ख़ामोशी की रसोई
ख़ामोशी की रसोई
मैं खाना बनाना पसंद करता हूँ। खासकर अपने परिवार के लिए। माँ हमेशा कहती थीं "अगर दिल से बनाओगे, तो खाना हर ज़ख्म भर देगा।" मुझे लगा, वो ठीक कहती थीं।
पापा इतने बुरे नहीं थे, शायद। वो चिल्लाते थे, कभी कभी हाथ भी उठाते, पर… शायद वो बस थक गए थे ज़िंदगी से। या मुझसे। माँ की मौत के बाद सब बदल गया था।
तीन दिन पहले... मैंने पापा के लिए उनका पसंदीदा मटन बनाया था। धीमी आँच पर, मसालों के साथ पकाया बिल्कुल वैसे जैसे माँ बनाती थीं। पर इस बार कुछ अलग था...
मांस ज्यादा टाइट लग रहा था, थोड़ा रबड़ जैसा... शायद मैंने उसे ज़्यादा पका दिया था।
“क्या तुम्हें पापा की याद आती है?” मेरे मन ने पूछा।
मैं मुस्कुराया। "कभी-कभी..."
रसोई में रखा फ्रिज आज भी उसी आवाज़ से गूंज रहा है... हल्का सा कर्र... कर्र... और अंदर रखे "leftovers" तीन डिब्बे, ठीक से लेबल किए हुए:
Father (Leg – Overcooked)
Father (Ribs – Tender)
Father (Heart – Undercooked, Slightly Bitter)
पड़ोसी अक्सर कहते हैं "तुम्हारे घर से अजीब गंध आती है, लेकिन हर बार जब हम खाने आते हैं स्वाद लाजवाब होता है।"
मैं मुस्कुराता हुआ "माँ की रेसिपी है।"
माँ हमेशा कहती थीं "दिल से बनाओ बेटा… और कभी भी खाना बर्बाद मत करना।" ...मैंने कभी कुछ बर्बाद नहीं किया।

