Good Night
Good Night
"मैंने अपनी पत्नी को गुडनाइट कहा, बेटी को तकिये में लपेटा, और जैसे ही आंखें बंद कीं…"
सब कुछ अचानक शांत हो गया। एक घना अंधेरा… इतना घना कि उसमें अपनी सांसें भी डर से काँपने लगीं। लेकिन फिर… “डैडी…” एक धीमी, मासूम सी आवाज़ आई।
मैं मुस्कुराया। "सो जा परी…" मैंने धीरे से कहा।
उसने मेरी उंगली थाम ली थी। गर्म, नर्म, और सच्ची।
लेकिन अगली सुबह… जब मेरी आंख खुली… तो सामने ना बेटी थी, ना वो बिस्तर, ना वो घर। सफेद दीवारें। सफेद छत। एक चमकती सी लाइट, जो मेरी आंखों को चुभ रही थी।
मेरी आँखें फटी की फटी रह गईं।
“क्या… क्या मैं सपना देख रहा हूँ?” मैंने खुद से फुसफुसाते हुए पूछा।
दरवाज़ा नहीं था… बस एक मोटा, अजीब-सा लोहे का गेट, जिसपर एक छोटी सी खिड़की थी – और उसके पीछे से कोई मुझे देख रहा था।
वो नर्स थी। सफेद कपड़े, चेहरे पर एक नकली मुस्कान… और आंखों में अजीब-सी उदासी।
"गुड मॉर्निंग, मिस्टर आकाश," उसने नर्म लहजे में कहा। "आपने फिर वही सपना देखा, है ना?"
मैं सन्न रह गया। “तुम… तुम कौन हो? ये कहाँ हूँ मैं? मेरी बीवी… मेरी बेटी… वो कहा हैं?”
नर्स थोड़ी देर चुप रही। फिर उसकी मुस्कान फीकी पड़ गई। "ये आपका 346वाँ दिन है यहाँ। और वो… कोई नहीं हैं।"
मेरा सिर घूम गया।
"नहीं!" मैं चिल्लाया। "मैंने उन्हें देखा… मेरी बेटी की मुस्कान… मेरी पत्नी की ख़ुशबू… उनका छूना… सब असली था!"
मैं गेट की तरफ़ दौड़ा, लेकिन मेरे हाथ रस्सियों से बंधे थे।
"तुम झूठ बोल रहे हो! वो सपना नहीं था! वो मेरी ज़िंदगी है!"
और तभी डॉक्टर आया। उसे देखकर ऐसा लगा जैसे हवा और भी भारी हो गई हो। एक लंबा, पतला, बर्फ़ सा ठंडा चेहरा… आँखें ऐसी जो सब कुछ देखती हैं, पर कुछ नहीं बतातीं।
“मिस्टर आकाश,” उसने कहा।
“आप भूलने से डरते हैं, इसलिए आपकी यादें आपको सज़ा दे रही हैं।”
मैं हँस पड़ा। पागलों की तरह।
"तुम डॉक्टर नहीं हो… तुम कुछ छुपा रहे हो।"
"मुझे पता है… वहाँ खिड़की के उस पार मेरी ज़िंदगी है।"
उसने मुझे एक फ़ाइल दी। उसमें मेरी तस्वीरें थीं। मुझे दीवारों से टकराते हुए, अपने आप से बातें करते हुए, अपने हाथ काटते हुए।
और सबसे खौफनाक चीज़… एक फोटो में मैं था बिलकुल उसी ड्रेस में, जैसे कल रात सोया था।
और सामने कुर्सी पर एक पुरानी टूटी गुड़िया थी, वही गुलाबी फ्रॉक वाली, जो मेरी बेटी को पसंद थी। कैसे हो सकता है ये?
