Savita Negi

Inspirational

4  

Savita Negi

Inspirational

माँ का बगीचा

माँ का बगीचा

8 mins
273


"मेरा बगीचा सूख गया है सरोज। गमलों में भी कई दिनों से पानी नहीं डाला किसी ने। सारे पौधे मुरझा गए, कई बार बोल दिया ....किसी के पास समय ही नहीं।"


"कोई नहीं माँ शाम को मैं और मधु आ जाएंगे और पूरा बगीचा सही कर देंगे।"


"ठीक है।"


सरस्वती ने कराहते हुए अपनी बड़ी बेटी सरोज से मन की व्यथा कही ।


पेड़ पौधों का अति शौक रखने वाली सरस्वती कुछ दिनों से  गंभीर बीमारी से जूझ रही थी। जितना शौक उन्हें पौधों से था उतना ही घर की साफ सफ़ाई का। आराम करना उनको बिल्कुल पसंद नहीं था। इसके लिए कभी अपनी बहु आशा के ऊपर निर्भर नहीं रही ।खुद ही घर की साफ- सफाई और बगीचे में लगी रहती थी। पति के देहांत के पश्चात तो जैसे उनकी दुनिया इन्हीं पौधों और खिलते महकते फूलों में रच बस गयी थी। 


उनकी मेहनत का ही फल था कि हर आने -जाने वाला उनके बगीचे को देखकर मंत्र मुग्ध हो जाता था। बसंत 

की तैयारी सरस्वती के लिए किसी उत्सव से कम न होती थी। हर तरह के फूलों की रोपाई, गुड़ाई खाद पानी की देखभाल के साथ उस बसंत ऋतु का बेसब्री से इंतजार जब उनके बगीचे में और वहाँ सलीके से सजे गमलों में उनकी मेहनत  मन मोह लेने वाला सौंदर्य बिखेरती हुई मुस्करा उठेगी। जिस गमले में जिस रंग का फूल होता वो गमला भी उसी रंग में रंगा होता। हरे- भरे पौधों के मध्य रंग- बिरंगे फूल पूरे घर में सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत थे। सरस्वती के लिए तो मानो ये उसके दोस्त और बच्चों से कम न थे। उन्हीं की देखभाल, प्यार और समर्पण से वे सब जीवंत थे और दोनों के बीच मानो एक अद्भुत शीतल बयार जैसा वार्तालाप निरंतर चलता रहता हो।


परंतु ईश्वर ने बीमारी देकर उनका ये शौक भी छीन लिया था। सरस्वती खुद को असहाय महसूस करती हुई खिड़की से सटे बेड में बैठे -बैठे अपना बगीचा ही देखती रहती थी। अपनी स्थिति को देखते हुए उन्हें लगने लगा था कि अब के बसंत उसके आंगन न आएगा।


शाम को गेट पर स्कूटी रुकने की आवाज़ आई तो देखा सरोज और छोटी बहन मधु आये थे। जो उसी शहर में रहते थे। आते ही दोनों माँ से मिले और फिर बगीचे की साफ सफाई में लग गए। मधु ने पेड़ पौधों की गुड़ाई करके खाद डाल दी तो सरोज ने सूखे पत्तों को हटाकर सब जगह पानी दे दिया।


इतने में आशा दो तीन बार खिड़की से झाँक कर चली गयी थी।


थोड़ी देर में आशा ने कहा "क्या करूँ दी समय ही नहीं मिलता बच्चों के साथ । सुबह स्कूल ,खाना ,बर्तन और फिर होमवर्क। पूरा दिन ऐसे ही निकल जाता है। और वैसे भी मुझे इन पेड़ पौधों का बिल्कुल भी शौक नहीं है।"


"अरे नहीं!! आपको कहाँ कुछ बोल रहे हैं भाभी। हम तो खुद आकर साफ कर देते हैं । माँ की जान बसती हैं इन पेड़ पौधों में। आप तो जानती हो न अभी वो लाचार हैं कुछ नहीं कर सकती । उनके मन को तसल्ली हो जाएगी कि उनके लगाए पौधों की देखभाल हो रही है।


