Savita Negi

Drama

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Savita Negi

Drama

एक सुखद अंत की ओर

एक सुखद अंत की ओर

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 "तू कितने भी ज़ख्म दे हम भी कम नहीं,

देख हमें अब ज़िंदगी से कोई गम नहीं।"

 अब लगभग सभी मकान दोमंजिला मकानो में तबदील हो चुके थे। सीधे सपाट घरों को खूबसूरत आड़े तिरछे डिज़ाइन, तरह तरह के मार्बलीक उभारों से एक अलग सा नया रूप दिया गया था जिसे पहचान पाना मुश्किल था। खूबसूरत हरे-भरे लॉन, हैंगिंग गमले उनपर लगे तरह- तरह के रंग - बिरंगे मौसमी फूल, उन घरों की शोभा को और निखार रही थी। एक वक्त था जब इन बगीचों में सिर्फ़ सब्जियां ही उगाई जाती थी और फूल और सजावटी पौधे रसोई के खाली हुए कनस्तर, घी तेल के डब्बों या दो चार मिट्टी के गमलों में सजाकर परछत्ती के नीचे या दीवार के ऊपर एक पंक्ति में सजा दिए जाते थे। 

बहुत से घरों की नेम प्लेट भी बदल गयी थी कोई बेचकर चले गए तो कहीं दूसरी पीढ़ी, मकान के मालिक थे। वहीं एक बहुत बड़ा सा खाली प्लाट हुआ करता था जहां सुनहरी शाम की गोद में सभी बच्चे अपनी खुशियों से भरी दुनियां में डूबे हुए अपने- अपने खेल तब तक खेलते थे जब तक उनके घरों से बुलाने की आवाजें न आने लगें। न वैसा बचपन रहा न वो माहौल, उस प्लाट के कई हिस्से कर अनेकों प्लाट बन गए और उन पर अनेकों मकान।

सड़क के दोनों तरफ़ पंक्तिबद्ध लगे वृक्ष मानो आगंतुकों के स्वागत में खड़े हों। उपर की फुनगियाँ बसंती हवा से बार बार उलझ रही थीं। शुक्र है ये वृक्ष यथावत हैं जो मोहल्ले के अन्तिम छोर में वन विभाग के घने जंगल मे जाकर समा जाते हैं। उसी अंतिम छोर में तो था वो घर जिसकी तलाश में अवंतिका ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न से भारत के देहरादून शहर के उस मोहल्ले में आई जहाँ उसका सुनहरा बचपन बीता था, जिसे उसने लगभग भुला दिया था। अगर उस डायरी ने उसे उस कालखंड से अवगत न कराया होता जिससे वो अनभिज्ञ थी तो वो शायद ही कभी भारत लौटती और साथ ही दुःख, ग्लानि और पश्याताप के भावों से यूँ न भर जाती।

उसके भारी कदमों ने उसे उस गेट के सामने खड़ा कर दिया  जिसे पंद्रह वर्ष पूर्व रात के अँधेरे में हौले से खोलकर जेम्स के साथ भागकर हमेशा के लिए छोड़ दिया था। जिसकी नेम प्लेट आज भी लटकी हुई थी जिसपर लिखा था ' प्रेमा सदन'...।

 एक बीमार बुजुर्ग की तरह एकदम कोने में सबसे अलग-थलग पड़ा वीरान सा घर।जंक लगे लोहे के गेट आपस में भीड़े हुए कुछ यूँ अकड़े हुए थे मानों कह रहे हों बस अब किसी को न जाने देंगे इस घर से। उसने किसी तरह से धक्का देकर गेट खोला और हौले कदमो से अंदर घुसी जहाँ मौन की अथाह गहराई में डूबा आँगन, उस सूनी सी दोपहर को किसी अपने के इंतजार में रुआँसा सा झड़े, सूखे, पीले पत्तों का बिछौना बनाकर पसरा था। जंगली बेले सर्प की भाँति दीवारों का सहारा लेकर छत तक फैलकर अपना आधिपत्य जमा चुकी थी। लॉन में रखा अधगला झूला, झाड़ियों के बीच छुप कर बैठा था।। कभी इस झूले पर बैठने के लिए  डब्बू और अवंतिका के बीच बहुत झगड़ा हो जाता था। दीपेंद्र, जिसे सब प्यार से डब्बू कहते थे।

शीशम के दरवाज़े के खुलने की चर्र चर्राहट की आवाज ऐसे थी मानो वर्षों बाद किसी ने झकझोर कर निद्रा से जागाया हो। दरवाजा खुलते ही सीलन और धूल का भपका अवंतिका के नथुनों को हिलाकर जोर की खाँसी लगा गया। उसने चारों तरफ घूम कर देखा तो बीता आँखों के सामने मंडराने लगा। एक- एक कर के उसने सभी खिड़की दरवाज़े खोल दिये। अंदर के अँधेरे का महिनों बाद सूर्य से मिलन हो रहा था। 

उसके कदम अनायास ही माँ के कमरे की तरफ बढ़ निकले। कानों में माँ की आवाज़ गूंजने लगी.....अवू.... अवू 

उसे लगने लगा अभी माँ किसी कोने से अचानक साड़ी का पल्लू कमर में ठूंसती हुई सामने आ जायेगी। 

वैसा ही था उसका कमरा जैसा पंद्रह वर्ष पूर्व था। दीवार में उसके बचपन की तस्वीरें थी जिनपर धूल की परत चढ़ी थी तो दूसरी दीवार में पेंडुलम वाली घड़ी जो बन्द पड़ी थी। अलमारी में उसके कपड़े अभी भी वैसे ही तह के साथ रखे हुए थे ये देखकर उसकी आँखों की सतह पर आँसू तैरने लगें थे।एक सोच कोंधकर उसे रुला गई कि क्या बीती होगी उसकी माँ पर जब वो उन्हें जिंदगी के भंवर में अकेला छोड़कर चली गयी थी।

कमरे के कोने में दीवार से सटे टेबल में उसके खिलौनों के साथ - साथ उसके पापा के खिलौने भी यथावत थे। वो लाल रंग की गाड़ी,बैट बॉल सबकुछ वैसा ही रखा था। ये सब उसके पापा के प्रिय खिलौने हुआ करते थे।

पापा के खिलौने ?

अंवतिका वहीं झूला कुर्सी में बैठे -बैठे माँ की लिखी डायरी को निस्पंद आँखों से देखती रही। "काश! माँ होती तो , उसको गले से लगाकर खूब रोती और अपने किये पर क्षमा मांगती। माँ के अंदर की उथल- पुथल कभी उसके चेहरे के भावों में उभर कर नहीं आई। हमेशा जिंदगी को हँसते खेलते जीने की सीख देती और मैं....मैं उनको समझे बिना,उनसे प्रश्न किये बिना, उसकी तकलीफ़ जाने बिना घर छोड़ कर सबसे दूर जा बसी। माँ ने इस दुनिया से विदा होने से पहले ये डायरी अपनी सखी के जरिये मुझतक न पहुंचाई होती तो मैं कभी उस सच्चाई को जान ही नहीं पाती और उन चरित्रों के बिछड़ने के दर्द को महसूस ही नहीं कर पाती जो कभी मेरी जिंदगी के अभिन्न किरदार थे...दादा,दादी और मेरा सबसे प्रिय दोस्त, मेरे पापा।

...कई बार माँ से पूछती थी ' पापा दूसरे बच्चो के पापा की तरह क्यों नहीं है? ये तो खिलौने से खेलते हैं,ठीक से बात भी नहीं करते।'..माँ हंस कर समझाती,' पहले तेरे पापा भी उन जैसे ही थे, लेकिन एक दुर्घटना के बाद बीमार हुए तो ऐसे हो गए।'

 मैं भी यही समझती रही लेकिन असल सच्चाई तो इस डायरी में लिखी थी।

बड़े से घर में जैसे सबकी दुनिया मेरे आगे -पीछे ही घूमती थी। सबके मुँह में सिर्फ मेरा ही नाम रहता था। उस आँगन में मैं, पापा के साथ घण्टो बैट बॉल खेलती थी। दादा मुझे आम काटकर खिलाते तो पापा को भी बिल्कुल वैसे ही खिलाते। जैसे तोतली भाषा में मुझे प्यार करते बिल्कुल पापा को भी वैसे ही।

अवंतिका भरी आँखों से फिर से डायरी के पन्नो को पलटने

 लगी।

" तेरे दादा,दादी बहुत सम्पन्न थे। सबकुछ होते हुए भी डब्बू के रूप में ऐसा दुःख जी रहे थे जिसका कोई समाधान ही नहीं था। वो एक मानसिक रूप से कमजोर बच्चा था। उम्र के साथ शरीर का विकास होगा परंतु मस्तिष्क नौ, दस वर्ष के बच्चे के मस्तिष्क जितना ही विकास कर पायेगा। दादा -दादी की चिंता भी बढ़ती गयी कि उनके पश्च्यात डब्बू को कौन देखेगा? इस लालची और चालाक दुनिया से वो मासूम कैसे लड़ेगा? जब तेरी दादी आस पड़ोस के बच्चों के विवाह में जाती तो अपने बेटे को दूल्हे के रूप में देखने की कभी न पूरी होने वाली इच्छा के साथ ढेरों आँसुओं को भी ले आती।

डब्बू सुबह -सुबह गली में स्कूल वैन के सामने खड़ा होकर अपने दोस्तों को तुतलाती आवाज़ से बुलाता कि जल्दी आओ वैन आ गयी।" उस वक़्त दादी का दिल बुरी तरह टूट जाता ये देखकर की कहाँ उसकी उम्र के बच्चे स्कूल जा रहे कहाँ डब्बू अपने अलग स्कूल जाता था।जहाँ उसके जैसे बच्चो को दैनिक कार्यो को करना सिखाया जाता था ताकि दुसरो पर उनकी निर्भरता थोड़ी कम हो जाये। और डब्बू अपने स्कूल जाकर बहुत कुछ सीख भी गया था। खुद से नहाना, खाना, अपना कमरा साफ रखना। धीरे - धीरे बोलने में भी असर दिखने लगा।

डब्बू को रंगों से खेलना अच्छा लगता था।अक्सर अपनी धुन में कुछ - कुछ पेंटिंग करता रहता था। उसका शरीर बढ़ता गया लेकिन दोस्त छोटे- छोटे बच्चे या बुजुर्ग होते थे। उन्ही के साथ खेलता उन्ही के साथ बैठता था।

एक बार दादी की सखी ने उनसे कहा ' डॉ के पास जाकर चेकअप कराओ तो, क्या पता इसे ब्याह-व्याह की समझ हो, फिर किसी गरीब घर की लड़की से ब्याह करवा देना,पोते- पोती होंगे और तेरा सुना आँगन चमक उठेगा।'

तेरी दादी का मन रात भर अनेकों आशाओं और आशंकाओं के बीच झूलता रहा। जानती तो थी ये असम्भव है परंतु किसी चमत्कार की उम्मीद में अनेकों बार ईश्वर के लिए हाथ जुड़े। ये क्या कह गयी सखी, पोते -पोती होंगे... ये मधुर शब्द उनके कानों में रात भर किलकारियां मारते रहे।

परंतु डॉ से मिलने के बाद जिस गम ने तेरी दादी को घेरा फिर वो उस गम में घुलती चली गयी। इतनी बीमार हो गई की बिस्तर ही पकड़ लिया। दिन रात एक ही बात 'डब्बू का क्या होगा?'

तेरे दादा, उनका दर्द .…...एक तरफ उनकी जीवन संगनी इतनी बीमार थी वही दूसरी तरफ वो भी डब्बू के मासूम चेहरे को देख अंदर ही अंदर टूट रहे थे जो माँ के बिस्तर के कोने पर अपने मे मग्न बैठा , पेपर में मोम के रंगों से न जाने क्या- क्या बनाकर उनमें रंग भर रहा था। काश! कोई उनकी बेरंग जिंदगी में भी रंग भरने के लिए आ जाता।

......उस रात बहुत तेज बारिश थी। तेरे दादा, दादी की कुछ जरूरी दवाइयां लेने अकेले ही निकल पड़े। सड़क पर कोई गाड़ी नहीं मिली तो वो पैदल ही केमिस्ट से दवाई लेकर घर तक का रास्ता नापने लगे। अपनी धुन में वो चले जा रहे थे कि मुझे उस अंधेरी बरसाती रात में टैम्पू स्टैंड में, कोने में देख ठिठक गए। 

" कौन हो बेटा, अभी कोई ऑटो नहीं मिलेगा ? कहाँ जाना है?" उन्होने मुझसे पूछा।

मैं बस दुपट्टे से मुँह दबा कर रो रही थी। शायद अपनी ऊँची सिसकियों को रोकने की कोशिश कर रही थी।

"क्या हो गया बेटा, रो क्यों रही हो?... रात बहुत हो गई, यूँ अँधरे में सुनसान जगह में ऐसे सही नहीं। बताओ मुझे, अपने पिता की तरह समझो। क्या पता मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ।" उन्होंने बहुत ही अपनत्व से पूछा।

 उनके स्नेहिल शब्दों ने मेरे अंदर का बांध तोड़ दिया और मेरे अंतस में छुपे दुःख की बाढ़ आँखों से बहने लगी। मैं वही बैंच में बैठ गयी। तेरे दादा भी छाते को किनारे रख मेरे बगल में बैठ गए। एक दुःखी इंसान ही दूसरे के दुःख को समझ सकता हैऔर वही किसी के दुःख को सुन भी सकता है।

" अब बताओ आराम से, किस वजह से दुःखी हो?"

" वजह सुनकर आप भी मुझसे घृणा कर चले जाएँगे। जैसे मेरे परिवार ने मेरा तिरस्कार किया। मैंने अपने कृत्य से परिवार को कलंकित किया है। मैंने तो निश्छल हृदय से प्रेम में समर्पण किया था, वो छल करता रहा। मेरे तीन माह के गर्भ को नकार कर,मुझे दुत्कार कर भाग खड़ा हुआ। गलती हुई थी मुझसे, परिवार से क्षमा और मुझे संभालने के लिए बहुत गिड़गिड़ाई परंतु कुलक्षणी कहकर घर से बाहर कर दिया गया। कोई रास्ता नहीं बचा था मेरे पास। अपना और इसका, दोनों का जीवन समाप्त करने की सोचकर नहर की तरफ गई थी मगर हिम्मत न कर पाई। " मैंने उन्हें आपबीती सुनाई।

" तुमसे गलती नहीं हुई बेटा, वो जो ऊपर ईश्वर बैठा है न, ये है हमारे जीवन को तोड़ -मरोड़ कर घुमाने वाला। हम सब उसी की लिखी स्क्रिप्ट पर जीवन जीने के लिए विवश हैं। किसी के हिस्से खुशियाँ ही ख़ुशियाँ और किसी के हिस्से सिर्फ दुःख।

बहुत बड़ा निर्देशक है ये, इस सांसारिक मंच में जीवन रूपी नाटक के तो हम सिर्फ पात्र हैं। उसकी लिखी स्क्रिप्ट समाप्त हुई, हमारा रोल और सांसारिक मंच से हमारा किरदार गायब।

खैर, अगर मुझपर भरोसा हो तो अभी मेरे साथ मेरे घर चलो, फिर शांत मन से आगे की सोचेंगे। रास्ते कभी बन्द नहीं होते, वो कष्टदायक जरूर हो सकते हैं लेकिन मंजिल तक अवश्य जाते है।"

उनकी बातों में न जाने क्या जादू था कि उस क्षण सबकुछ भूलकर तुझे जिंदगी देने की उम्मीद से उनके पीछे- पीछे चल दी।

.....उस घर में पहुँचते ही एक अजीब सी उदासी पसरी दिखी। तेरे दादा मुझे जल्दी से एक अलमारी के सामने ले गए

"प्रेमा मेरी पत्नी,उसकी अलमारी है। बेटी तो है नही मेरी। उन्ही के कपड़ों में से कुछ पहन लो, भीग गयी हो। "

मैंने अलमारी में एक सरसरी नजर मारी, तो महंगी से महंगी,जरीदार साड़ियाँ सलीके से रखी थी। कोने में रखा एक नाईट गाउन निकाला और पहन लिया। वो मुझे तेरी दादी यानी प्रेमा जी से मिलवाने ले जाने लगे। मैं उस वक़्त बहुत घबरा गई, मुझ पापन को अपने घर में देख न जाने,कैसा बर्ताव करें? उनके कमरे की तरफ बहुत सधे कदमो से बढ़ रही थी। कमरे में हल्की सी रोशनी थी। कोने में बड़े से पलंग में प्रेमा जी बैठी थी वही बगल में डब्बू सोया था। वो अपना दुलार लुटाते हुए उसकी पीठ थपथपा रही थीं। प्रथम दृष्टया अजीब सा लगा कि इतने बड़े बेटे को छोटे बच्चे जैसा दुलार क्यों दे रही है? फिर ख्याल आया शायद माँ ऐसी ही होतीं होंगी, मेरी तो माँ नहीं थीं और पिता सौतेली माँ के साथ व्यस्त थे। इस प्यार और अपनेपन के लालच में ही मैं शायद भटक गई और प्रेम की तलाश में धोखा खा बैठी।

मुझे देखते ही उन्होंने प्रश्नवाचक भाव से अपने पति कि तरफ देखा। 

तेरे दादा ने उन्हें मेरे विषय में सबकुछ बता दिया। उसवक्त मेरे हाथ पैर बहुत कांप रहे थे ये सोचकर कि अगर ये मुझे स्वीकार न करके घर से निकाल देंगी तो मैं कहाँ जाऊंगी?

तभी उन्होंने एक मधुर स्मित के साथ मुझे अपने पास बुलाकर बैठने का इशारा किया।

" तुम्हारे घर में हम लोग बात करे बेटा, क्या पता इस समस्या का कोई हल निकल जाए?"

उस घर में पहले से तिरस्कृत थी अब तो कोई अंदर भी नहीं आने देगा। माँ को तो खोया ही था, पिता के दूसरे विवाह के उपरांत उन्हें भी खो दिया। ....आप चिंता न करें मैं...मैं कुछ न कुछ सोच लूंगी, आप लोंगो को तकलीफ नहीं दूंगी।

मेरे ऐसा कहते ही प्रेमा जी ने तुरंत मेरा हाथ पकड़ लिया,

"पगली हो क्या ? बेटी जैसी हो हमारी, ऐसी अवस्था में तुम्हें अकेला नहीं छोड़ेंगे। बस उस नन्ही जान को नुकसान पहुंचाने की मत सोचना। मुझे बच्चे बहुत पसंद थे। दूसरा बच्चा ईश्वर ने दिया ही नहीं,और ये कभी बड़ा हुआ ही नही। रुआँसी सी होती हुई प्रेमा जी डब्बू का सर सहलाने लगी।

तेरे दादा जी ने गला साफ करते हुए उन्हें जल्दी से दवाई दी और सुला कर मुझे दूसरे कमरे में सोने के लिए भेज दिया।

मैं सोच रही थी कि बड़ी विचित्र माया है ईश्वर की, इसी कठोर दुनिया में कुछ अंजान लोग स्वार्थ से परे किसी अजनबी को भी बिना हिचकिचाहट न सिर्फ़ आश्रय देते हैं बल्कि मदद के लिए भी हाथ बढ़ाते हैं।ऐसे लोंगो को ईश्वर दुःख क्यों देता है? उनके चेहरों की उदासियों को मैं समझ नहीं पा रही थी। 

...रात काफी हो गयी थी, आँखों से नींद कोसों दूर थी और बारिश अपने संगीत के साथ निरंतर बरस रही थी। मैं पानी पीने रसोई की तरफ जा रही थी तो देखा तेरे दादा जी झूला कुर्सी में बैठे खिड़की से टपकती बूंदों को देख रहे थे। मेरे कदम अनायास ही उनकी तरफ बढ़ गए।

" अरे! तुम सोई नहीं । हम्म ! समझ सकता हूँ नई जगह में नींद नहीं आती, ऊपर से चिंताएं सोने नहीं देती।"

" आप क्यों नहीं सोए?" ये पूछते हुए मैं वही फर्श में बैठ गयी।

जब से हमें पता चला कि डब्बू एक विशेष बच्चा है हम तो तब से नहीं सोए। उसे और बच्चों की तरह बनाने की उम्मीद में प्रेमा ने अपने जीवन के अमूल्य दिन रात उस पर खर्च कर दिए। जिसने जैसा कहा वही उसका इलाज कराया लेकिन .....फिर भी डब्बू अपने जैसे बच्चों की तुलना में काफी कुछ सीख गया। परंतु अकेला तो नहीं जी सकता न। हम दोनों के पश्च्यात उसको कौन संभालेगा,इसी चिंता ने प्रेमा को रोगी बना दिया। 

बहुत शौकीन थी शुरू से ही। सब उसको हेरोइन कहते थे, कमर तक लंबे बाल थे उसके।बड़ी मेहनत करती थी उनकी देख रेख में। साड़ियों का शौक तो इतना था कि जब भी बाजार जाना हुआ तो साड़ी जरूर लेती थी। जैसे -जैसे डब्बू बड़ा हुआ उसकी समस्या समझ आई प्रेमा के सारे शौक खत्म होते चले गए। विशेष बच्चे की देखभाल भी विशेष ही होती है। उसे अपने बालों को संभालना मुश्किल हो गया तो कटवा दिए। कुछ दिनों तक उसने आईना नहीं देखा था। उसकी साड़ियां अलमारी में बन्द पड़ी ही रह गयी और वो दिनभर नाईट गाउन में ही रहने लगी। जब डब्बू दूसरे बच्चों के साथ खेलता था तो प्रेमा पूरी नजर रखती थी कि कहीं कोई डब्बू की मजाक न बनाये या खेल में उसका बेवकूफ न बनाये। अगर कोई मज़ाक बना भी देता तो तुरंत उनके घर लड़ने चली जाती थी। माँ की ममता इसे ही कहते हैं। एक माँ अपने बच्चे के लिए खुद को मिटा देती है।

समय बीतता गया,धीरे -धीरे हमने अपनी नियति को स्वीकार कर लिया। हमने तय किया कि खूब घूम फिर लेते है और डब्बू को इस जन्म जितना हो सके खुशियां देते हैं। हम विवाह हो या मुंडन, सब जगह जाने लगे और डब्बू को सबसे मिलवाने लगे। किसी तरह से पटरी से लुढ़क आई जिंदगी को वापस पटरी पर लाने की कोशिश करने लगे।

परंतु ईश्वर से हमारी इतनी सी खुशी भी बर्दाश्त नहीं हुई। प्रेमा कैंसर ग्रस्त हो गयी। इलाज चल रहा है, न जाने कितना समय शेष होगा...... जहाँ से शुरू किया था जिंदगी फिर से वहीं पटक गयी।

कुछ देर खामोश होकर उन्होंने चश्मे को उतारा और अपनी आँखों से लुढ़क आये आँसुओं को पोंछा और मुझे आराम करने को कहा।

मुझे लगा मुझसे दुःखी कोई नहीं, जब उनका दुःख सुना तो मेरा कुछ भी नहीं लगा।

दिन बीतते गए, मैं उनके घर में एक सदस्य की तरह रहने लगी।मैंने उनसे कुछ दिनों का आश्रय मांगा था परंतु उन्होंने 

 इतने दुःखों के बावजूद भी मुझे बिना सोचे समझे दिल से अपना लिया था। 

अभी तक सब दुत्कारने वाले ही मिले थे, पहली बार इतना अपनत्व और प्यार देखकर मैं उनपर अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार थी। उनके उदास चेहरों में खुशियां देखना चाहती थी। उस बिखरे घर को संवारना चाहती थी जो मेरे लिए देवदूत से कम न थे।

समय के साथ आते -जाते लोंगों के प्रश्न मेरे लिए उठने लगे थे। " कौन है? कितने दिन रहेगी?" वगैरह।

पेट के उभार से लोंगो की संदेहास्पद दृष्टि मुझे अंदर तक भेद जाती और मेरे आश्रयदाता को लाजवाब कर देती। वो लोग कई तरह के बहाने बनाकर सबको चुप करा देते थे। 

इस बीच डब्बू से मेरी अच्छी दोस्ती हो चुकी थी। मेरा हमउम्र ही था। धीरे- धीरे मैंने सबकी ज़िम्मेदारी सम्भाल ली। कुछ तो था पूर्व जन्म का कोई रिश्ता जो मैं उनके साथ उस घर की बेटी जैसे रहने लगी। मेरे भविष्य को लेकर मैंने उन्हें कई बार चिंतित देखा था। मुझसे कहते भी थे

" अगर हमारा बेटा सही होता तो दुनिया की परवाह किये बिना तुझे अपनी बहू बनालेते। तुम्हारे सामने पूरी जिंदगी पड़ी है। बच्चे के जन्म के बाद अगर चाहो तो अपनी जिंदगी को आगे बढ़ा सकती हो,हम तुम्हारी पूरी मदद करेंगे।"

लेकिन मेरा एक ही जवाब होता कि "नहीं, मैं अपनी जिंदगी आपकी सेवा में लगाना चाहती हूँ। और कोई लालच नहीं, अपनो के छल ने अंदर तक छलनी किया है। इस जन्म तो घाव भरेंगे नहीं, लेकिन आपकी सेवा से मुझे जीने का एक मकसद मिल जाएगा। मैं एक दासी बनकर भी जिंदगी व्यतीत करने को तैयार हूं। "

" कल को तुम्हारा बच्चा पिता के बारे में प्रश्न करेगा तो?"

"उसे तो जो कहानी बताएंगे वो मान ही लेगा।"

मेरे तर्क से दोनों सोच में पड़ गए।

एक दिन मैंने उन दोनों को कुछ बातें करते सुना...

"सुनो जी, मधु ने कैसे पूरा घर सम्भाल लिया न। पूरे घर में एक नई ऊर्जा सी महसूस करती हूँ ऐसा लगता है मुझमें एक नई जान आ गयी होगी। उभरे पेट के साथ जब वो मेरी देखभाल करती है तो लगता है जैसे......जैसे मैं उसकी सास हूँ और वो मेरी बहु।" अपनी आँखों से छलक आये आँसुओं को पोंछति हुई आगे कहने लगी...

" काश ! डब्बू सही होता तो हमारी भी ऐसे ही एक बहु होती। इस जन्म न तो बच्चे का सुख मिला न दादी बनने का।"

"क्या कर सकते हैं प्रेमा, जो जिंदगी जैसी मिली है उसे वैसा ही जीना पड़ेगा।"

उनकी बातों में उनकी अधूरी इच्छा के दर्द ने मुझे बहुत बेचैन कर दिया था। रात भर सोचती रही कैसे उनकी इस इच्छा को पूर्ण करूँ ?...मैने कुछ तय किया और अगले दिन मैं उनकी उस अधूरी इच्छा को पूर्ण करने के संकल्प के साथ उनके समक्ष बैठ गयी। 

..." क्या मेरे बच्चे को पिता के रूप में डब्बू का नाम मिल सकता है?."....मेरी बात सुनकर दोनों हतप्रभ से एक दूसरे को देखने लगे। 

" सब तो जानती हो, फ़िर भी ऐसा प्रश्न क्यों ?"

" मेरे बच्चे को पिता, दादा,दादी और समाज में सम्मान मिल जाएगा और आपको बहु।"

 उस वक़्त हम सब की आँखे नम थी।

"क्यों अपनी जिंदगी बर्बाद कर रही हो ? डब्बू, मानसिक रूप से कमजोर है, वो सम्पूर्ण नहीं। क्या रोल होगा उसका तुम्हारी जिंदगी में भला।"

" जो ताकतवर था, जिसका मानसिक स्तर बहुत उम्दा था और जो सम्पूर्ण था वो मेरी जिंदगी को, मेरे विस्वास को तार- तार करके मुझे इस हाल में छोड़कर भाग गया। उस धोखेबाज से ये मासूम कहीं ज्यादा अच्छा है।

मैंने अपनी झोली फैलाकर उनसे भीख मांगी और उन्होंने मुझे गले लगा लिया।

मेरी जिद ने उनको झुका दिया और तेरे जन्म से पूर्व एक असम्भव कार्य सम्भव होने जा रहा था। मैंने घर के मंदिर में ही डब्बू से मांग भरवाई और उसके नाम का मंगलसूत्र पहना। अपने शेष जीवन को इन नए रिश्तों को समर्पित कर एक नई शुरुआत देनी थी। साथ ही साथ समाज मे इस रिश्ते की पहचान भी बनानी थी। हम वो शहर छोड़कर वहाँ से कई मील दूर देहरादून आकर बस गए। जहाँ हमे कोई नहीं जानता था।

हम सब अपनी कड़वी सच्चाई को, जिंदगी से मिले दुःख दर्द, धोखे को पुराने शहर में दफ़्न करके नए शहर में, नए जोश और नई उम्मीदों के साथ, नए घर को बसाने में व्यस्त हो गए। और ये संकल्प किया कि आगे की जिंदगी सब यू ही हंस खेलकर जिएंगे।

 हमने उस ईश्वर की लिखी स्क्रिप्ट में अपने इस नए परिवार  में खुद ही खुशियों को लिखना आरंभ किया था।

सब कुछ बहुत अच्छा लगने लगा, एक पूरा परिवार साथ में। और फिर तेरा जन्म हुआ, उनके चेहरों की अदभुत खुशी आँसुओं में छलक रही थी। तेरे दादा दादी ने खुश होकर बहुत बड़ी पार्टी दी थी। डब्बू अब तेरे पिता के रूप में थे। उनको एक बात समझा दी थी कि तुम इसके पापा हो तो बस वो दिनभर यही कहते रहते की मैं इसका पापा हूँ। 

दादा -दादी तुझे एक पल नहीं छोड़ते थे। तेरे आने से हमारा वो नया परिवार और मजबूत हो गया था। दादी की तबियत में काफी सुधार हो चुका था। जैसे भी सही, वो अपने अधूरे अरमानों को पूर्ण कर रही थी तेरे वजह से। तेरी मालिश हो या नहलाना बड़े शौक से करती थीं। डब्बू अब मेरी जिम्मेदारी थी। जब भी कोई डब्बू के विषय मे पूछता तो हम यही कहते कि "पहले बिल्कुल ठीक थे एक दुर्घटना में दिमाग मे चोट लगने से ऐसे हो गए।" अपना सच छुपाने से हमको कोई फर्क नहीं पड़ता था। हम जिंदगी को समझ चुके थे और उसको जी रहे थे। हम सब अपने किरदारों को अपने अन्तस् में उतार कर खुश थे, संतुष्ट थे और सचमुच के परिवारों से बहुत बेहतर थे।

समय बीतता गया।तेरे नन्हे कदम आँगन में दौड़ने लगे थे। कुदरत का करिश्मा ही रहा होगा कि डब्बू से तेरा एक अलग ही लगाव था। तुम दोनों साथ खाना खाते, खेलते। कभी- कभी वो तुझे हाथ पकड़कर बाहर घुमाते भी थे बिल्कुल एक सगे और सामान्य पिता की तरह। और कभी - कभी तुम दोनों की बहुत लड़ाई हो जाती थी। उफफ! तेरे दादा-दादी और मैं तुम दोनों को मनाने में लगे रहते थे। वो तुम दोनों का जुड़ाव तुम्हारे बाल मन और मस्तिष्क का जुड़ाव था। 

...... समय पँख लगाकर उड़ रहा था। तू बढ़ने लगी, तेरा मन, मस्तिष्क और शरीर भी बढ़ने लगा। और डब्बू पीछे बहुत पीछे छूटते जा रहे थे।.....

........माँ की डायरी पढ़ते- पढ़ते अवंतिका की आँखों के सामने उसके पिता के साथ बिताए वो पल चलचित्र की भाँति चलने लगे।

पापा का नियम था मुझे स्कूल वैन तक छोड़ने का और तब तक बाय करते रहते जब तक वैन नुक्कड़ से मुड़ नहीं जाती। बाकी बच्चे उन्हें देखकर बहुत हँसते थे। मुझे बुरा लगता था। धूप हो या बारिश मुझे वैन तक लेने भी वही खड़े होते। 

थोड़ी और बड़ी हुई तो मुझे मेरे भोले से पापा के साथ बाहर जाने में शर्म आने लगी क्योंकि उन्हें देखकर बाकी वच्चो की हंसी मुझसे बर्दाश्त नहीं होती थी। पापा ये सब बातें नहीं समझते थे। उनको सिर्फ ये समझ थी कि मैं उनकी कुछ हूँ। पार्क में भी वो मेरे साथ आने की ज़िद करते। जहाँ बाकी बच्चें कहना शुरू कर देते हम इनके साथ नहीं खेलेंगे। इनको क्यो लाती है। मैं उनको बेंच में बैठने के लिए कहती तो वो कुछ नाराज से होकर चले जाते। 

एक दिन मेरी क्लास के कुछ बच्चे बिना बताए मुझसे मिलने आ गए। मैं उनको पापा से नहीं मिलाना चाहती थी। जल्दी से सभी को अपने कमरे में ले जाकर दरवाजा बंद कर दिया ....और वो मुझे खोजते हुए पीछे- पीछे आ गए और दरवाजा पीटने लगे। किसी ने दरवाजा खोल दिया, "मैं अवु का पापा हूँ" उनकी तोतली सी आवाज में ये सुनकर सब मुझे देंखने लगे। 

उस रात मैं बहुत गुस्से में थी। माँ को क्या नहीं सुनाया की क्यो आने दिया उनको, सब बच्चे मेरी मज़ाक बनाएंगे।"

" तूने खाना नहीं खाया था, और उन्होंने भी नहीं....तेरे साथ खाने के लिए बुलाने आये थे।" माँ ने मुझे समझाया कि अपने पिता से शर्म क्यों? वो कैसे भी तुम्हारे अपने हैं।

लेकिन मैं, पता नहीं क्यों हीन भावना से ग्रस्त होती चली गयी। और उनसे एक दूरी बनाने लगी। मैं उनके लिए सबसे लड़ नहीं पाई क्योंकि दूसरे बच्चों के पापा से उनकी तुलना करने लगी। पापा अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाते थे न मैंने उन्हें समझने का प्रयत्न किया।

मुझे याद है उस दिन मैं चुपचाप स्कूल के लिए निकल गयी। उनके साथ नहीं जाना चाहती थी। वैन चलने लगी तो देखा पीछे से पापा अपने थुलथुले शरीर के साथ वैन के पीछे मेरा टिफ़िन और पानी की बोतल पकड़े भाग रहे थे।

बाद में माँ ने बताया कि उन्होंने मेरे आने तक कुछ नही खाया, एक ही रट लगा रखी कि तू टिफ़िन नहीं ले गयी।

मेरे पत्थर दिल ने उनकी मासूमियत को समझा ही नहीं न माँ को समझ पाई की वो कितने प्रेम से पापा को रखती हैं।उन्हें कभी शर्म नहीं आती,वो हमेशा एक साय की तरह उनकी ढाल बनकर रहती थी।

अगले दिन मैं स्कूल जाने के लिए बैग खोजने लगी तो बैग मिला ही नहीं। दादा, दादी,माँ सब खोजने लगे बैग। बैग और पापा दोनों ही गायब थे। मैं चली न जाऊं तो पापा पहले ही बैग लेकर बाहर बैठे थे। सबको उनकी इस हरकत पर प्यार आया और मुझे खीज।मुझे लगता था कि कोई भी मेरी दिक्कत नहीं समझ रहा, मैं बहुत बड़े स्कूल में पढ़ रही थी। बच्चे पापा का मज़ाक बनाने लगे थे और मैं हीन भावना की शिकार हो रही थी। 

समय बीत रहा था। जेम्स,जो एक रिसर्च के चलते भारत आया था,पहले दोस्ती हुई फिर प्रेम और एक दिन मैं चुपके से माँ के नाम पत्र छोड़कर जेम्स के साथ ऑस्ट्रेलिया चली गयी, और उंससे विवाह करके वही बस गयी।

......शाम हो चली थी, अवंतिका ने घर की सफाई के लिए कुछ लोंगो को बुलाया था वो अपना कार्य करके चले गए थे। उसने पूरे घर मे लाइट जलाई, मंदिर में दिया बाती की और एक बार दादा, दादी सभी के कमरों में गयी और मन ही मन सभी से क्षमा माँगी। उन सभी के उपकारो को भूलकर उसने अपने सगे पिता की तरह आचरण कर उन्हें दुःख दिया था। 

अवंतिका माँ के कमरे में फ़िर से डायरी के पन्ने पलटने लगी।

... "तेरी दादी की बीमारी फिर उभर आई थी। उनके अंत समय में उनके चेहरे में डब्बू के लिए कोई चिंता नहीं थी। वो संतुष्ट थी की वो अब अकेले नहीं है। तुझे याद होगा,दादी ने अंत समय मे तुझसे कहा था" मम्मी पापा का ध्यान रखना"...... परंतु तू बिना हमारी परवाह किये उनके जाने के दो महीने बाद भाग गई। 

तेरे पापा उनकी मृत्यु को समझ नहीं पाए थे। घण्टो उनके बिस्तर पर चुपचाप बैठे रहते। कभी-कभी फ़ोटो देखकर पूछते थे कहाँ है अम्मा?... और तेरे जाने के बाद तो हमारे ऊपर पहाड़ ही टूट गया जैसे। तेरे पापा तुझे आवाज़ देकर पूरे घर में तुझे खोजते, जब नहीं दिखती तो तेरी गुड़िया लेकर बाहर चुपचाप झूले में बैठे रहते। पार्क में खेलते बच्चों को देखते रहते थे।

कहीं न कहीं वो सबकुछ महसूस कर रहे थे की घर खाली क्यों हुआ?इन दो घटनाओं ने तेरे दादा जी को भी तोड़ दिया था। दो साल बाद वो भी हमें छोड़कर गुजर गए। उनके जाने से मुझे गहरा सदमा लगा था। वो मेरे लिए पिता से बढ़कर ईश्वर समान थे। 

