।


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