वैसे भी ....कोई बहुत बड़ी बात तो नहीं है बगीचे में पानी देना। कभी- कभी दूसरों की खुशी के लिए कुछ करने में आनंद ही मिलता है। फिर ये तो हमारी माँ हैं और इस आँगन में हमारा बचपन बीता है। हमारे बच्चे भी बड़े हो गए तो हमको समय मिल जाता है इसलिए आ जाते हैं ।"


ये पहली बार नहीं था। अक्सर सरोज और मधु माँ के कहने पर आ जाते थे । इसी बहाने कभी रसोई तो कभी माँ के कमरे की सफाई कर दिया करते थे। क्योंकि आशा को न सफाई ज्यादा पसंद थी और न बागवानी का शौक था । अक्सर बोलती रहती कि इतना भी क्या रगड़ना ठीक तो है।


दोनों अपनी माँ की पसंद को जानते थे । जब तक स्वस्थ थी खुद लगी रहती थी । परंतु अब बीमारी की वजह से नहीं कर सकती थी तो उन्हें खुश रखने के लिए दोनों कर देती थी। सरस्वती कई बार आशा को भी बोलती थी कि घर साफ रखा करो या बगीचे में पौधों की देखभाल भी कर दिया करे परंतु वो हर बार टाल जाती थी ये कहकर की समय नहीं मिलता।


इसलिए सरस्वती उससे कुछ उम्मीद नहीं रखती थी न ही उसे कुछ बोलती थी । ये सोचकर कि क्यों घर का माहौल खराब करना।


इसलिए मन की बात बेटियों को ही बोलती थी। और बेटियाँ माँ के दिल की बात समझ भी जाती थी।...


आशा का चेहरा उतर गया था। ननदों को काम करता देख कमरे में जाकर पति विक्रम के सामने भड़क गई।


" क्या सफाई- सफाई लगी रहती हैं तुम्हारी माँ बहने? यहाँ आकर काम करके जाने का क्या मतलब है? सिर्फ और सिर्फ मुझे नीचा दिखाना। बोलती भले कुछ नहीं हैं, लेकिन काम करके जता जाती हैं कि मैं कुछ नहीं करती।


इन माँ बेटी का परोक्ष रूप से मारा गया ताना मेरी समझ में अच्छे से आता है।


मुझे बिल्कुल पसंद नहीं इनका इस तरह घर में आकर साफ सफ़ाई करना या बगीचे में नौटंकी करना । ये अपना घर संभाले न। ये घर मेरा है इसको कैसे रखना है ये मेरी मर्जी। आप समझा दो अपनी बहनों को। मैं इस घर की बहू हूँ ,यहाँ मैं अपने हिसाब से रहूँगी। मैं किसी दूसरे की मर्जी से न काम करूँगी न रहूंगी। ज्यादा परेशानी है तो एक कामवाली लगा देंगे, लेकिन ये अपने ससुराल में करें जो करना है।"


सरोज और मधु ने भाभी के ऊँचे स्वर सुन लिए थे।


"आपका ही घर है भाभी , हमने कब इसमें अपना अधिकार जमाया? जगह- जगह जाले लगे हैं। आपके बच्चों ने पूरे घर की दीवारों में पेंसिल से ड्रॉइंग बना रखी है। पर्दे जगह- जगह से रिंग से निकल कर लटके पड़े हैं। रसोई में डब्बे चिपचिपाहट से भरे हैं। बाथरूम फिसलन भरा हो रखा है। आपके बच्चे भी फिसल सकते हैं। फूल ,पेड़- पौधे बिना खाद पानी के मुरझा गए। क्या आपको अपना घर ऐसा उजड़ा हुआ अच्छा लगता है?


वर्षों पहले अपने गहने बेचकर माँ ने इस घर की नींव रखवाई थी। इस मकान को अपने स्नेह से ,मेहनत से और देखभाल से इसे सजा संवार कर मकान से घर बनाया था । आज उसकी दुर्दशा देखकर उनका मन तो दुखी होगा ही न। क्योंकि ये घर आपसे पहले उनका है।


अगर इस घर को दिल से अपना मानती तो अपनेपन से इसे सजाती संवारती भी न।


हमारा काम करना आपको इसलिए अखरता है क्योंकि जो काम आपको करना चाहिए था वो हम आकर कर देते हैं।


आप दोनों से पहले ये घर हमारे मम्मी- पापा का है। जब तक वो हैं तब तक हमें कोई नहीं रोक सकता इस घर में आने से। पापा तो रहे नहीं ,जब तक माँ हैं हम पूरे हक़ से आएंगे ।