रात आई।vमेरी आँखें नींद में भारी थीं, लेकिन दिल जाग रहा था। दीवारों में सरसराहट थी। जैसे कोई रेंग रहा हो। गेट के पार से कुछ आहटें आईं।
"डैडी…" वही आवाज़… वो मासूम धीमी आवाज़…
मेरी आँखों से आंसू बह निकले। "परी… मेरी बच्ची… मैं आ रहा हूँ बेटा…"
मैंने खुद को बंधन से छुड़ाने की कोशिश की। और तभी… वो खिड़की खुल गई।
उसके पीछे एक चेहरा था। सिर्फ़ आँखें दिख रही थीं। वो मेरी बेटी नहीं थी…vवो कोई और था। कोई… परछाईं जैसा। उसने फुसफुसाया "आकाश, तुम्हें याद है, तुमने क्या किया था?"
मैं चौंका। "मैंने?… क्या किया?"
वो आँखें अब चमक रही थीं। "क्या तुम भूल गए? तुमने अपनी बीवी और बेटी को खुद जलाया था…"
"नहीं.......!!!" मैं दीवारों से टकरा गया। मेरे गले से चीखें निकल रही थीं।
“झूठ है! झूठ है! मैंने ऐसा कुछ नहीं किया… मैंने उन्हें प्यार किया… हर दिन… हर रात…”
लेकिन दीवारों पर अब उनके जले हुए चेहरे उभर रहे थे।
बीवी की झुलसी हुई मुस्कान… बेटी की अधजली गुड़िया…
"तुमने गैस छोड़ी थी, और फिर खुद सो गए थे… पूरे घर में आग लग गई थी…"
और तभी… मुझे याद आया। वो रात… गैस… दरवाज़ा खुला छोड़ दिया था… और वो दोनों अंदर थीं।
मैं ज़मीन पर गिर पड़ा। "मैं राक्षस हूँ… मैं नहीं जीना चाहता…"
लेकिन किसी ने मेरी पीठ पर हाथ रखा। वो वही नर्स थी। “इसलिए तुम हर रात वो सपना देखते हो… लेकिन खिड़की के उस पार सच्चाई है, आकाश… और वो तुम्हें बुला रही है।”
कमरे की दीवारें आज कुछ ज़्यादा ही सफेद लग रही थीं। जैसे किसी ने जानबूझकर उन पर सारे रंग निचोड़ दिए हों, ताकि आकाश भूल जाए कि ज़िंदगी में कभी उजाला भी था।
वो खिड़की... अब भी वहाँ थी। और उस पार... उसकी बीवी और बेटी।
कमरे के कोने में बैठा आकाश काँपते हाथों से अपनी कलाई पर निगाहें गाड़े हुए था। पतली पट्टी से बँधी नसें, जैसे सवाल कर रही हों “कब तक और?”
उसकी आँखें लाल थीं। नींद... अब उसकी मेहमान नहीं रही।
उसने आज फिर खिड़की के उस पार देखा। इस बार उसकी बीवी मुस्कुरा नहीं रही थी। वो बस खड़ी थी ठंडी आँखों से, जैसे उसकी आत्मा सड़ चुकी हो। और उसकी बेटी… छोटे हाथों में लाल गुड़िया थामे हुए, आकाश की तरफ इशारा कर रही थी।
लेकिन... खिड़की दूसरी मंज़िल पर कैसे थी? वो तो जानता था ये कमरा बेसमेंट में है।
“ये कैसे हो सकता है?” उसने खुद से पूछा।
खिड़की में दिख रही दुनिया क्या असली थी? या बस उसका मानसिक भ्रम?
अचानक दरवाज़े के नीचे से कुछ बहता हुआ दिखा। गाढ़ा... चिपचिपा... और लाल।
आकाश पीछे हट गया। साँसे तेज़ होने लगीं। गर्दन में पसीना ठंडा हो चला था।
उसने झुककर देखा। ये खून था... साफ़ खून।
"यहाँ कोई है!" उसने दीवार पर लगी बेल बजाने की कोशिश की।
कोई जवाब नहीं। लेकिन फिर एक आवाज़ आई दरवाज़े के उस पार से। “तुमने क्या किया था, आकाश?”
वो आवाज़ किसी अनजान की नहीं थी। वो उसकी माँ की आवाज़ थी। पर माँ तो पाँच साल पहले मर चुकी थी...
कमरे की दीवारें अब सफेद नहीं थीं। उन पर कुछ उभरा हुआ दिखने लगा। खरोंचों से बना हुआ एक नाम: "अदिति... अदिति…?” आकाश फुसफुसाया।
उसकी बीवी का नाम।
अचानक.. उसकी आँखों में फ्लैश हुआ...
अंधेरे में चीखती अदिति… फर्श पर गिरा हुआ टेबल लैंप…
और नन्हीं सी माया कोने में सिसकती हुई।
और वो…? उसने क्या किया था? क्या… उसने उन्हें मार दिया था?
आकाश अब दीवार से सिर टकरा रहा था। “मैंने कुछ नहीं किया… मैंने कुछ नहीं किया…”
लेकिन खिड़की के उस पार, अदिति ने आज पहली बार मुँह खोला। "हम यहीं हैं आकाश। हम कभी गए ही नहीं।"
खिड़की धुंधली हो रही थी। दरवाज़े के नीचे बहता खून अब चारों तरफ फैल चुका था।
और तब… दरवाज़ा खुला। वहशत से भरी दो आँखें अंदर झाँकीं।
सफेद कोट पहने एक डॉक्टर। “मिस्टर आकाश, अब दवाइयों का असर उतर चुका है।”
“अब हम आपको असली सच दिखाएँगे।”
कमरे में बर्फ़ जैसी ठंड थी। आकाश की आँखें खुली थीं, मगर शरीर स्थिर था, जैसे कोई भीतर कुछ तोड़ चुका हो।
मैं सपना नहीं देख रहा! मैं उन्हें महसूस करता हूँ... उनकी खुशबू, उनका हँसना, वो सब!" आकाश ने दीवार पर घूँसा मारा। आवाज़ गूंजी, और फिर सब शांत।
दरवाज़ा धीरे से खुला। वही डॉक्टर सफेद कोट, नीली आँखें, और होंठों पर एक शांत मुस्कान। उसने एक फाइल खोली, और कहा, "आकाश, क्या तुम वाक़ई जानते हो कि सपना क्या है... और हकीकत क्या?"
"मुझे और भ्रमित मत करो। मुझे घर जाना है। मेरी बेटी मुझे ढूंढ रही होगी।"
डॉक्टर थोड़ा पास आया। टेबल पर एक पुरानी तस्वीर रखी एक जलता हुआ घर। आग की लपटें आसमान छू रही थीं। "ये... तुम्हारा ही घर था न?" आकाश काँप गया। उसका गला सूख गया।
"तुम्हारी पत्नी और बेटी... उसी आग में मारे गए थे, आकाश। तुमने ही बताया था। खुद अपने हाथों से लाशें देखीं थीं।"
"नहीं!" आकाश ने चीखते हुए सिर पकड़ लिया।
"वो जिंदा हैं... मैं उनसे रोज़ मिलता हूँ। मैं उन्हें गुडनाइट कहता हूँ!"
डॉक्टर शांत रहा। उसने अपनी घड़ी की ओर देखा, 3:33 AM "समय आ गया है, आकाश।"
"किस बात का समय?"
डॉक्टर दरवाज़े की ओर बढ़ा। उसने दरवाज़ा खोला और कहा, "तुम्हारे अतीत से मिलने का।"
वर्तमान से पीछे – 3 साल पहले | वही घर
बारिश की रात थी। पत्नी और बेटी ने आकाश के लिए सरप्राइज़ डिनर तैयार किया था। हँसी, रोशनी और गर्माहट से भरा घर।
पर कुछ तो था उस रात में। आकाश के चेहरे पर तनाव था। उसकी आँखों में डर था, और हाथ में शराब की बोतल।
"मैं थक चुका हूँ इस सब से! ये दिखावा, ये झूठी हँसी... मैं नहीं कर सकता!" उसने चीखते हुए टेबल पलट दी। पत्नी काँप गई, बेटी डरकर माँ के पीछे छुप गई।
"पापा, आप ऐसे क्यों बोल रहे हैं?"
"तुम्हें क्या लगता है? मैं पागल हूँ? हर दिन वही सपने, वही आवाज़ें… और तुम सब बस हँसते हो!" उसके चेहरे पर जुनून था, और आँखों में अंधेरा।
अचानक एक गंध। गैस।
पत्नी भागकर स्टोव की ओर दौड़ी। "तुमने गैस छोड़ दी है? क्या कर रहे हो!"
"शांत रहो!" आकाश चीखा।
"सब खत्म होना चाहिए। ये भ्रम... ये सब!"
और तभी एक चिंगारी। एक विस्फोट। सब कुछ जल गया।
वापस वर्तमान | मनोरोग संस्थान
"तुमने उस रात कुछ खोया, आकाश," डॉक्टर ने धीरे से कहा।
"पर तुमने खुद को खोने का इल्ज़ाम कभी खुद पर नहीं लिया। तुमने अपने मन में एक दुनिया बना ली, जहाँ वे आज भी जिंदा हैं।"
आकाश की आँखों से आँसू बहने लगे। "तो... मैं ही था... जिसने उन्हें..." उसकी आवाज़ काँप गई।
"हाँ," डॉक्टर ने कहा।
"पर अब वक़्त आ गया है सच को स्वीकारने का। ताकि तुम माफ़ी मांग सको... खुद से।"
आकाश उठ खड़ा हुआ। "क्या मैं... उनसे मिल सकता हूँ?"
डॉक्टर मुस्कराया। "हाँ। मगर तुम्हें उन्हें उसी रूप में देखना होगा, जैसा तुम्हारा सच है।"
आकाश धीरे-धीरे उस पुराने दरवाज़े की ओर बढ़ा… जहाँ उनकी परछाईं उसका इंतज़ार कर रही थी।
दरवाज़े के उस पार घुप्प अंधेरा था। लेकिन आकाश अब डर नहीं रहा था। उसका चेहरा एकदम शांत था जैसे उसने कोई लंबी लड़ाई हार कर, अब सच्चाई से मिलने का साहस जुटा लिया हो।
डॉक्टर ने धीमे स्वर में कहा, "जो तुम देखोगे, वो तुम्हारे ज़हन का प्रतिबिंब होगा। कोई कल्पना नहीं, कोई झूठ नहीं। सिर्फ वही... जो बचा है।"
दरवाज़ा खुला। भीतर एक टेबल थी पुरानी, धूल से ढकी।
और एक कुर्सी... जिस पर बैठी थी उसकी पत्नी।
सफ़ेद साड़ी, बिना भाव के चेहरा, और बुझी हुई आँखें।
उसकी गोद में थी उनकी बेटी की गुड़िया।
"अदिति..." आकाश ने फुसफुसाते हुए कहा।
"तुम क्यूं आए?" उसकी पत्नी की आवाज़ ठंडी थी, लेकिन परिचित।
"मैं... माफ़ी माँगने आया हूँ।"
"अब?" उसकी आँखों में कोई आँसू नहीं थे। जब सब जल गया, जब मैं चीखती रही, और तुम... खुद को ईश्वर समझते रहे?"
आकाश के घुटने ज़मीन से लग गए। "मैं खो गया था... सपनों में, डर में। मैंने जो देखा... वो हकीकत नहीं थी, और जो हकीकत थी, मैंने उसे नकार दिया।"
उसकी बेटी की गुड़िया ज़ोर से बोल पड़ी "पापा, आप रोज़ मुझे गुडनाइट क्यों कहते हैं, जब मैं अब आपके पास नहीं हूँ?"
वो आवाज़… वो आवाज़ असली थी। आकाश का सीना जैसे फट गया।
"क्योंकि तुम्हें खोना मुझे मंज़ूर नहीं था। क्योंकि... मैं खुद से माफ़ी नहीं मांग सकता था। इसलिए मैं रोज़ उस दरवाज़े पर खड़ा होता था… जहाँ तुम मुझे ‘अलविदा’ कह कर चली गई थीं।"
अदिति उठी। उसकी साड़ी से राख झड़ रही थी। उसने आकाश के चेहरे को छुआ "अगर वाक़ई पछतावा है… तो खुद को सज़ा नहीं, माफ़ी दो। तभी हम सब आज़ाद होंगे।"
आकाश ने रोते हुए उसकी गोद में सिर रख दिया। वो दृश्य धीरे-धीरे धुंधला होने लगा।
सुबह 6 बजें, आकाश की आँखें खुलीं। वो बिस्तर पर था। चेहरे पर आँसू थे। लेकिन पहली बार चेहरा शांत था।
डॉक्टर कमरे में आया। "कैसा लग रहा है?"
"खाली… मगर सच्चा।" आकाश ने धीरे से कहा।
डॉक्टर ने एक फाइल दी। "तुम्हें डिस्चार्ज किया जा रहा है।"
"कहाँ जाऊँगा?"
"जहाँ तुम चाहो। लेकिन अब तुम जान चुके हो कि सच से भागकर सिर्फ भ्रम मिलता है, और सच से मिलने पर… माफ़ी।"
आकाश उठा। जैसे भीतर कोई चक्र पूरा हो चुका था।
उसने कमरे की दीवार की ओर देखा, जहाँ वो रोज़ एक तस्वीर टाँगता था उसकी पत्नी अदिति और बेटी की।
आज… उसने वो तस्वीर दीवार से उतारी, और चुपचाप… अपने दिल से लगाकर आँखें बंद कर लीं।
आकाश उदास सा अपने पुराने घर की ओर चल दिया। वो घर एकदम शांत था। दीवारों पर यादों की दरारें थीं, और ज़मीन पर वक़्त की धूल। दरवाज़ा धीरे से खुला। आकाश ने भीतर कदम रखा… साँस रुक-सी गई।
वहीं थी वो पुरानी खाट… जहाँ अदिति अपनी बेटी के साथ बैठा करती थी पर अब खाली।
लेकिन कुछ तो था वहाँ… एक उपस्थिति… जो दिखाई नहीं देती थी, पर महसूस होती थी।
आकाश धीरे-धीरे कमरे के बीच पहुँचा। हाथ में एक छोटी सी लाल डायरी थी जिसमें वो हर रात अपनी बेटी और पत्नी के लिए कुछ लिखता था।
"आज आख़िरी पन्ना है..." उसने फुसफुसाकर कहा।
डायरी खोली और लिखा "मेरी अदिति, मेरी परी...
हर रात मैंने तुम्हें 'गुडनाइट' कहा, ताकि मेरी आवाज़ तुम्हें उस पार पहुँचा सके। लेकिन अब… मुझे समझ आया, कि तुम्हें रोककर मैंने खुद को कैद किया। आज... मैं तुम्हें जाने दे रहा हूँ। गुडनाइट... हमेशा के लिए।"
वो रोया नहीं। बस धीमे से डायरी को आग में डाल दिया। लपटें उठीं। लेकिन उस आग में दर्द नहीं था बस रिहाई थी।
तभी… पीछे से एक हल्की-सी फुसफुसाहट आई जैसे कोई छोटी बच्ची कान में कह रही हो "Goodnight, Papa."
और… दूसरी आवाज़, जो वर्षों से उसके सपनों में रोती रही थी, आज पहली बार मुस्कराकर बोली "Goodnight, आकाश।"
वो मुस्कराया। एक आख़िरी बार उस पुरानी खिड़की से बाहर देखा।
आसमान में चाँद था शांत, स्थिर… जैसे कोई आत्मा जिसने शांति पा ली हो।
6 महीने बाद, डॉक्टर की डायरी में
"आकाश, जो कभी मानसिक टूटन का उदाहरण था,
अब एक लेखक बन गया है। उसकी नई किताब 'मैं उन्हें रोज़ गुडनाइट कहता हूँ' एक पिता के अपराधबोध, प्यार, और अंततः माफ़ी की यात्रा है।
उसने मुझे एक पन्ना भेजा था जिस पर सिर्फ तीन शब्द थे 'I let go.'"