मैंने डब्बू को अकेला महसूस नहीं होने दिया। उनका पूरा ख्याल रखा। वो किसी के दिल का टुकड़ा और अमानत थी मेरे पास। सुबह शाम उन्हें सैर करवाती। उनके साथ बैठकर कभी पेंटिंग में साथ देती तो कभी दोनों पार्क में बैठकर बच्चो की मस्ती देखते रहते। और कुछ इसी तरह समय कटता चला गया। मैंने अपने अकेलेपन से समझौता कर लिया था। तू तो थी नहीं साथ तो मन की बातें इस डायरी में लिखती रहती ताकि एक दिन तुझे एहसास हो जिस पापा से तुझे शर्म आती थी उनके नाम की वजह से ही तू समाज में सम्मान से जी रही थी।

हम दोनों भी बुढ़ापे में थे, मैं चाहती थी डब्बू मेरे से पहले इस संसार से विदा हों परंतु ऐसा नहीं हुआ। मैं बीमार हो गयी और डॉ ने बताया मेरे पास सिर्फ तीन महीने का समय है। मैं डब्बू को लेकर वृद्धाश्रम में शिफ्ट हो गयी। एक दुःख रह गया कि डब्बू का अंत तक साथ न दे पाऊंगी।इस जन्म के नाटकीय जीवन में पर्दा गिरने का वक़्त आ गया था।

.....अवंतिका की अश्रुधारा बेहिसाब बह रही थी। ये डायरी उसतक उसी वृद्धा आश्रम चलाने वाली सपना दीदी ने उस तक पहुंचाई थी। साथ ही बताया था कि उसके पापा पेंटिंग में कुछ किरदारों को बनाते हैं जिसमें वो सभी को खुद से दूर जाते दर्शाते हैं।

अवंतिका सुबह होते ही वृद्धाश्रम की तरफ निकल गयी।बहुत सारे विचार उमड़ घुमड़ रहे थे उसके मन में।कैसे मिलूँगी उनसे,क्या ही पहचानेगे उसे,उसे देखकर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी?

सपना दीदी उसे गार्डन की तरफ ले गयी जहाँ उसके पापा अपनी रंगों की दुनिया मे डूबे थे। पंद्रह वर्ष पश्चयात वो थुलथुले शरीर वाला डब्बू उसके पिता बहुत कमजोर हो गए थे। बालो की सफेदी,हाथों की नसें और चेहरे की झुर्रियां अवंतिका को एहसास दिला रही थी कि उसने कितना कुछ खो दिया। वो परिवार में रहकर उन सब के लिए कितना बड़ा सहारा बन सकती थी सभी को कितनी खुशियां दे सकती थी परंतु वो उनके दुःख का कारण बन गयी।

वो धीरे से अपने पापा के पास बैठ गयी। और उनकी हथेली को कसकर पकड़ लिया।उसकी आँखों के आँसू काबू में नही थे। 

"पापा....... देखो इधर........मुझे पहचानो....आपकी अवु।"

डब्बू ने देखा लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और पेंटिंग बनाने में लगा रहा।

"आप सब को बोलते थे न, मैं इसका पापा हूँ ....आप मेरे पापा हो ....देखो।" डब्बू पर कोई असर नहीं हुआ। 

अवंतिका ने बैग से लालगाडी और बैट बॉल निकाला

" देखो, इससे हम दोनों कितना खेलते थे।"

अवंतिका अपने पिता के गालों को प्यार से सहला रही थी उनके माथे को चूम रही थी और क्षमा मांग रही थी। तभी सपना दीदी ने कहा..."उन्हें सब याद है ...देखो उनकी पेंटिंग की तरफ।"

अवंतिका ने जब उनकी बनाई पेंटिंग की तरफ देखा तो खुशी के मारे हैरान रह गयी।

खुद के एक हाथ में एक छोटी लड़की के हाथ को पकड़ा हुआ दिखाया तो दूसरे हाथ से स्कूल बैग और पानी की बोतल। दादा,दादी और माँ को दूर पीछे बाय- बाय करते हुए दर्शाया। उनके अंतस में उनका परिवार और उनसे उनका लगाव अभी भी जुड़ा हुआ था। 

अवंतिका शर्मिदा थी पश्चताप के आँसू निर्झर बह रहे थे। वो सोचने लगी एक सामान्य इंसान अपनो को भूल जाता है, अपने रिश्तों में स्वार्थ के चलते कटुता घोल लेता है और एक असामान्य इंसान का ह्रदय कितना निश्छल, निष्कपट और प्रेम से भरा हुआ होता है, बस उन्हें समझने वाला चाहिए। 

अवंतिका उन्हें अपने साथ उनके घर वापस ले आई इस संकल्प के साथ कि अपने जीवन के तीन स्तम्भ दादा-दादी और माँ की अमूल्य निधि की देखरेख आज से उसकी जिम्मेदारी होगी। पंद्रह वर्षों का प्यार, दुलार शेष बचे हुए वर्षों में उड़ेल देगी। उसने अपने पति और बच्चों को भी यही बुला लिया। और उस घर को एक बार फिर से आबाद कर दिया। डब्बू अब नाना के किरदार में थे और घर के आत्मीय सुकून को महसूस कर रहे थे।

.अवंतिका ने माँ की डायरी के अंत में लिखा कि "माँ पर्दा गिरा नहीं है अभी, जीवन रूपी नाटक की कुछ किश्तें और बढ़ गयी हैं....एक सुखद अंत की ओर।"


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