हम यहाँ आपको नीचा दिखाने नहीं आते बल्कि अपनी बीमार माँ की ख़ातिर आते हैं। न जाने उसकी झोली में कितनी साँसे बाकी हैं । माँ से मायका और बेटियों से माँ संग बंधी भावनात्मक डोर को तो आप भी बखूबी समझती होंगी।


आशा और विक्रम दोनों चुपचाप सर झुकाए बैठे रहे। आशा ने आगे बढ़कर सरोज और मधु से अपने कहे के लिए तुरंत क्षमा मांगी।


...दो महीने बाद ही मायके से जुड़ी माँ की ममतामयी कड़ी भी देह त्याग कर हमेशा के लिए दूसरे लोक की यात्रा में निकल गयी और उस घर के बसंती सौंदर्य को भी अपने साथ ही ले गयी। वो मंत्र मुग्ध कर देने वाला बगीचा अपने माली के बिना उदास, प्राणहीन सा अस्त-व्यस्त पड़ा था।


एक महीने बाद सरोज और मधु मायके आये तो देखा कि माँ का बगीचा उजड़ा पड़ा था । उसकी खुदाई चल रही थी क्योंकि बगीचे की जगह को पूरा सीमेंटेड कराया जा रहा था।


"वो दीदी सीमेंटेड कराने से साफ सुथरा लगता है। बरसात में सांप का खतरा भी नहीं रहता और फालतू झाड़ियों से मच्छर भी नहीं होते। । बच्चों के लिए भी सही रहेगा।" विक्रम ने कहा।


"जो करना है करो , हम तो अपना हिस्सा लेने आये हैं।" सरोज ने कहा।


ये सुनते ही आशा और विक्रम का चेहरा फ़क पड़ गया


"कैसा हिस्सा दी?" आशा ने थूक का घूँट अंदर करते हुए अपनी शंका को ज़ाहिर किया।


"घबराओ मत जमीन ,जायदाद या घर का हिस्सा नहीं। वो आप लोग रखिये । उस पर आपका ही अधिकार है। हमें तो वो गमले दे दो जिसमें माँ की जान बसती थी । उनकी देखभाल से माँ के नज़दीक होने का एहसास बना रहेगा । "


गमलों को छत में एक तरफ सूखने के लिए फेंका हुआ था । सच भी था जिसको इनसे लगाव था वो अब दुनिया में नहीं थी जिसको लगाव नहीं था उनके लिए ये पहले से ही निर्जीव थे।


"पहले की तरह ही आते रहना दी ।" आशा और विक्रम ने दोनों बहनों का हाथ थाम कर कहा।


" माँ के लालच में आते थे और अब तो उनको अपने साथ ही ले जा रहे हैं, इन गमलों के रूप में ।तुम लोग माँ की तरह प्यार से बुलाओगे तो मायके के लालच में आते रहेंगे।"


सरोज और मधु अपनी माँ को इन फूल-पौधों के रूप में फिर से जीवंत करने के लिए अपने साथ ले गए। अपने आँगन में सप्रेम पंक्तिबद्ध सजा दिए। जैसे उनकी माँ रखती थी। माँ की तरह ही  देखभाल, खाद पानी और स्नेह लुटाकर वो दोनों भी बसंत ऋतु के आगमन का बेसब्री से इंतजार करने लगे । बेजान हो चुके पौधों में नई नई कोंपलें निकलने लगी और फूलों की डालियों में नन्ही कलियां उगने लगी। बसंत ने पुनः अपने आने का संकेत दे दिया था। जैसे जैसे बसंत ऋतु अपने पूर्ण सौंदर्य को चरम पर ले जा रही थी वैसे वैसे मधु और सरोज के आँगन में माँ उन हरे-भरे लहलहाते पौधों और खिले रंग बिरंगे फूलों में मुस्करा रही थी। 

 


माँ पिता की यादें तो मन को ठीक उसी तरह आलोकित किये रहती हैं जिस तरह मंदिर में निरंतर जलते हुए दीये कि लौ। हर बसंत में ये खिले हुए फूल सरोज और मधु को अपनी माँ की उपस्थिति का एहसास अपने आस-पास यूँ ही कराते रहते थे।


धन्यवाद



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational