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Dinesh Divakar

Horror Thriller

4  

Dinesh Divakar

Horror Thriller

परछाई

परछाई

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थका हुआ सूरज जैसे ही शाम के आख़िरी धागों को खींचता हुआ क्षितिज के पीछे खो गया, अर्जुन की कार उसके पुराने किराए के मकान के सामने रुकी। दिन भर ऑफिस की भागदौड़, ट्रैफिक और बॉस की डांट से परेशान अर्जुन बस एक चीज़ चाहता था – शांति।

वह कार से उतरा, गेट खोला, और सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ अपने फ्लैट तक पहुँचा। ऊपर पहली मंज़िल पर उसका अपार्टमेंट था। पुराने मकान की दीवारों पर सीलन थी, खिड़कियाँ अक्सर अपने आप खुल जाती थीं, और सीढ़ियाँ चढ़ते हुए लकड़ी की पट्टियाँ कराह उठती थीं।

लेकिन अर्जुन इन सबका आदी हो चुका था। उसने जैसे ही अपने अपार्टमेंट का दरवाज़ा खोला, अंधेरा उसे निगलने को तैयार खड़ा था। बिजली की सप्लाई तो थी, लेकिन उसने आदतन लाइट का स्विच ऑन करने के लिए दाएँ हाथ से टटोलना शुरू किया।

लेकिन... स्विच बोर्ड पर पहले से ही एक और हाथ था।

ठंडा... बर्फ की तरह ठंडा...

अर्जुन का हाथ वहीं रुक गया। दिल की धड़कन जैसे किसी ने जबरदस्ती थाम ली हो। उसने कुछ सोचने की कोशिश की, कोई तर्क देने की – शायद उसकी अपनी ही परछाईं? लेकिन नहीं... वह स्पर्श वास्तविक था।

फिर, अंधेरे में कुछ हरकत हुई। उसने देखा – एक दूसरा अर्जुन उसके सामने खड़ा था। उसी जैसे बाल, वही कपड़े, वही चेहरा... लेकिन उसकी आँखें... वे आँखें पूरी तरह काली थीं, जैसे पुतलियाँ निगल ली गई हों।

"मैं बहुत इंतज़ार कर चुका हूँ..." उस परछाईं जैसी आकृति ने धीरे से कहा, उसकी आवाज़ मानो दो लोगों की फुसफुसाहट को मिलाकर बनी हो।

अर्जुन एक झटके में पीछे हटा, लेकिन दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। कमरा अब पूरी तरह बंद था। बाहर की रोशनी गायब थी।

"तू कौन है?" अर्जुन की आवाज़ काँप रही थी।

"तू..." उस आकृति ने जवाब दिया, "मैं वही हूँ जो तू छुपा आया था... वही, जो तू भूल गया... लेकिन मैं तुझे नहीं भूला।"

अर्जुन की साँसें उखड़ने लगीं। वह दीवार पकड़कर खड़ा रहा। अचानक दीवारों पर छायाएँ घूमने लगीं। हर कोना, हर चीज़ उस पर हँस रही थी। और वो परछाईं – वह तो जैसे अर्जुन की आत्मा को पढ़ रही थीकमरे का अंधेरा अब केवल अंधेरा नहीं था – वो कुछ और बन चुका था।
कुछ ऐसा जो साँस लेता था... जो घूरता था।

अर्जुन ने उस परछाईं जैसे दूसरे "स्वयं" को ध्यान से देखा। वह उसकी हर हरकत की नकल कर रहा था लेकिन कुछ सेकंड देर से। जैसे वह पहले से ही जानता हो कि अर्जुन अब क्या करेगा।

"मैं पागल नहीं हूँ... मैं थका हुआ हूँ... बस थक गया हूँ,"
अर्जुन बुदबुदाया। उसने मोबाइल निकाला लेकिन कोई नेटवर्क नहीं था। वो स्क्रीन अचानक सफेद हो गई, और उस पर सिर्फ एक वाक्य चमक रहा था "तू कहाँ भागेगा जब दरवाज़े अब तुझे नहीं पहचानते?"

कमरे की दीवारें अब कुछ कहने लगी थीं। नहीं, बोलने नहीं – फुसफुसाने। "तू आया... तू आया... फिर से वही गलती...अब ये घर तेरा नहीं... अब दरवाज़ा तेरे लिए नहीं खुलेगा..."

अर्जुन ने साहस कर के उस परछाईं से पूछा,
"तू... आखिर चाहता क्या है?"

परछाईं मुस्कराई, लेकिन वह मुस्कराहट मानो किसी मृत चेहरे की हो। "मैं तुझसे वो सब लूंगा... जो तूने मुझसे छीना। तेरी पहचान... तेरी हँसी... तेरी दुनिया... सब।
अब तू अंधेरे में रहेगा, और मैं बाहर।"

अर्जुन एक झटके में बगल के कमरे की ओर भागा।
कमरे का दरवाज़ा खुला तो नहीं, टूट कर गिर गया।

कमरे में वह सब चीजें थीं जिन्हें उसने सालों से छुपाया था पुरानी तस्वीरें, एक टूटा हुआ आइना, और एक पुरानी डायरी।

डायरी का पहला पन्ना खुद अर्जुन की लिखावट में था:
"अगर मैं कभी खुद को भूल जाऊँ... तो यह याद रखना कि मेरा एक हिस्सा अंधेरे में बंद है... और वह भागना चाहता है।"

अर्जुन की आँखें चौड़ी हो गईं। "ये सब मैंने लिखा था?" उसे कुछ याद नहीं था... क्या वाकई? या वो बस मान बैठा था कि सब ठीक है?

परछाईं अब कमरे के बाहर खड़ी थी। "याद आ रहा है?" वह बोली। "मैं वहीं बंद था... तुझमें... तेरे डर में... तू भागा... तू छुपा... लेकिन अब मैं बाहर हूँ।"

अर्जुन के चारों ओर की चीज़ें काँपने लगीं। दीवारों से खून रिसने लगा, और आइना खुद-ब-खुद चटक गया।

"नहीं! मैं ये नहीं मानता!" अर्जुन ने चिल्ला कर आइना उठाया और परछाईं की ओर फेंका।

आइना जैसे ही परछाईं से टकराया  एक तेज़ चीख गूंजी। लेकिन परछाईं गायब नहीं हुई। वह अब अर्जुन के पीछे खड़ी थी। उसने धीरे से अर्जुन के कंधे पर हाथ रखा वही ठंडा स्पर्श।

"अब तेरा समय है... आईने के उस पार जाने का..."

अर्जुन पलटा, लेकिन अब वहाँ कोई नहीं था। केवल वही टूटा हुआ आइना... जिसमें अब उसका अक्स नहीं दिख रहा था। सिर्फ वो परछाईं... जो अब आइने के अंदर थी – और अर्जुन बाहर नहीं।

कमरा शांत था, असहज और अजीब तरह की शांति से भरा हुआ। आईना अब पूरी तरह से टूट चुका था, लेकिन उसकी सतह पर कुछ हलचल सी थी जैसे पानी की सतह पर किसी ने साँस ली हो।

अर्जुन का शरीर वहीं फर्श पर पड़ा था  स्थिर, सुन्न, और निर्जीव जैसा। लेकिन उसकी आँखें खुली थीं। वो देख रहा था… लेकिन कहाँ? 

अर्जुन अब आईने के अंदर था। आईने की दुनिया वैसी नहीं थी जैसी हमारी है। यह एक उल्टी, गूंगी और ठंडी दुनिया थी जहाँ समय रुका हुआ लगता था।

अर्जुन ने खुद को एक लम्बे गलियारे में खड़ा पाया,
जिसकी दीवारें उसकी ही तस्वीरों से ढँकी हुई थीं मुस्कराते हुए, डरते हुए, रोते हुए… और एक में तो वो जल रहा था।

उसने आगे बढ़ना शुरू किया, हर कदम के साथ उसके पैरों के नीचे की ज़मीन दरकती थी, जैसे वो उसे अंदर खींच लेना चाहती हो।

एक दरवाज़ा सामने थ पुराना, लकड़ी का, लेकिन उस पर खून से लिखा था "यहाँ तेरी सच्चाई है।"

उसने दरवाज़ा खोला। अंदर एक छोटा सा कमरा था, और उसमें एक कुर्सी पर वही परछाईं बैठी थी अब बिल्कुल इंसान जैसी लग रही थी। उसके हाथ में अर्जुन की पुरानी डायरी थी, जिसे वह पढ़ रहा था जैसे वो कोई मज़ाकिया उपन्यास हो।

"आ गया तू?" परछाईं बोली। "बहुत देर कर दी… अब तेरा शरीर मेरा है। तू अब सिर्फ यादों में रहेगा, और वो भी सिर्फ मेरी।"

अर्जुन चुप था। परछाईं ने डायरी बंद की और कहा, "लेकिन एक मौका है तेरे पास। अगर तू अपनी सबसे बड़ी गलती कबूल कर ले, तो शायद ये आईना तुझे माफ कर दे।"

"म…मुझे नहीं पता," अर्जुन फुसफुसाया।

"झूठ!" परछाईं गरजी। "तू जानता है। वही हादसा... जिसकी वजह से तू आज तक चैन से नहीं सो पाया।"

अर्जुन काँपने लगा। उसे वो दिन याद आने लगा कार एक्सिडेंट… एक बच्चा…
उसकी चीख… और अर्जुन का भाग जाना।

"मैं डर गया था," वो बुदबुदाया। "मैं रुक सकता था… शायद उसे बचा सकता था…"

परछाईं ने उसकी आँखों में झाँका। "और तू तब से हर आईने में खुद से भागता रहा। अब तू भाग नहीं सकता। या तो सच्चाई को अपनाओ, या हमेशा के लिए यहाँ रहो।"

अर्जुन घुटनों पर गिर पड़ा।

"मुझे माफ कर दो… मैंने बहुत बड़ी गलती की थी… मैं भुगतने को तैयार हूँ…"

आईने की सतह काँपने लगी। एक तेज़ सी चीख गूंजी लेकिन वो दर्द की नहीं, मुक्ति की थी।

आईना फट गया। अर्जुन की आँख खुली वो अब फर्श पर पड़ा था। असली दुनिया में। आईना टूटा हुआ था, और परछाईं… गायब थी।

लेकिन अब आईने में जो अक्स दिखा… वो सिर्फ अर्जुन का था। पूरी तरह से।

अर्जुन ज़मीन पर पड़ा हाँफ रहा था। कमरे में हल्का उजाला था, आईने की टूटी किरचें इधर-उधर बिखरी थीं और दीवारों पर परछाइयों का कोई नामोनिशान नहीं था।

सब कुछ… सामान्य लग रहा था। लेकिन क्या ये सच था?

वो धीरे-धीरे उठा। घबराए हाथों से अपने चेहरे को छुआ। साँसें चल रही थीं, दिल धड़क रहा था, और उसकी परछाई अब सिर्फ वो खुद थी।

अर्जुन ने अपने चारों ओर देखा सब वैसा ही था, लेकिन एक अजीब सी बात ने उसका ध्यान खींचा…

उसकी घड़ी उल्टा चल रही थी।

"नहीं... ये कैसे हो सकता है?" उसने घड़ी उतारकर देखा।

घड़ी की सुइयाँ पीछे की ओर दौड़ रही थीं जैसे समय उलट रहा हो। और तभी दीवार पर लगे घड़ी के पास एक नई दरार बनती दिखी आईने जैसी चमकती हुई दरार।

उसने उस पर हाथ रखा… चटक!

दरार फैल गई और दीवार खुल गई पीछे एक और कमरा था… एकदम अंधेरा, एकदम ठंडा।

वो काँपता हुआ उस कमरे में घुसा। कमरे के बीचोंबीच एक कुरसी थी  उस पर कोई बैठा था।

"कौन है वहाँ?" अर्जुन ने कांपती आवाज़ में पूछा।

आवाज़ आई  "अर्जुन, क्या तू सच में सोचता है कि सच्चाई कबूल करने से सब कुछ खत्म हो जाएगा?"

अर्जुन पीछे हटने लगा, लेकिन कमरे का दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। अब वो फँस चुका था। वो कुर्सी पर बैठी आकृति उठी। अंधेरे से बाहर आई और अर्जुन की आँखें फैल गईं…

वो खुद था। लेकिन पुराना अर्जुन वो जो झूठ के साथ जीता रहा, वो जो सच्चाई से भागा, वो जो हादसे के बाद सब कुछ भूलने का नाटक करता रहा।

"मैं तेरा वो हिस्सा हूँ जिसे तूने दबा दिया, छुपा दिया… लेकिन मैं मरता नहीं अर्जुन। मैं तेरे साथ ही जिंदा रहूँगा… हर आईने में, हर परछाईं में…"

वो "दूसरा अर्जुन" आगे बढ़ा और बोला "अब एक आखिरी विकल्प है — या तो मुझे स्वीकार कर ले… हमेशा के लिए… या फिर इस कमरे में हमेशा के लिए बंद हो जा।"

अर्जुन की साँसें तेज हो गईं। कमरे की दीवारें सिकुड़ने लगीं… छत नीचे झुकने लगी… और आईने में फिर वही डरावनी शक्लें उभरने लगीं।

वो घुटनों पर गिरा… और बुदबुदाया "मैं तेरे बिना अधूरा हूँ… और अधूरे में भी जी लूँगा, लेकिन तू अब मेरा हिस्सा नहीं बनेगा!"

एक तेज़ सी रोशनी चमकी जैसे कोई विस्फोट हुआ हो।
अर्जुन की आँखें खुलीं इस बार असली दुनिया में, अस्पताल के बिस्तर पर। डॉक्टर कह रहे थे कि वो 12 घंटे बेहोश था, बेहोशी के दौरान बड़बड़ाता रहा, काँपता रहा।

लेकिन अब… शांत था।

उसके पास आईना था उसने खुद को देखा। बस वही था। कोई परछाईं नहीं। कोई दूसरा अर्जुन नहीं। सिर्फ वो… और उसका सच।


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